Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 2
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 609
________________ निक्षेप ५. द्रव्य निक्षेपके भेद व लक्षण कर्म, मदिरा, आयुका नोकर्म चार प्रकार आहार, नामकर्मका नोकर्म औदारिकादि शरीर और गोत्रकर्मका नोकर्म ऊँचा-नीचा शरीर है। ४. लौकिक व लोकोत्तर सामान्य नोकर्म तदयतिरिक्त घ.४/१,३,१/७/१ णोकम्मदव्ववेत्तं तं दुविहं, ओषयारियं परमत्थियं चेदि । तत्थ ओवयारियं णोकम्मदव्यखेत्तं लोगपसिद्ध सालिखेतं वीहिखेतमेवमादि । पारमत्थियं णोकम्मदव्यखेतं आगासदव्यं । -नोकर्म द्रव्यक्षेत्र ( यहाँ क्षेत्रका प्रकरण है) औपचारिक और पारमार्थिकके भेदसे दो प्रकारका है। उनमें से लोकमें प्रसिद्ध शालिक्षेत्र, वी हिक्षेत्र, इत्यादि औपचारिक नोकर्म तद्व्यतिरिक्त नोआगम द्रव्यक्षेत्र कहलाता है। आकाश द्रव्य पारमार्थिक नोकर्म तइव्यतिरिक्त नोआगम द्रव्यक्षेत्र है। नोट-(अन्य भी देखो वह-वह विषय )। ५. सचित्त अचित्त मिश्र सामान्य नोकर्म तद्व्यतिरिक्त घ./१,७.१/१८४७ तम्वदिरित्तणोआगमदेवभावो तिविहो सचित्ताचित्तमिस्सभेएण । तत्थ सचित्तो जीवदव्वं । अचित्तो पोग्गल-धम्माधम्म-कालागासदव्बाणि । पोग्गलजीवदव्वाण संजोगो कधं चिज्जाचंतरत्तमावण्णो णोआगममिस्सदव्वभावो णाम । -तद्वयतिरिक्त नोआगमद्रव्यभावनिक्षेप (यहाँ भावका प्रकरण है) सचित्त अचित्त और मिश्रके भेदसे तीन प्रकारका है। उनमें जीव द्रव्य सचित्त भाव है, पुद्गल धर्मास्तिकाय अधर्मास्तिकाय काल और आकाशद्रव्य अचित्तभाव हैं। कथंचित जात्यंतर भावको प्राप्त पृद्गल और जीव द्रव्योंका संयोग अर्थात शरीरधारी जीव नोआगम मिश्रद्रव्य भावनिक्षेप है। (ध./१,६.१/३/१--यहाँ 'अन्तर' के प्रकरण में तीनों भेद दर्शाये हैं। नोट-(अन्य भी देखो वह बह विषय)। ६. लौकिक व लोकोत्तर सचितादि नोकर्म तद्वयतिरिक्त घ.१/१,१.२/२७/९ तत्र लौकिकं त्रिविधम्, सचित्तमचित्तं मिश्रमिति । तत्राचित्तमङ्गलम-'सिद्धत्थ-पुण्ण-कभो बंदणमाला य मङ्गलं छत्तं । सेदो वण्णो आदसणो य कण्णा य जच्चस्सो ।१३। सचित्तमङ्गलम् । मिश्रमङ्गलं सालंकारकन्यादिः । लोकोत्तरमङ्गलमपि त्रिविधम, सचित्तमचित्तं मिश्रमिति । सचित्तमहदादीनामनाद्यनिधनजीवद्रव्यम् । न केवलज्ञानादिमङ्गलपर्यायविशिष्टाहदादीनाम जीवद्रव्यस्यैव ग्रहणं तस्य वर्तमानपर्यायोपलक्षितं द्रव्यं भावइति भावनिक्षेपान्तर्भावात । न केवलज्ञानादिपर्यायाण ग्रहणं तेषामपि भावरूपत्वात । अचित्तमङ्गलं कृत्रिमाकृत्रिमचैत्यालयादिः, तत्स्थप्रतिमास्तु संस्थापनान्तर्भावात् । अकृत्रिमाण कथं स्थापनाव्यपदेशः। इति चेन्न, तत्रापि बुद्धया प्रतिनिधौ स्थापयितमुरख्योपलम्भात् । यथा अग्निरिव माणवकोऽग्निः तथा स्थापनेव स्थापनेति तासां तद्वयपदेशोपपत्तेर्वा। तदुभयमपि मिश्रमङ्गलम्। -लौकिक मंगल (यहाँ मंगलका प्रकरण है) सचित्त-अचित्त और मिश्रके भेदसे तीन प्रकारका है। इनमें सिद्धार्थ अर्थात् श्वेत सरसों, जलसे भरा हुआ कलश, बन्दनमाला, छत्र, श्वेतवर्ण और दर्पण आदि अचित्त मंगल हैं। और बालकन्या तथा उत्तम जातिका घोडा आदि सचित्त मंगल हैं । १३. अलंकार सहित कन्या आदि मित्रमंगल समझना चाहिए। (दे० मंगल/१/४)। लोकोत्तर मंगल भी सचित्त अचित्त और मिश्रके भेदसे तीन प्रकारका है। अहंतादिका अनादि अनिधन जीवद्रव्य सचित्त लोकोत्तर नोआगम तव्यतिरिक्तद्रव्य मंगल है। यहाँ पर केवल ज्ञानादि मंगलपर्याययुक्त अहंत आदिका ग्रहण नहीं करना चाहिए, किन्तु उनके सामान्य जीव द्रव्यका ही ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि वर्तमानपर्याय सहित द्रव्यका भाव निक्षेपमें अन्तर्भाव होता है। उसी प्रकार केवलज्ञानादि