Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 2
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 620
________________ निमित्त ६१२ निमित्तज्ञान परिहारमें प्रवृत्ति होती है, इसलिए प्रोत्रेन्द्रिय बहुत उपकारी है। धर्मास्तिकाय जीव और पुद्गलकी गतिमे अप्रेरक कारण है अत वह निष्क्रिय होकर भी बलाधायक हो सकता है। परन्तु आप तो आत्माके गुणको परकी क्रियामे प्रेरक निमित्त मानते हो, अतः धर्मास्तिकायका दृष्टान्त विषम है। कोई भी निष्क्रिय द्रव्य या उसका गुण प्रेरक निमित्त नहीं हो सकता। धर्मास्तिकाय द्रव्य तो अन्यत्र आश्रयकारण हो सकता है, पर निष्क्रिय आत्माका गुण जो कि पृथक् उपलब्ध नहीं होता, क्रियाका आश्रयकारण भी सम्भव नहीं है। उपकार, बलाधान, अवलम्बन ये एकार्थवाची शब्द हैं । ऐसा कहनेसे धर्म द्रव्य और अधर्म द्रव्यका जीव पुद्गलकी गतिस्थितिके प्रति प्रधान कर्तापनेका निराकरण कर दिया गया। जैसे लाठी चलते हुए अन्धेकी उपकारक है, उसे प्रेरणा नहीं करती उसी तरह धर्मादिको भी उपकारक कहनेसे उनमें प्रेरकपना नहीं आ सकता है। पं. का./त. प्र./८५-८८ धर्मोऽपि स्वयमगच्छन् अगमयंश्च स्वयमेव गच्छता जीवपुद्गलानामुदासीनाविनाभूतसहायकारणमात्रत्वेन गमनमनुगृह्णाति इति ।८५ तथा अधर्मोऽपि स्वयं पूर्वमेव तिष्ठन् परमस्थापयंश्च स्वयमेव तिष्ठतां जीवपुद्गलानामुदासीनाविनाभूतसहायकारणमात्रत्वेन स्थितिमनुगृह्णातीति ।८६। यथा हि गतिपरिणत प्रभब्जनो वैजयन्तीनां अतिपरिणामस्य हेतुकविलोक्यते न तथा धर्म: (८८ निमित्त ज्ञान १. निमित्तज्ञान सामान्यका लक्षण रा. वा./३/३६/३/२०२/२१ एतेषु महानिमित्तेषु कौशलमष्टाजमहानिमित्तज्ञता। - इन (निम्न ) आठ महानिमित्तोंमें कुशलता अष्ठांग महानिमित्तज्ञता है। २. निमित्तज्ञानके भेद ति, प./४/१००२, १०१५ णइमित्तिका य रिद्धी णभभउमंगसराइ बेजणयं । लक्षणचिहं सउणं अछवियप्पेहिं वित्थरिदं ।१००२। तं चिय सउणणिमित्तं चिण्हो मालो त्ति दोभेदं ।१०१५। =नैमित्तिक ऋद्धि नभ (अन्तरिक्ष),भौम, अंग, स्वर, व्यंजन, लक्षण, चिह्न (छिन्न); और स्वप्न इन आठ भेदोंसे विस्तृत है ।१००२॥ तहाँ स्वप्न निमित्तज्ञानके चिह्न और मालारूपसे दो भेद हैं ।१०१श (रा. वा./१/२०/१२/ ७६/८); (रा. वा./३/३६/३/२०२/१०); (घ.६/४,१,१४/गा. १६/७२); (ध.६/४,१.१४/७२/२: ७३/६); (चा, सा./२१४/३)। पं. का./ता. वृ./४/१४२/११ यथा सिद्धो भगवानुदासीनोऽपि सिद्धगुणा नुरागपरिणतानां भव्यानां सिद्धगते सहकारिकारणं भवति तथा धर्मोऽपि स्वभाबेन व गतिपरिणतजीवपुद्गलानामुदासीनोऽपि गतिसहकारिकारणं भवति । -- १. धर्म द्रव्य स्वयं गमन न करता हुआ और अधर्म द्रव्य स्वयं पहलेसे हो स्थिति रूप वर्तता हुआ, तथा ये दोनों ही परको गमन व स्थिति न कराते हुए जीव व पुदगलोंको अविनाभावी सहायरूप कारणमात्ररूपसे गमन व स्थितिमें अनुग्रह करते हैं।८५-८६। जिस प्रकार गतिपरिणत पवन ध्वजाओंके गतिपरिणामका हेतुकर्ता दिखाई देता है, उसी प्रकार धर्म द्रव्य नहीं है ।८८। २. जिस प्रकार सिद्ध भगवान् स्वय उदासीन रहते हुए भी, सिद्धोके गुणानुराग रूपसे परिणत भव्योकी सिद्धगतिमें, सहकारी कारण होते हैं, उसी प्रकार धर्मद्रव्य भी स्वभावसे ही गतिपरिणत जीवोंको, उदासीन रहते हुए भी, गतिमें सहकारी कारण हो जाता है। नोट-( उपरोक्त उदाहरणोपरसे निमित्तकारण व उसके भेदोंका स्पष्ट परिचय मिल जाता है। यथा-स्वयं कार्यरूप परिणमे वह उपादान कारण है तथा उसमें सहायक होनेवाले परद्रव्य व गुण निमित्त कारण हैं। वह निमित्त दो प्रकारका होता है-बलाधान व प्रेरक । बलाधान निमित्तको उदासीन निमित्त भी कहते हैं, क्योंकि, अन्य द्रव्यको प्रेरणा किये बिना, वह उसके कार्यमें सहायक मात्र होता है। परन्तु इसका यह अर्थ भी नहीं कि वह बिलकुल व्यर्थ ही है; क्योंकि, उसके बिना कार्यकी निष्पत्ति असम्भव होनेसे उसको अविनाभावी सहायक माना गया है। प्रेरक निमित्त क्रियावान द्रव्य ही हो सकता है। निष्क्रिय द्रव्य या वस्तुका गुण प्रेरक नहीं हो सकते। वस्तुकी सहायता व अनुग्रह करनेके कारण वह निमित्त उपकार, सहायक, सहकारी, अनुग्राहक आदि नामोंसे पुकारा जाता है। प्रेरक निमित्त किसी द्रव्यकी क्रियामें हेतुकर्ता कहा जा सकता है, पर उदासीन निमित्तको नहीं। कार्य क्षणसे पूर्व क्षणमें वर्तनेवाला अन्य द्रव्य सहकारी कारण कहलाता है (दे० कारण/I/३/१)। स्व व पर निमित्तक उत्पादके लिए -दे० उत्पादव्ययधौव्य/१ * निमित्तकारणकी मुख्यता गौणता-दे० कारण/HHI ३. निमित्तज्ञान विशेषोंके लक्षण ति.प./४/१००३-१०१६ रविससिगहपहुदीणं उदयत्थमणादि आई दणं । खोणत्तं दुक्खसुहं जं जाणइ त हि णहणिमित्तं ।१००३। घणसुसिरणिद्धलुक्रवप्पहुदिगुणे भाविदूण भूमीए। जं जाणइ खयवड्ढि तम्मयसकणयरजदपमुहाणं ।१००४। दिसिविदिसअंतरेसुं चउरंगबलं ठिदं च दळूणं । जं जाणइ जयमजयं तं भउमणिमित्तमुद्दि ११००५॥ वातादिप्पणिदीओ रुहिरप्पहुदिस्सहावसत्ताई। णिण्णाण उण्णयाणं अंगोवंगाण सणा पासा ।१००६। णरतिरियाण दट्ठं जं जाणइ दुक्रवसोक्खमरणाई। कालत्तयणिप्पण्णं अंगणिमित्त पसिद्ध तु ॥१००७। णरतिरियाणणिचित्तं सद्द सोदूण दुक्रवसोक्खाई। कालत्तयणिप्पण्णं जं जाणइ तं सरणिमित्त ।१००८। सिरमुहकंधप्पहुदिसु तिलमसयप्पहुदिआइ दट ठूणं । जं तियकालसुहाई जाणइ तं वेंजणणिमित्तं ॥१००६। करचरणतलप्पहूदिसु पंकयकुलिसादिमाणि दळूणं । जं तियकालसुहाई लक्खइ तं लक्रवणाणिमित्तं ।१०१० । सुरदाणबरक्रवसणरतिरिरगहिं छिण्णसत्थवत्थाणि । पासादणयरदेसादियाणि चिण्हाणि दट्ठूणं ।१०११॥ कालत्तयसंभूदं सुहासुहं मरणविविहदव्वं च । सुहदुक्खाई लक्खा चिण्हणिमित्तं तितं जाणइ 1१०१२। वातादिदोसचत्तो पच्छिमरते मुयकरवियहुदि । णियमुहकमलपवि४ देखिय सउणम्मि सुहसउणं ।१०१३। घडतेल्लभंगादि रासहकरभादिएम आरुहणं । परदेसगमणसव्वं जं देखई असुहसउणं तं ।१०१४॥ ज भासइ दुक्खसुहप्पमुहं कालत्तए वि संजादं। तं चिय सउणणिमित्तं चिण्हो मालो त्ति दो भेदं ।१०१५। करिकेसरिपहुदोणं दसणमेत्तादि चिण्हसउणं तं । पुत्वावरसंबंध सउणं तं मालसउणो त्ति ।१०१६। -सूर्य चन्द्र और ग्रह इत्यादिके उदय व अस्तमन आदिकोंको देखकर जो क्षीणता और दुःख-सुख (अथवा जन्म-मरण ) का जानना है, वह नभ या अन्तरिक्ष निमित्तज्ञान है ।१००३। पृथिवीके धन, मृषिर ( पोलापन ), स्निग्धता और रूक्षताप्रभृति गुणोंको विचारकर जो ताँबा, लोहा, सुवर्ण और चाँदी आदि धातुओं की हानि वृद्धिको तथा दिशा-विदिशाओंके अन्तरालमें स्थित चतुरंगवलको देखकर जो जय-पराजयको भी जानना है उसे भौम निमित्तज्ञान कहा गया है ।१००४-१००। मनुष्य और तिर्यचौंके निम्न व उन्नत अंगोपांगोंके दर्शन व स्पर्शसे वात, पित्त, कफ रूप तीन प्रकृतियों और रुधिरादि सात धातुओं को देखकर तीनों कालोंमें उत्पन्न होनेवाले सुख-दुख या मरणादिको जानना, यह अंगनिमित्त नामसे प्रसिद्ध है ।१००६-१००७१ मनुष्य और तिर्यचोंके विचित्र शब्दौको सुनकर कालत्रयमें होनेवाले दुख-सुःखको जानना, यह स्वर निमित्तज्ञान है । ११००८। सिर मुख और कन्धे आदिपर तिल एवं मशे आदिको देख जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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