Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 2
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 630
________________ निर्जरा यथा मन्त्रीषार्णवीर्यविपाकं विषं न दोष तथा विशेषेण निर्जीणरसं कर्म न संसारफलम् ॥ ( २ / ११ / १० /- ) | धाविपाकात्तपसो वा उपभुक्तवीर्यं कर्म निर्जरा । ( ७ /१४/४०/१७) | १. जिनसे कर्म मड (ऐसे जीमके परिणाम) अथवा जो कर्म मह वे निर्जरा है (भ.आ./वि./८/१३४/१६) २. निर्जराको भौति निर्जरा है। जिस प्रकार मन्त्र या औषध आदि नि.शक्ति किया हुआ विष, दोष उत्पन्न नहीं करता; उसी प्रकार तप आदिसे नीरस किये गये और निःशक्ति हुए कर्म संसारचक्रको नहीं चला सकते । ३. यथाकाल या तपोविशेषसे कर्मोंकी फलदानशक्तिको नष्ट कर उन्हें कड़ा देना निर्जरा है । (द्र.सं/मू./३६/१५० ) । का.अ./मू./१०३ सव्वेसि कम्मा सन्तिविवाओ ने तदणं तरं तु सडणं कम्माणं णिज्जरा जाण ॥ १०३ ॥ शक्तिके उदय होनेको अनुभाग कहते हैं । उसके खिरनेको निर्जरा कहते हैं । ६२२ अणुभाओ । - सत्र कर्मोंकी पश्चात् कर्मोके २. निर्जराके भेद पढमा विग भ.आ./सू. १४०-१४०/९६२६ सा पुणो हवेह दुबिहा जादा विदिया अविवागजाया य । १८४७ | तहका लेण तवेण य पच्चं ति कदाणि कम्माणि | ९८४८११. वह दो प्रकारकी होती है- विपाकज व अविपाकज । ( स सि./८/२३/३६६/८); (रा. वा / १/४/११/२७/६; १/७/१४/४०/९० : ८/२३/२/०४/२) (म./१/०) (त.सा./०/२) २. अथवा वह दो प्रकारकी है-स्वकालपक्व और तपद्वारा कर्मों को पाकर की गयी (मा. अ./६७): (रा. सू./८/२१-२२+१/३); (द्र.सं./ भू./३६/१५०); (डा. अ. / . / १०४) । रा. वा./१/७/१४/४०/१६ सामान्यादेका निर्जरा, द्विविधा यथाकालीपक्रमिकभेदाद, अहधा कर्मप्रकृतिभेदाव एवं संख्येयासंख्येयानन्तविकल्पा भवति धर्मरस निर्हरणभेदात सामान्यसे निर्जरा एक प्रकारकी है। यथाकाल व औपक्रमिकके भेदसे दो प्रकारकी है। मूल कर्म प्रकृतियों की हिसे आठ प्रकारकी है। इसी प्रकार कमोंके रसको क्षीण करनेके विभिन्न प्रकारोंकी अपेक्षा संख्यात असंख्यात और अनन्त भेद होते हैं। प्र.सं./टी./३६/९३०,१११ भाव निर्जरा द्रव्यनिर्जरा -भाव निर्जरा व द्रव्यनिर्जराके भेदसे दो प्रकार हैं। Jain Education International ३. सविपाक व अविपाक निर्जराके लक्षण स.सि./८/२३/२६६६६ क्रमेण परिपाककासप्राप्तस्यानुभवोदयाव सिखोसोऽप्रविष्टस्यारब्धफलस्य या निवृत्तिः सा विपाकजा निजरा यत्कर्माप्राविपाको मिकक्रियाविशेषसामर्थ्यानुदीर्णमतादुद्दीन दयावलि प्रवेश्य वेद्यते आम्रपनसादिपाकवत् सा अविपाकजा निर्जरा । शब्दो निमित्तान्तरसमुच्चयार्थः । क्रमसे परिपाककालको प्राप्त हुए और अनुभवरूपी उदयावली के स्रोत में प्रविष्ट हुए ऐसे शुभाशुभ कर्मको फल देकर जो निवृत्ति होती है वह विचाजा निर्जरा है। तथा आम और पनस (कटहल ) को औपक्रमिक क्रिया विशेषके द्वारा जिस प्रकार अकाल में पका लेते हैं; उसी प्रकार जिसका विपाककाल अभी नहीं प्राप्त हुआ है तथा जो उससे बाहर स्थित है, ऐसे कर्मको (तपादि) औपकमिक किया विशेषकी सामर्थ्य उदासी में प्रविष्ट कराके अनुभव किया जाता है। वह अविपाकजा निर्जरा है । सूत्र च शब्द अन्य निमित्तका समुचय करानेके लिए दिया है। अर्याद विपाक द्वारा भी निर्जरा होती है और तप द्वारा भी (रा.वा./८/ २३/२/५/०४/३) (भ आ./वि./१०४६/१६६०/२०) (न.च.वृ./१५८) (त.सा./७/३-५) (प्र./टी./३६/१५१/३) स.