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नियति
२. भवितव्य अध्य व अनिवार्य है
स्न स्तो / ३३ अध्यातिविव्यतेयं हेतुद्वयाविष्कृतकार्यसि । अनीश्वरो जन्तुरहं कियाः सहस्व कार्येपिति साध्ववादी |३३|अन्तरंग ओर बाह्य दोनों कारणोंके अनिवार्य संयोग द्वारा उत्पन्न होनेवाला कार्य हो जिसका हायक है. ऐसी इस भवितव्यता की शक्ति अवध्य है। बहकार पीडित हुआ संसारी प्राणी मन्त्र-तन्त्रादि अनेक सहकारी कारणोंको मिलाकर भी सुखादि कार्य सम्पन्न करने में समर्थ नहीं होता है। (पं.वि./३/-)
प. पु. ४९/१०२ पक्षिणं संयतोऽगारीमा मैत्रीरघुना द्विज ।
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दोर्यद्यथा भाव्यं कः करोति तदन्यथा । १०२ । रामसे इतना कहकर सुनिराजने गृद्धसे कहा कि हे द्विज़ अब भयभीत मत होवो, ओ मत, जो भवितव्य है अर्थात् जो बात जैसी होनेवाली है, उसे अन्यथा कौन कर सकता है।
५. नियति व पुरुषार्थका समन्वय
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१. देव व पुरुषार्थ दोनोंके मेलसे ही अर्थ सिद्धि होती है अष्टशती / योग्यता कर्म पूर्व वा देवमुभयमदृष्टम्, पौरुषं पुनरिह चेष्टितं दृष्टताभ्यागर्थ सिद्धि तदन्यतरापायेऽघटनाद पौरुषमात्रेदर्शनात्। देवमात्रे या समीहानर्थनमप्रसंगात (संसारी जीवों में देव व पुरुषार्थ सम्बन्धी प्रकरण है ) पदार्थ की योग्यता अर्थात भवितव्य और पूर्व कर्म मे दोनों देव कहलाते हैं। ये दोनों ही अदृष्ट है । तथा व्यक्तिकी अपनी चेष्टाको पुरुषार्थ कहते हैं जो दृष्ट है । इन दोनोंसे ही अर्थ सिद्धि होती है, क्योंकि, इनमें से किसी एक के अभाव में अर्थसिद्धि घटित नहीं हो सकती । केवल पुरुषार्थ से तो अर्थसिद्धि होती दिखाई नहीं देती (दे० नियति / ३ / ५) तथा केवल दैवके माननेपर इच्छा करना व्यर्थ हुआ जाता है । (दे० नियति / ३/२) । प.पु / ४६/२३९ कृत्यं किचिद्विशदमनसा माप्तवाक्यानपेक्षं नाप्तेरुक्तं फलति पुरुषस्योज्झितं पौरुषेण । देवापेतं पुरुषकरणं कारणं नेष्टसङ्गे तस्माद्भव्याः कुरुत यतनं सर्वहेतुप्रसादे । २३१ - हे राजन् ! निर्मल चिसके धारक मनुष्योंका कोई भी कार्य आठ वचनोंसे निरपेक्ष नहीं होता. और आप्त भगवादने मनुष्यों के लिए जो कर्म मतलाये है वे पुरुषार्थ के बिना सफल नहीं होते। और पुरुषार्थ दैवके बिना इष्ट सिद्धिका कारण नहीं होता। इसलिए हे भव्यजीबो ! जो सबका कारण है उसके (अर्थात् आत्माके) प्रसन्न करनेमें यत्न करो | २३१ |
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२. अबुद्धिपूर्व के कार्यों में देव तथा बुद्धिपूर्वकके कार्यों में पुरुषार्थ प्रधान है
४.मी./११ अबुद्धिपूरपेक्षायामिष्टानिष्टं स्वदेवः बुद्धिपूर्वविपेक्षा यामिष्टानिष्टं स्वपौरुषात ।१११ = [केवल देव हो से यदि अर्थसिद्धि मानते हो तो पुरुषार्थ करना व्यर्थ हो जाता है दि० निर्यात / २ / २ में आप मी.) केवल पुरुषार्थ से हो यदि अर्थसिद्धि मानी जाय तो पुरुषार्थ तो सभी करते हैं फिर सबको समान फलकी प्राप्ति होती हुई क्यों नहीं देखी जाती (दे० नियति / ३ / ५ में आप्त. मी./८६) । परस्पर विरोधी होनेके कारण एकान्त उभयपक्ष भी योग्य नहीं । एकान्त अनुभय मानकर सर्वथा अवक्तव्य कह देने से भी काम नहीं चलता, क्योंकि, सर्वत्र उनको पर्चा होती सुनी जाती है। (आप्स. मी./ १०) इसलिए अनेकान्त को स्वीकार करके दोनोंसे ही कथंचित् कार्यसिद्धि मानना योग्य है। वह ऐसे कि - कार्य व कारण दो प्रकारके देखे जाते है-अबुद्धि पूर्वक स्वतः हो जानेवाले या मिस जानेवाले तथा बुद्धिपूर्वक किये जानेवाले या मिलाये जानेवाले
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५. नियति व पुरुषार्थका समन्वय