पर्यायोका भी इसमे ग्रहण नहीं होता, क्योंकि वे सब पर्याये भावस्वरूप होनेके कारण उनका भी भाव निक्षेपमें ही अन्त र्भाव होगा। कृत्रिम और अकृत्रिम चैत्यालयादि अचित्त लोकोत्तर नोआगम तद्व्यतिरिक्त द्रव्यमंगल हैं। उनमें स्थित प्रतिभाओंका इस निक्षेपमें ग्रहण नहीं करना चाहिए। क्योकि उनका स्थापना निक्षेपमें अन्तर्भाव होता है । प्रश्न-अकृत्रिम प्रतिमाओमे स्थापनाका व्यवहार कैसे सम्भव है। उत्तर-इस प्रकारको शंका उचित नहीं हैं। क्योंकि, अकृत्रिम प्रतिमाओं में भी बुद्धिके द्वारा प्रतिनिधित्व मान लेनेपर 'ये जिनेन्द्रदेव हैं। इस प्रकारके मुख्य व्यवहारकी उपलब्धि होती है। अथवा अग्नि तुल्य तेजस्वी मालकको भी जिस प्रकार अग्नि कहा जाता है उसी प्रकार अकृत्रिम प्रतिमाओंमें की गयी स्थापनाके समान यह भो स्थापना है। इसलिए अकृत्रिम जिन प्रतिमाओ में स्थापनाका व्यवहार हो सकता है। उन दोनों प्रकारके सचित्त और अचित्त मंगलको मिश्रमंगल कहते हैं (जैसे-साधु संघ सहित चैत्यालय)। ८. स्थित जित आदि भेदोंके लक्षण ध.६/४,१,५४/२५१/१० अवधृतमानं स्थितम्, जो पुरिसो भावागमन्मि वुड्ढओ गिलाणो व्ब सणि सणि संचरदि सो तारिससंसकारजुत्तो पुरिसो तभावागमो च स्थित्वा वृत्तेः द्विदं णाम। नैसंग्यवृत्तिजितम्, जेण संसकारेण पुरिसो भावागमम्मि अक्वलिओ संघरइ तेण संजुत्तो पुरिसो तन्भावागमो च जिदमिदि भण्णदे। यत्र यत्र प्रश्नः क्रियते तत्र तत्र आशुतमवृत्ति परिचितम्. क्रमेणोत्क्रमेणानुभयेन च भावागमाम्भोधौ मत्स्यवच्चटुलतमवृत्तिर्जीवो भावागमश्च परिचितम् । शिष्याध्यापन वाचना । सा चतुर्विधा नंदा भद्रा जया सौम्या चेति । " एतासा वाचनानामुपगतं वाचनोपगतं परप्रत्यायनसमर्थम् इति यावत् । ध.६/४,१.५४/२५६/७ तित्थयरवयण विणिग्गयबीजपदं सुत्तं । तेण सुत्तेण समं वट्टदि उप्पज्जदि त्ति गणहरदेवम्मिट्टिदसुदणाणं सुत्तसमं । अयेते परिच्छिद्यते गम्यते इत्यर्थो द्वादशाङ्गविषयः, तेण अत्येण समं सह वट्टदि ति अस्थसमं । दब्बसुदाइरिए अणवेक्विय संजमजणिदसुदणागावरणक्रव ओषसमसमुप्पण्णबारहंगमुदं सयंबुद्धाधारमत्थसममिदि वुत्तं होदि । गणहरदेव विरइददब्बसुदं गंथो, तेण सह बट्टदि उप्पज्जदि त्ति बोहियबुद्धाइरिएसु द्विदबारहंगसुदणाणं गंथसमं । नाना मिनोतीति नाम । अणेणेहि, पयारेहि अत्थपरिच्छिन्ति णामभेदेण कुणदि त्ति एगादि अवरवराण बारसंगाणि ओगाणं मज्झदिदव्बसुदणाणवियप्पा णाममिदि बुत्तं होदि । तेण नामेण दब्बसुदेण समं सट्टवट्टदि उप्पज्जदि त्ति सेसाइरिएसु दिसुदणाणं णामसमं । सुई मुद्दा" पंचते...अणिओगस्स घोससाणो णामेगदेसेण अणिोगो बुच्चदे। सच्चभामापदेण अवगम्ममाणस्थस्स तदेगदेसभामासदादो वि अवगमादो।" घोसेण दव्बाणिओगहारेण सम सह बट्टदि उप्पज्जदि त्ति घोससमं णाम अणियोगमुदणाणं । १. अवधारण किये हुए मात्रका नाम स्थितआगम है। अर्थात जो पुरुष भावआगममें वृद्ध व व्याधिपीडित मनुष्यके समान धीरे-धीरे संचार करता है वह उस प्रकारके संस्कारसे युक्त पुरुष और वह भावागम भी स्थित होकर प्रवृत्ति करनेसे अर्थात् रुक-रुककर चलनेसे स्थित कहलाता है। २, नैसर्ग्यवृत्तिका नाम जित है। अर्थात् जिस संस्कारसे पुरुष भावागममें अस्खलितरूपसे संचार करता है, उससे युक्त पुरुष और भावागम भी 'जित' इस प्रकारका कहा जाता है। ३. जिस जिस विषयमें प्रश्न किया जाता है, उसउसमें शीघ्रतापूर्ण प्रवृत्तिका नाम परिचित है। अर्थात् क्रमसे, अक्रमसे और अनुभयरूपसे भावागमरूपी समुद्रमें मछलीके समान अत्यन्त जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश भा०२-७६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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