Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 2
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 624
________________ नियति काल आदि णममाणा हि सयं ण सक्कदे को वि वारे' |२१| लब्धियोसे युक्त तथा नाना शक्तियोवाले पदार्थको स्वयं परिणमन करते कौन रोक सकता है । हुए ७. कालब्धि मिलना दुर्लभ है भ आ./वि/१५८/३७०/१४ उपशमकालकरण लन्धयो हि दुर्लभाः प्राणिनो मुहृदो विद्वास इव । जैसे विद्वान मित्रकी शति दुर्लभ है, वैसे ही उपशम, काल व करण इन लब्धियोंकी प्राप्ति दुर्लभ है। ६१६ ८. काललब्धिको कथंचित् गौणता रा.वा./१/३/०-१/२३/२० भव्यस्य कासेन निमसोपपतेः अभिगमसम्यक्त्वाभाव ॥७॥ न विवक्षितापरिज्ञानात् । ... यदि सम्यग्दर्शनादेवाजिदगिमा हानचारित्ररहितान्मोक्ष एट स्याद. तत् इदं युक्तं स्यात् 'भव्यस्य कालेन निःश्रेयसोपपत्तेः' इति । नाययिोनयानकर्मनिर्जरापूर्वकमोक्ष कालस्य नियमोsस्ति । केचिद् भव्याः संख्येयेन कालेन सेत्स्यन्ति. केचिदसंख्येयेन केभिरनन्तेन अपरे अनन्तानन्तेनापि न सेत्स्यन्ति। ततश्च न युक्तम्- 'भवस्य कालेन निःश्रेयसोपपत्तेः' इति । प्रश्नभव्य जीव अपने समय के अनुसार ही मोक्ष जायेगा, इसलिए अधिगम सम्यक्त्वका अभाव है, क्योकि उसके द्वारा समय से पहले सिद्धि असम्भव है || उत्तर- नहीं, तुम विवक्षाको नहीं समझे। यदि ज्ञान व चारित्र शुन्य केवल निसर्गज या अधिगमन सम्यग्दर्शन ही से मोक्ष होना हमें इष्ट होता तो आपका यह कहना युक्त हो जाता कि भव्य जीवको समयके अनुसार मोक्ष होती है, परन्तु यह अर्थ तो यहाँ विवक्षित नहीं है । ( यहाँ मोक्षका प्रश्न ही नहीं है । यहाँ तो केवल सम्यक्त्वकी उत्पत्ति दो प्रकारसे होती है यह बताना इष्ट हैदे० अधिगम ) दूसरी बात यह भी है कि भव्योंकी कर्म निर्जराका कोई समय निश्चित नहीं है और न मोक्षका ही । कोई भव्य संख्यात कासमें सिद्ध होगे, कोई असंख्यातमें और कोई अनन्त कालमें | कुछ ऐसे भी है जो अनन्तानन्त कालमे भी सिद्ध नहीं होंगे। अतः भव्य मोक्षके कासनियमको बाल उचित नहीं है ( श्लो. वा. २/१/३/४/७५/८ ) । म.प्र. ०४/३०६-४१३ का भावार्थ जिकडे पूर्व जीव खदिरसारने समाधिगुप्त मुनि कोवेका मांस न खानेका मत लिया। बीमार होनेपर वैद्यो द्वारा कौवों का मांस खानेके लिए आग्रह किये जानेपर भी उसने वह स्वीकार न किया। तब उसके साले शूरवीर ने उसे बताया कि जब वह उसको देखनेके लिए अपने गॉवसे आ रहा था तो मार्ग में एक यक्षिणी रोती हुई मिली। पूछनेपर उसने अपने रोनेका कारण यह बताया, कि खदिरसार जो कि अब उस व्रतके प्रभाव से मेरा पति होनेवाला है, तेरी प्रेरणासे यदि कौबेका मांस खा लेगा तो नरकके दुःख भोगेगा। यह सुनकर खदिरसार तुरत श्रावक के व्रत धारण कर लिये और प्राण त्याग दिये। मार्ग में शूरवीरको पुनः वही यक्षिणी मिली । जब उसने उससे पूछा कि क्या वह तेरा पति हुआ तो उसने उत्तर दिया कि अब तो श्रावकवतके प्रभावसे वह व्यन्तर होनेकी बजाय सौधर्म स्वर्ग में देव उत्पन्न हो गया, अत मेरा पति नहीं हो सकता । म पू/०६/१-३० भगवान महावीर के दर्शनार्य जानेवाले राजा बेकि मार्ग में ध्यान निमग्न परन्तु कुछ विकृत मुखवाते धर्मरुचिको वन्दना की। समवशरणमे पहुँचकर गणधरदेव से प्रश्न करनेपर उन्होंने बताया कि अपने छोटेसे पुत्रको ही राज्यभार सौपकर यह दीक्षित हुए है । आज भोजनार्थ नगर में गये तो किहीं मनुष्यों की परस्पर बातचीतको सुनकर इन्हें यह भान हुआ कि मन्त्रियोंने