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नियति
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२. काललब्धि निर्देश
१. नियतिवाद निर्देश
१. मिथ्या नियतिवाद निर्देश गो. क.मू./८८२/१०६६ जत्तु जदा जेश जहा जस्स य णि यमेण होदि तत्तु तदा। तेण तहा तस्स हवे इदि वादो णियदि वादो दु ।८८२। -जो जब जिसके द्वारा जिस प्रकारसे जिसका नियमसे होना होता है, वह तब ही तिसके द्वारा तिस प्रकारसे तिसका होता है, ऐसा मानना मिथ्या नियतिवाद है।। अभिधान राजेन्द्रकोश - ये तु नियतिवादिनस्ते ह्येवमाहु', नियति नाम तत्त्वान्तरमस्ति यतशादेते भावा. सर्वेऽपि नियतेने त्र रूपेण प्रादुर्भावमश्नुवते नान्यथा। तथाहि-यद्यदा यतो भवति तत्तदा तत एव नियतेनैव रूपेण भवदुपलभ्यते, अन्यथा कार्यभावव्यवस्था प्रतिनियतव्यवस्था च न भवेत नियामकाभावात् । तत एवं कार्य नै यत्यत प्रतीयमानामेनां नियति को नाम प्रमाण पञ्चकुशलो बाधितुं क्षमते। मा प्रापदन्यत्रापि प्रमाणपथव्याघातप्रसङ्गः। =जो नियतिवादी हैं, वे ऐसा कहते हैं कि नियति नामका एक पृथक् स्वतन्त्र तत्त्व है, जिसके वशसे ये सर्व ही भाव नियत ही रूपसे प्रादुर्भावको प्राप्त करते हैं, अन्यथा नहीं। वह इस प्रकार कि-जो जन जो कुछ होता है, वह सब वह ही नियतरूपसे होता हुआ उपलब्ध होता है, अन्यथा कायभाव व्यवस्था और प्रतिनियत व्यवस्था न बन सकेगी, क्योंकि उसके नियामकका अभाव है। अर्थात नियति नामक स्वतन्त्र तत्त्वको न माननेपर नियामकका अभाव होनेके कारण वस्तुकी नियत कार्यव्यवस्थाकी सिद्धि न हो सकेगी। परन्तु वह तो प्रतीतिमें आ रही है, इसलिए कौन प्रमाणपथमे कुशल ऐसा व्यक्ति है जो इस नियति तत्त्वको बाधित करनेमें समर्थ हो। ऐसा माननेसे अन्यत्र भी कही प्रमाणपथका व्याघात नहीं होता है।
२. सम्यक् नियतिवाद निर्देश प. पु./११०/४० प्रागेव यदवाप्तव्यं येन यत्र यथा यत' । तत्परिप्राप्यतेऽवश्य तेन तत्र तथा तत. 1801 -जिसे जहाँ जिस प्रकार जिस कारणसे जो वस्तु पहले ही प्राप्त करने योग्य होती है उसे वहाँ उसी प्रकार उसी कारण से वही वरतु अवश्य प्राप्त होती है । (प. पु./२३/६२;
२६/८३)। का. अ./मू./३२१-३२३ जं जस्स जम्मि देसे जेण बिहाणेण जम्मि कालम्मि। णादं जिणेण णियदं जम्म वा अव मरणं वा ।३२१। तं तस्य तम्मि देसे तेण विहाणेण तम्मि काल म्मिा को सक्कदि वारेदं इंदो वा तह जिणिदो बा ।३२२॥ एवं जो णिच्छयदो जाणदि दव्वाणि सव्वपज्जाए। सो सहिठी सुद्धो जो संकदि सो ह कुट्ठिी ।३२३। -जिस जीवके, जिस देशमें, जिस कालमे, जिस विधानसे, जो जन्म अथवा मरण जिनदेवने नियत रूपसे जाना है; उस जीवके उसी देशमे, उसी कालमें उसी विधानसे वह अवश्य होता है। उसे इन्द्र अथवा जिनेन्द्र कौन टाल सकनेमे समर्थ है १३२१-३२२। इस प्रकार जो निश्चयसे सब द्रव्योको और सब पर्यायोंको जानता है वह सम्यग्दृष्टि है और जो उनके अस्तित्वमें शंका करता है वह मिथ्यादृष्टि है।३२३। (यहाँ अविरत सम्यग्दृष्टिका स्वरूप बतानेका प्रकरण है)। नोट-(नियत व अनियत नयका सम्बन्ध नियतवृत्तिसे है, इस नियति सिद्धान्तसे नहीं । दे० नियत वृत्ति।)
