Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 2
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 608
________________ निक्षेप ६०० ५. द्रव्य निक्षेपके भेद व लक्षण द्रव्य जीत्र है। (रा, वा/१/१/७/२६/९), (श्लो. वा/२/१/५/श्लो.६२/ २६७). (ध.१/१,१,१/२१/३), (गो.क./मू./५५/५४)। २. च्युत च्यावित व त्यक्त अतीत शायक शरीर ध.१/१,९,१/२२/३ तरथ चुदं णाम कयलीघादेण विणा पक्कं पि फलं व कम्मोदएण ज्झीयमाणायुक्खयपदिदं । चइदं णाम कयलीधादेण छिण्णायुक्खयपदिसरीरं । चत्तसरीरं तिविह, पावोगमण-विहाणेण, इंगिणीविहाणेण, भत्तपच्चक्वाणविहाणेण चत्तमिदि। -- कदली. घात मरणके बिना कर्मके उदयसे झडनेवाले आयुकर्मके क्षयसे, पके हुए फलके समान, अपने आप पतित शरीरको च्युतशरीर कहते हैं। कदलीघातके द्वारा आयुके छिन्न हो जानेसे छूटे हुए शरीरको च्यावित शरीर कहते हैं। (कदलीघातका लक्षण दे० मरण/४)। त्यक्त शरीर तीन प्रकारका है-प्रायोपगमन विधानसे छोडा गया, इंगिनो विधानसे छोड़ा गया और भक्त प्रत्याख्यान विधानसे छोडा गया । ( इन तीनोंका स्वरूप दे० सल्लेखना/३), (गो. क./म./५६, ५८/५४)। घ. १/१,१,१/२५/६ कयलीघादेण मरणकरवाए जीवियासाए जीवियमरणासाहि विणा पदिदं सरीरं चइदं । जीवियासाए मरणासाए जीवियमरणासाहि विणा वा कयलीघादेण अचत्तभावेण पदिदं सरीर चुदं णाम । जी विदमरणासाहि विणा सरूवोवलद्धि णिमित्तं व चत्त बझंतरडगपरिग्गहस्स कयलीघादेणियरेण वा पदिदसरीरं चत्तदेहमिदि । यमरणकी आशासे या जोवनकी आशासे अथवा जीवन और मरण इन दोनोंकी आशाके बिना ही कदलीघातसे छूटे हुए शरीरको च्यावित कहते है । जीवनकी आशासे, मरणकी आशासे अथवा जीवन और मरण इन दोनोंकी आशाके बिना ही कदलीधात व समाधिमरणसे रहित होकर छूटे हुए शरीरको च्युत कहते हैं। आत्म स्वरूपकी प्राप्तिके निमित्त, जिसने बहिरंग और अन्तरंग परिग्रहका त्याग कर दिया है, ऐसे साधुके जीवन और मरणकी आशाके बिना ही, कदलीधातसे अथवा इतर कारणोंसे छूटे हुए शरीरको त्यक्त शरीर कहते हैं। ३. भूत वर्तमान व भावी ज्ञोयक शरीर ( वर्तमान प्राभृतका ज्ञातापर अनुपयुक्त आत्माका वर्तमानवाला शरीर; उस ही आत्माका भूतकालीन च्युत, च्यावित या त्यक्त शरीरः तथा उस ही आत्माका आगामी भवमें होनेवाला शरीर, क्रमसे वर्त. मान, भूत व भावी ज्ञायकशरीर नोआगमद्रव्य जीव या मगल आदि कहे जाते है।) ६. भावि नोआगमका लक्षण स. सि./१/१/१८/५ सामान्यापेक्षया नोआगम-भाविजीवो नास्ति, जीवनसामान्यसदापि विद्यमानत्वात । विशेषापेक्षया स्वस्ति । गत्यन्तरे जीवो व्यवस्थितो मनुष्यभवप्राप्तिं प्रत्यभिमुखो मनुष्यभाविजीवः। -जीव सामान्यकी अपेक्षा 'नोआगम भावी जीव' यह भेद नहीं बनता है; क्यों कि जीवमे जीवत्व सदा पाया जाता है। हाँ, पर्यायाथिकनयकी अपेक्षा 'नो आगम भावी जीव' यह भेद बन जाता है; क्योकि जो जीव अभी दूसरी गतिमें विद्यमान है, वह ( अज्ञायक जीव ) जब मनुष्य भवको प्राप्त करनेके प्रति अभिमुख होता है, तब वह मनुष्य भावी जीव कहलाता है। रा वा/१/५/७/२६/8 जीवन-सम्यग्दर्शनपरिणामप्राप्ति प्रत्यभिमुख द्रव्यं भावीत्युच्यते । - जीवन या सम्यग्दर्शन आदि पर्यायो की प्राप्तिके अभिमुख अज्ञायक जीवको जीवन या सम्यग्दर्शन आदि कहना भावी नोआगम द्रव्य जीव या भावी नोआगम सम्यगदर्शन है। श्लोवा/२/२/५/श्लो.