उसके पुत्रको बाँध रखा है और स्वयं राज्य बॉटनेकी तैयारी कर रहे है । वे निराहार ही लौट आये और अब ध्यानमें बैठे हुए कोधके वशीभूत हो संरक्षणानन्द Jain Education International २. देव निर्देश 1 नामक रौद्रध्यान में स्थित हैं यदि आगे अन्तर्मुहूर्त तक उनकी यही अवस्था रही तो अवश्य ही नरकायुका बन्ध करेगे । अत तू शीघ्र ही जाकर उन्हें सम्बोध । राजा श्रेणिकने तुरत जाकर मुनिको सावधान किया और वह चेत होकर रौद्रध्यानको छोड शुक्लध्यान में प्रविष्ट हुआ। जिसके कारण उसे केवलज्ञान उत्पन्न हो गया । मो.मा.प्र./६/४५६ / ३ काललन्धि वा होनहार का वस्तु नाहीं । जिसका विषे कार्य सोई काललन्धि और जो कार्य भया सोई होनहार । दे. नय / I / ५ / ४ / नय. नं. २० कृत्रिम गर्मी के द्वारा पकाये गये आम्र फलकी भाँति अकालनय से आत्मद्रव्य समयपर आधारित नहीं । ( और भी दे. उदीरणा / १/१) । ३. देव निर्देश १. देवका लक्षण · अष्टशती /- योग्यता कर्म पूर्वं वा देवम्। कहलाता है। 1 म. ५/४/२७ विधिष्टा विधाता च कर्म पुराकृतम्। श्रश्चेति पर्याया विशेयाः कर्मविधि खष्टा विभाता देव पुराकृत कर्म और ईश्वर से सब कर्मरूपी ईश्वरके पर्यायवाचक शब्द हैं, इनके सिवाय और कोई लोकका बनानेवाला ईश्वर नही है । आ. अनु / २६२ यत्प्राग्जन्मनि संचितं तनुभृता कर्माशुभं वा शुभं । तद्दैवं... १२६२ ) - प्राणीने पूर्व भव में जिस पाप या पुण्य कर्मका संचय किया है, वह देव कहा जाता है । २. मिथ्या देववाद निर्देश = योग्यता या पूर्वकर्म ब आप्त. मी./ देवादेवार्थसिद्धिश्चेद्दैवं पौरुषत' कथं । दैवतश्चेदनिमहापौरुषं निष्फलं भवेत् से ही सर्व प्रयोजनों की सिद्धि होती है। वह देव अर्थात् पाप कर्मस्वरूप व्यापार भी पूर्वके देवसे होता है। ऐसा माननेसे मोक्षका व पुरुषार्थ का अभाव ठहरता है। अतः ऐसा एकान्त देववाद मिथ्या है । गो.क././८११/२००२ दवमेव परं मणे धिपमगर एसो सालसमुत्तंगो कण्णी हण्णइ संगरे । ८६११ -- देव ही परमार्थ है । निरयेक पुरुषार्थको शिकार है। देखो पर्यंत सरीखा उत्तंग राजा कर्म भी संग्राममें मारा गया। ३. सम्यग्देववाद निर्देश सुभाषित रत्नसन्दोह / ३५६ यदनीतिमतां लक्ष्मीर्यदपथ्यनिषेविणां च कल्पत्वम् अनुमीयते विधातुस्वेारित्यमेतेन ॥ २५६॥ बडा ही स्वेच्छाचारी है, यह मनमानी करता है। नीति तथा पथ्यसेवियोंको तो यह निर्धन व रोगी बनाता है और अनीति व अपथ्यसेवियोंको धनवान् व नीरोग बनाता है । दे नय/1/५/४/ नय नं. २२ नींके वृक्षके नीचैसे रत्न पानेकी भाँति, देव नयसे आत्मा अयत्नसाध्य है। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश For Private & Personal Use Only पं. ध. /उ./८७४ दैवादस्तं गते तत्र सम्यक्त्वं स्यादनन्तरम् । देवान्नान्यतरस्यापि योगवाही च नाप्ययम् 15७४ | = दैवसे अर्थात् काललब्धिसे उस दर्शन मोहनीय उपशमादि होते ही उसी समय सम्यग्दर्शन होता है, और देयसे यदि उस दर्शन मोहनीयका अभाव न हो तो नहीं होता, इसलिए यह उपयोग न सम्यक्त्वकी उत्पत्ति में कारण है और दर्शनमोहके अभाव में। ( पं. ध. /उ. / ३७८ ) । पंच सोनं, सारा इसी प्रकार वियोग अपने-अपने कारणोंका या कर्मोदयादिका सन्निधान होनेपर - पंचेन्द्रिय व मन अगोपांग नामकर्म के बन्धकी प्राप्ति होती है | २६४॥ इन्दियों बादिकी पूर्णता होती है | २६८] सम्पादटिको भी कदाचित आरम्भ आदि www.jainelibrary.org

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