सि./१/०/४१०/१ निर्जरा बेदना विपाक हर सा द्वेषा-अबुद्धिपूर्वा कुशलता चेति तत्र नरकादिषु गतिषु कर्मविपाका २. निर्जरा निर्देश अबुद्धिपूर्वा सा अकुशलानुबन्धा परिषमे कुठे कुशलता सा शुभानुबन्धा निरनुबन्धा चेति वेदना विपाकका नाम निर्जरा है। वह दो प्रकार की है- अबुद्धिपूर्वा और कुशलमूला । नरकादि गतियों में धर्मफलके विपाक जायमान जो निर्जरा होती है वह अकुशलानुमन्या है तथा परिषहके जीतनेपर जो निर्णरा होती है वह कुशलता निर्जरा है वह भो शुभानुमन्धा और निरनुबन्धाके भेद से दो प्रकारकी होती है। ४. द्रव्य भाव निर्जराके लक्षण = इ.सं./टी./३६/१५०/१० भावनिर्जरा सा का ये भावेन जीवपरिणामेन । कि भवति 'सर्डादि' विशीयते पतति गलति वियति । कि कतु" "कम्मपुग्गर्स'को न यच सा द्रब्य निर्जरा। ==जीवके जिन शुद्ध परिणामों से पुद्गल कर्म झड़ते हैं वे जीवके परिणाम भाव निर्जरा हैं और जो कर्म कहते हैं वह द्रव्य निर्जरा है। पं.का./ता.वृ./१४४/२०६ / ९६ कर्मश किनिसमसमर्थः शुद्धोपयोगी भावनिर्जरा तस्य शुद्धोपयोगेन सामर्थ्येन नीरखीभूतानां पूर्वोपार्जित कर्मपुद्गलानां संवरपूर्व कभावेनै कदेशसंक्षयो द्रव्यनिर्जरेति सूत्रार्थः | १४४| कर्मशक्ति निर्मूलनमें समर्थ जीवका शुद्धोपयोग तो भा निर्जरा है। उस शुद्धोपयोगकी सामर्थ्यसे नोरसीभूत पूर्वोपार्जित कर्नगला संवरपूर्वकायसे एकदेश क्षम होना द्रव्यनिर्जरा है। ५. अकाम निर्जराका लक्षण = | = स.सि./६/२०/३३५/१० अकामनिर्जरा अकामधारक निरोधबन्धनवज्रपु तृष्णा निरोधह्मचर्यभूशय्यामसाधारणपरितापादिः । अकामेन निर्जरा अकामनिर्जरा पारकर्मे रोक रखनेपर या रस्सी आदिसे बॉध रखनेपर जो भूख-प्यास सहनी पड़ती है. महचर्य पालना पड़ता है, भूमिपर सोना पड़ता है, मल-मूत्रको रोकना पड़ता है और सन्ताप आदि होता है, ये सब अकाम है और इससे जो निर्जरा होती है यह अकामनिर्जरा है ( रा. मा./६/२०/९/२०/१६) - रा. वा./६/१२/७/२२२/२८ विषयानर्थ निवृति चारमाभिप्रायेणाकुर्वतः पारतन्त्र्याद्भोगोपभोगनिरोधोऽकामनिर्जरा अपने अभिप्रायसेन किया गया भी विषयोंकी निवृत्ति या त्याग तथा परतन्त्रताके कारण भोग-उपभोगका निरोध होनेपर उसे शान्तिसे सह जाना अकाम निर्जरा है । ( गो . क./जी. प्र. / ५४८/७१७/२३ ) ★ गुणश्रेणी निर्जरा दे०संक्रमण / ८ * । * काण्डकघात दे० अपकर्षण/४। २. निर्जरा निर्देश १. सविपाक व अविपाकमै अन्तर भ.आ./ / ९४१ / ९८६० मेसि उदयसमागदस्स कम्मस्स णिज्नरा होइ । कम्मस्स तवेण पुणों सव्वस्स वि णिज्जरा होइ । १. सविपाक निर्जरा तो केवल सर्व उदयगत कर्मोंको ही होती है, परन्तु तपके द्वारा अर्थात् अविपाक निर्जरा सर्व कर्मकी अर्थात् पक्क व अपक सभी कमोंकी होती है। (यो. सा./अ./६/२-३) (दे० निर्जरा/१/२) | मा.अ./६० चायुगदी पदमा धनुत्ता हमे विदिया। ६-२ चतुर्गतिके सर्व ही जीवोंको पहिलो अर्थात् सविपाक निर्जरा होती है, और सम्यग्दृष्टिवारियोंको दूसरी अर्थात् अविपाक निर्जरा होती है। (त.सा./७/६) (और भी दे० मिध्यादृष्टि/४ निर्जरा/३/२) ६० निर्जरा / १ / ३३. सविपाक निर्जरा कुशलानुबन्धा है और अविपाक निर्जला है वहाँ भी मिध्यादृष्टियोंकी अधिक निर्जरा निरोध न होनेके कारण शुभानुबन्धा है और सम्यष्टियों जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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