(दे० इससे अगला सन्दर्भ / मो. मा.प्र.)] सहाँ अधिपूर्वक होने वाले मिलनेवाले कार्य व कारण तो अपने देवसे ही होते हैं और
पूर्वक किये जानेवाले मिलाये जानेवाले इष्टानिष्ट कार्य व कारण अपने पुरुषार्थ से होते हैं। अर्थात् अनुपूर्व कार्य कारणों में देव प्रधान है और बुद्धिपूर्वकालों में पुरुषार्थ प्रधान है। मो.ना.प्र./७/२६/११ प्रश्न जो कर्मका निमित हो है (अर्थात् रागादि मिटे हैं), तो कर्मका उदय रहै तावत् विभाव कैसे दूर होता याका उद्यम करना तो निरर्थक है ? उत्तर--एक कार्य होने लिये अनेक कारण चाहिए हैं। तिनवि जे कारण बुद्धिपूर्वक होय तिनको तौ उद्यम करि मिलावे, और अबुद्धिपूर्वक कारण स्वयनेम मिले तम कार्यसिद्धि होय जैसे पुत्र होनेका कारण बुद्धिपूर्वक ती विवाहादिक करना है और अनुद्धिपूर्वक भवितव्य है। यहाँ पुत्रका अर्थी विमा आदिका तौ उद्यम करें अर भविष्य स्वयमेव होय, तन पुत्र होय जैसे विभाव दूर करनेके कारण बुद्धिपूर्वक तौ तत्त्वविचारादि है अर अबुद्धिपूर्वक मोह कर्म का उपक्षमारि है। सो ताका अर्थी तत्वविचारादिका तौ उद्यम करें, अर मोहकर्मका उपशमादि स्वयमेव होय, तन रागादि दूर होय ।
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३. अतः रागदशा में पुरुषार्थ करनेका हो उपदेश है दे० नय/५/४-नमनं० २१ जिस प्रकार पुरुषार्थ द्वारा ही अर्थात् चकर उसके निकट जानेसे ही पथिकको वृक्षको प्राप्ति होती है, उसी प्रकार पुरुषाकारनयसे आत्मा यत्नसाध्य है ।
प्र.सं./टी./२१/६३/३ यद्यपि कालधिवशेनानन्तसुलभाजनो भवति जीवस्तथापि सम्यक् श्रद्धानज्ञानानुष्ठान तपश्चरणरूपा या निश्चयचतुर्विधाराधना सेव तत्रोपादानकारणं ज्ञातव्यं न कालस्तेन इति यद्यपि यह जो कालन्धिके वासे अनन्तमुका भाजन होता है तो भी सम्यक् श्रद्धान, ज्ञान, आचरण व तपश्चरणरूप जो चार प्रकारकी निश्चय आराधना है, वह ही उसकी प्राप्तिमें उपादानकारण जाननी चाहिए, उसमें काल उपादान कारण नहीं है, इसलिए वह कालद्रव्य त्याज्य है ।
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मो. मा. प्र./७/२१०/१ प्रश्न-जैसे विवाहादिक भी भक्तिस्य बाधीन है. वैसे विचारादिक भी कर्मका क्षयोपशमादिक के आधीन है. तातें उद्यम करना निरर्थक है । उत्तर- ज्ञानावरणका तौ क्षयोपशम सत्यविचारादि करने योग्य तेरे भया है। माहीतें उपयोग क यहाँ लगावनेका उद्यम कराइए हैं। असंज्ञी जीवनिकें क्षयोपशम नाहीं है, तो उनको काहे की उपदेश दीजिए है (अर्थात अबुद्धिपूर्वकमिसनेवाला देवाधीन कारण ही तुझे देवसे मिल ही चुका है. प्रेम मुजिपूर्वक किया जानेवाला कार्य करना शेष है यह तेरे पुरुपार्थ के आधीन है। उसे करना तेरा कर्तव्य है। )
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोण
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मो. मा. प्र./१/४५५/१७ प्रश्न--जो मोक्षका उपाय काललब्धि आए भवानुसार मने है कि, मोहाविका उपशमादि भए बने हैं, अथवा अपने पुरुषार्थ से उद्यम किए भने सो कहो जो पहिले दो कारण मिले है. तो हमको उपदेश काहेको दीजिए है। अर पुरुषार्थ भने है, तो उपदेश सर्व हुने तिनिविधै कोई उपाय कर कोई न कर सके, सो कारण कहा उत्तर—एक कार्य होनेव अनेक कारण मिले हैं। सो मोक्षका उपाय बने है तहां तौ पूर्वोक्त तीनौं (काललब्धि, भवितव्य व कर्मोंका उपशमादि) ही कारण मिले हैं। पूर्वोस तीन कारण कहे, तिनिमिषे काल या होनहार (भय) तो कछू वस्तु माहीं जिसकावि कार्य मनें, सोई कालय और जो कार्य बना सोई होनहार बहुरि जो कर्मका उपशमादि है; सो पुगलकी शक्ति है। ताका कर्ता हर्ता आत्मा नाहीं । बहुरि पुरुषार्थ उद्यम करिए हैं, सो यह आत्माका कार्य है, तातै आत्माको पुरुषार्थ करि उद्यम करनेका उपदेश दोजिये है ।
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