६३/२६८ भाविनोआगमद्रव्यमेष्यत् पर्यायमेव तत् । =जो आत्मा भविष्यत्में आनेवाली पर्यायोके अभिमुख है, उन पर्यायोसे आक्रान्त हो रहा वह आत्मा भावीनोअागम द्रव्य है।। ध.१/१,१,१/२६/३ भव्यनोआगमद्रव्यं भविष्यत्काले मंगलप्राभृतज्ञायको जीवः मंगलपर्यायं परिणस्यतीति वा। -जो जीव भविष्यकालमें मंगल शास्त्रका जाननेवाला होगा, अथवा मंगल पर्यायसे परिणत होगा उसे भव्य नोआगम द्रव्यमंगल कहते है। (ध.४/१,३,१/६/६), (गो.क./मू./६२/५८)। ७. तद्वयतिरिक्त सामान्य व विशेषके लक्षण १. तद्वयतिरिक्त नोआगम द्रव्य सामान्य स.सि./१/१८/७ तद्वय तिरिक्तः कर्मनोकर्म विकल्पः। -तव्यतिरिक्तके दो भेद हैं-कर्म व नोकर्म। (रा. वा/१/५/७/२१/११), (श्लो. वा/२/ १/५/श्लो,६६/२६८)। ध.१/१,१,१/८३/५ तव्वदिरित्तं जीवठाणाहार-भूदागास-दव्यं 1 जीवस्थानों के अथवा जीवस्थान विषयक शास्त्रके आधारभूत आकाशद्रव्यको तद्वचतिरिक्त नोआगम द्रव्य जीवस्थान कहते हैं। (अथवा उस-उस पर्यायके या शास्त्रज्ञानसे परिणत जीवके निमित्तभूत कर्म वर्गणाओं या अन्य बाह्य द्रव्योंको उस-उस नामसे कहना तद्वयतिरिक्त नोआगम द्रव्यनिक्षेप है)। २. कर्म तद्वयतिरिक्त नोआगम द्रव्य श्लो. वा/२/१/५/श्लो ६४/२६८ ज्ञानावृत्त्यादिभेदेन कर्मानेकविधमतर। ___ज्ञानावरण आदि भेदसे कर्म अनेक प्रकार माने गये हैं। ध.४/१, ३.१/६/१०)। ध १११.१.१/२६/४ तत्र कर्ममंगलं दर्शनविशुद्भवादिषोडशधाप्रविभक्ततीर्थ कर-नामक - कारणैर्जीव - प्रदेश - निबद्ध - तीर्थ करनामकर्ममाङ्गल्य निबन्धनत्वान्मडगलम् । - दर्शन विशुद्धि आदि सोलह प्रकारके तीर्थंकर-नामकर्म के कारणों से जीवप्रदेशों के साथ अंधे हुए तीर्थकर नामकर्मको. कर्म तद्वयतिरिक्त नोआगमद्रव्य मंगल कहते हैं। क्योंकि वह भी मंगलपनेका सहकारी कारण है। गो. क /म./६३/५८ कम्मसरूवेणागयकम दव्वं हवे णियमा ।- ज्ञानावरणादि प्रकृतिरूपये परिणमे पुदगलद्रव्य कर्म तद्वयतिरिक्त नोआगम द्रव्य कर्म जानना। (यहाँ 'कर्म का प्रकरण होनेसे कर्मपर लागू करके दिखाया है)। ३. नोकर्म तद्व्यतिरिक्त नोआगम द्रव्य सामान्य श्लो.वा/२/१५ श्लो.६४-६५ नोकर्म च शरीरवपरिणामनिरुत्सुकम् ।६।। पुदगलद्रव्यमाहारप्रभृत्युपचयात्मकम् ॥६५॥ =वर्तमानमें शरीरपनारूप परिगतिके लिए उत्साहरहित जो आहारवर्गणा, भाषावर्गणा आदि रूप एकत्रित हुआ पुद्गलद्रव्य है वह नोकर्म समझ लेना चाहिए। ध. ३/१,२,२/१५/३ आगममधिगम्य विस्मृत' क्वान्तर्भवतीति चेत्तद्व्यतिरिक्तद्रव्यानन्ते। प्रश्न-जो आगमका अध्ययन करके भूल गया है उसका द्रव्यनिक्षेपके किस भेदमें अन्तर्भाव होता है। उत्तर-ऐसे जीवका नोकर्म तद्वयतिरिक्त द्रव्यानन्तमें अन्तर्भाव होता है ( यहाँ 'अनन्त'का प्रकरण है)। गो, क./मू./६४.६७/५६,६६ कम्मद्दव्वादणं णोकम्मदव्वमिदि होदि ।। पडपडिहारसिमज्जा आहारं देह उच्चणीचड्गम् । भंडारी मूलाणं णोकम्मं दवियकम्मं तु । -कर्मस्वरूपसे अन्य जो कार्य होते हैं उनके बाह्यकारणभूत वस्तुको नोकर्म तद्व्यतिरिक्त नोआगम द्रव्यकर्म जानना ( यहाँ 'कर्म'का प्रकरण है।६४। जैसे-ज्ञानावरणका नोकर्म सरीठ वस्त्र है, दर्शनावरणका नीकर्म द्वारविष तिष्ठता द्वारपाल है। वेदनीयका नोकर्म मधुलिप्त खड्ग है। मोहनीयका नो जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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