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नियति
४. भवितव्य निर्देश
क्रियाएँ होतो है ।४२६। कदाचित् दरिद्रताको प्राप्ति होती है ।५०७१ मृत्यु होती है।५४०। कमोदय तथा उनके फलभूत तोव मन्द संक्लेश विशुद्ध परिणाम होते है।६८३ ऑखमें पीडा होती है ।६६११ ज्ञान व रागादिमे हीनता होती है।८८ नामकमके उदयवश उस-उस गतिमै यथायोग्य शरीरकी प्राप्ति होती है ।९७७--ये सब उदाहरण दैवयोगमे होनेवाले कार्योंकी अपेक्षा निर्दिष्ट है।
४. कर्मोदयकी प्रधानताके उदाहरण स.सा./आ./२५६/क १६८ सर्व सदैव नियतं भवति स्वकीयकर्मोदया- न्मरणजो वितदुरवसौख्यम् । अज्ञानमेतदिह यत्तु पर परस्य, कुर्यात्पुमान्मरणजीवितदु:रवसौरव्यम् ।१६८। =इस जगत में जोवोंके मरण, जीवित, दुःख, सुख-सब सदैव नियमसे अपने कर्मोदयसे होता है। यह मानना अज्ञान है कि-दूसरा पुरुष दूसरेके मरण, जीवन, दुःख सुखको करता है। पं. वि./३/१८ यैव स्वकर्मकृतकालात्र जन्तुरतत्रैव याति मरण न पुरो
न पश्चात् । मूढास्तथापि हि मृते स्वजने विधाय शोक परं प्रचुरदुःखभुजा भवन्ति ।१८। = इस संसारमे अपने कर्म के द्वारा जो मरणका समय नियमित किया गया है, उसी समयमें ही प्राणी मरणको प्राप्त होता है, वह उससे न तो पहले मरता है और न पीछे भी। फिर भी मूर्ख जन अपने किसी सम्बन्धीके मरणको प्राप्त होनेपर अतिशय शोक करके बहुत दुःख भोगते है ।१८। (६.वि./३/१०)।
५. दैवके सामने पुरुषार्थका तिरस्कार कुरल काव्य/३८/६,१० यत्नेनापि न तद् रक्ष्यं भाग्यं नैव यदिच्छति । भाग्येन रक्षित वस्तु प्रक्षिप्त नापि नश्यति । देवस्य प्रबला शक्तियंतस्तद्ग्रस्तमानव' । यदैव यतते जेतं तदेवाशु स पात्यते ।१०।
भाग्य जिस बातको नहीं चाहता उसे तुम अत्यन्त चेष्टा करनेपर भी नहीं रख सकते, और जो वस्तुएँ भाग्यमें बदी हैं उन्हें फेंक देनेपर भी वे नष्ट नहीं होती।६ (भ. आ./५ /१७३१/१५६२ ); (पं. वि/१.१८८) दैबसे बढ़कर बलवान और कौन है, क्योंकि जब ही मनुष्य उसके फन्देसे छूटनेका यत्न करता है, तब ही वह आगे बढकर उसको पछाड देता है ।१०॥ आ. मी./८६ पौरुषादेव सिद्धिश्चेत्पौरुषं दैवत' कथम् । पौरुषाच्चेदमोघं स्यात्सर्वप्राणिषु पौरुषम् ।। -यदि पुरुषार्थसे ही अर्थको 'सिद्धि मानते हो तो हम पूछते है कि देवसिद्ध जितने भी कार्य हैं, उनकी सिद्धि कैसे करोगे। यदि कहो कि उनकी सिद्धि भी पुरुषार्थ द्वारा ही होती है, तो यह बताइए. कि पुरुषार्थ तो सभी व्यक्ति करते हैं, उनको उसका समान फल क्यों नहीं मिलता। अर्थात् कोई सुरवी व कोई दुःखी क्यों है ! आ. अनु./३२ नेता यत्र वृहस्पतिः प्रहरणं वज्र' सुराः सैनिकाः, स्वर्गों दुर्गमनुग्रहः खलु हरेरे रावतो वारणः। इत्याश्चर्यबलान्वितोऽपि बलिभिद्भग्न. परै संगरेः, तद्व्यक्तं ननु दैवमेव शरण घिधिग्वृथा पौरुषम् ॥३२॥ = जिसका मन्त्री बृहस्पति था, शस्त्र बज्र था, सैनिक देव थे, दुर्ग स्वर्ग था, हाथी ऐरावत था, तथा जिसके उपर विष्णुका अनुग्रह था; इस प्रकार अद्भुत बलसे संयुक्त भी वह इन्द्र युद्धमे दैत्यों (अथवा रावण आदि ) द्वारा पराजित हुआ है। इसोलिए यह स्पष्ट है कि निश्चयसे दैव ही प्राणोका रक्षक है, पुरुषार्थ व्यर्थ है, उसके लिए बार बार धिक्कार हो। पं.वि./३/४२ राजापि क्षणमात्रतो विधिवशाद्रवायते निश्चित, सर्वव्याधिविवर्जितोऽपि तरुणोऽप्याशु क्षयं गच्छति। अन्यै कि किल सारतामुपगते श्रीजी विते द्वे तयो., ससारे स्थितिरीदृशीति विदुषा कान्यत्र कार्यो मद. १४२३ -भाग्यवश राजा भी निश्चयसे क्षणभरमें रंकके समान हो जाता है, तथा समस्त रोगोंसे रहित युवा पुरुष भी शीघ्र ही मरणको प्राप्त हाता है। इस प्रकार अन्य पदार्थों के विषयमें
तो क्या कहा जाय, किन्तु जो लक्ष्मी और जीवित दोनों ही संसारमें श्रेष्ठ समझे जाते है, उनकी भी जब ऐसो (उपर्युक्त) स्थिति है तम विद्वान् मनुष्यको अन्य किसके विषयमे अभिमान करना
चाहिए। पंध./उ./५७१ पौरुषो न यथाकामं पुंस कर्मोदित प्रति। न पर
पौरुषापेक्षो देवापेक्षा हि पौरुष' ५७१२ -दैव अर्थात् कर्मोदयके प्रति जीवका इच्छानुकूल पुरुषार्थ कारण नहीं है, क्योंकि, पुरुषार्थ केवल पौरुषको अपेक्षा नहीं रखता है, किन्तु देवकी अपेक्षा रखता है। और भी, दे, पुण्य/४/२ (पुण्य साथ रहनेपर बिना प्रयत्न भी समस्त इष्ट सामग्री प्राप्त होती है, और वह साथ न रहनेपर अनेक कष्ट उठाते हुए भी वह प्राप्त नहीं होती)। ६. दैवकी अनिवार्यता पद्म पु./४६/६-७ सस्पन्दं दक्षिण चक्षुरवधार्य व्यचिन्तयत् । प्राप्तव्यं विधि
योगेन कर्म कर्त, न शक्यते ।६। क्षुद्रशक्तिसमासक्ता मानुषास्तावदासताम् । न सुरैरपि कर्माणि शक्यन्ते कर्तुमन्यथा।७। -दक्षिण नेत्रको फडकते देख उसने विचार किया कि दैवयोगसे जो कार्य जैसा होना होता है, उसे अन्यथा नहीं किया जा सकतादाहीन शक्तिवालोंकी तो बात ही क्या, देवोके द्वारा भी कर्म अन्यथा नहीं किये जा सकते ७ म.पु./४४/१६६ स प्रताप. प्रभा सास्य सा हि सर्वेकपूज्यता। प्रातः प्रत्यहमर्कस्याप्यतयः कर्कशो विधि.। = सूर्य का प्रताप व कान्ति असाधारण है और असाधारण रूपसे ही सब उसकी पूजा करते है, इससे जाना जाता है कि निष्ठुर दैव तर्कका विषय नही है। ४. भवितव्य निर्देश
१. भवितव्यका लक्षण मो.मा.प्र./8/४५६/४ जिस काल विषे जो कार्य भया सोई होनहार
(भवितव्य) है। जैन तत्त्व मीमांसा/पृ.६५ फूलचन्द-भक्तिं योग्य भवितव्यं तस्य भावः भवितव्यता। - जो होने योग्य हो उसे भवितव्य कहते हैं।
और उसका भाव भवितव्यता कहलाता है। २. भवितव्यकी कथंचित् प्रधानता पं. वि/३/५३ लोकश्चेतसि चिन्तयन्ननुदिन कल्याणमेवात्मनः, कुर्यात्सा भवितव्यतागतवती तत्तत्र यद्रोचते। मनुष्य प्रतिदिन अपने कल्याणका ही विचार करते हैं. किन्तु आयी हुई भवितव्यता वही करती है जो कि उसको रुचता है। का, अ./पं. जयचन्द/३१९-३१२ जो भवितव्य है वही होता है। मो. मा. प्र./२/पृष्ठ/पंक्ति-क्रोधकरि (दूसरेका) बुरा चाहनेकी इच्छा तौ होय, बुरा होना भवितव्याधीन है।५६/८। अपनी महंतताकी इच्छा तौ होय, महंतता होनी भवितव्य आधीन है ।५६/१८। मायाकरि इष्ट सिद्धिके अर्थि छल तो करै, अर इष्ट सिद्धि होना भवितव्य
आधीन हे १५७/३१ मो. मा. प्र/३/८०/११ इनकी सिद्धि होय (अर्थात कषायोके प्रयोजनोंकी सिद्धि होय) तौ कषाय उपशमनेतें दुख दूर होय जाय सुखी होय, परन्तु इनकी सिद्धि इनके लिए (किये गये) उपायनिके आधीन नाही, भवितव्यके आधीन है। जाते अनेक उपाय करते देखिये हैं अर सिद्धि न हो है। बहुरि उपाय बनना भी अपने आधीन नाही. भवितव्यके आधीन है। जाते अनेक उपाय करना विचार और एक भो उपाय न होता देखिये है। बहुरि काकताली न्यायकरि भवितव्य ऐसा ही होय जैसा आपका प्रयोजन होय तसाही उपाय होय अर तातै कार्यकी सिद्धि भी होय जाय।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
भा०२-७८
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