३.नियतिकी सिद्धि दे० निमित्त/२ ( अष्टांग महानिमित्तज्ञान जो कि श्रुतज्ञानका एक भेद है अनुमानके आधारपर कुछ मात्र क्षेत्र व कालको सीमा सहित
अशुद्ध अनागत पर्यायोंको ठीक-ठीक परोक्ष जानने में समर्थ है।) दे० अवधिज्ञान/८ (अबधिज्ञान क्षेत्र व कालको सीमाको लिये हुए अशुद्ध अनागत पर्यायोंको ठीक-ठीक प्रत्यक्ष जानने में समर्थ है।
दे० मन पर्यय ज्ञान/१/३/३(मन.पर्ययज्ञान भीक्षेत्र व कालकी सीमाको लिये हुए अशुद्ध पर्यायरूप जीवके अनागत भावों व विचारोंको ठीकठीक प्रत्यक्ष जानने में समर्थ है।) दे० केवलज्ञान/३ (केवलज्ञान तो क्षेत्र व कालकी सीमासे अतीत शुद्ध व अशुद्ध सभी प्रकार की अनागत पर्यायोंको ठीक-ठीक प्रत्यक्ष जानने में समर्थ है।) और भी इनके अतिरिक्त सूर्य ग्रहण आदि बहुतसे प्राकृतिक कार्य नियत कालपर होते हुए सर्व प्रत्यक्ष हो रहे हैं। सम्यक् ज्योतिष ज्ञान आज भी किसी-किसी ज्योतिषीमें पाया जाता है और वह निःसंशय रूपसे पूरी दृढताके साथ आगामी घटनाओंको बताने में
समर्थ है।) २. काललब्धि निर्देश
१. काललब्धि सामान्य व विशेष निर्देश स. सि./२/३/१० अनादिमिथ्यादृष्टे व्यस्य कर्मोदयापादितकालुण्ये
सति कुतस्तदुपशम. । काललब्ध्यादिनिमित्तत्वात्। तत्र काललब्धिस्तावत्-कर्माविष्ट आत्मा भव्य' कालेऽर्द्धपुद्गलपरिवर्तनाख्येऽवशिष्टे प्रथमसम्यक्त्वग्रहणस्य योग्यो भवतिनाधिके इति । इयमेका काललब्धिः । अपरा कर्म स्थितिका काललब्धि' । उत्कृष्टस्थितिकेषु कर्मसु जघन्यस्थितिकेषु च प्रथमसम्यक्त्वलाभो न भवति । क्व तर्हि भवति । अन्तःकोटाकोटोसागरोपमस्थितिकेषु कर्मसु बन्धमापद्यमानेषु विशुद्धपरिणामनशात्सकर्मसु च ततः संख्येयसागरोपमसहस्रोनायामन्तःकोटाकोटोसागरोपमस्थितौ स्थापितेषु प्रथमसम्यक्त्वयोग्यो भवति। अपरा काललब्धिर्भवापेक्षया। भव्यः पञ्चेन्द्रियः संज्ञी पर्याप्तक' सर्व विशुद्ध, प्रथमसम्यक्त्वमुत्पादयति। -प्रश्न-अनादि मिथ्यादृष्टि भव्यके कर्मोके उदयसे प्राप्त कलुषताके रहते हुए इन (कर्म प्रकृतियों का) उपशम कैसे होता है ? उत्तर-काललब्धि आदिके निमित्तसे इनका उपशम होता है। अब यहाँ काललब्धिको बतलाते हैकर्मयुक्त कोई भी भव्य आत्मा अर्धपुद्गलपरिवर्तन नामके कालके शेष रहनेपर प्रथम सम्यक्त्वके ग्रहण करनेके योग्य होता है, इससे अधिक कालके शेष रहनेपर नहीं होता, (संसारस्थिति सम्बन्धी) यह एक काललब्धि है। (का. अ./टी./१८८/१२९/७) दूसरी काललब्धिका सम्बन्ध कर्म स्थितिसे है। उत्कृष्ट स्थितिवाले कर्मोके शेष रहनेपर या जघन्य स्थितिवाले कर्मों के शेष रहनेपर प्रथम सम्यक्त्यका लाभ नहीं होता। प्रश्न-तो फिर किस अवस्थामें होता है ? उत्तर-जम बँधनेवाले कर्मोंकी स्थिति अन्त.कोड़ाकोड़ी सागर पड़ती है. और विशुद्ध परिणामों के वशसे सत्ता में स्थित कर्मोकी स्थिति संख्यात हजार सागर कम अन्तःकोड़ाकोड़ी सागर प्राप्त होती है। तब ( अर्थात् प्रायोग्यलब्धिके होनेपर ) यह जीव प्रथम सम्यक्त्वके योग्य होता है। एक काललब्धि भव की अपेक्षा होती है जो भव्य है, संज्ञी है, पर्याप्तक है और सर्व विशुद्ध है, वह प्रथम सम्यक्त्वको उत्पन्न करता है। (रा. वा./२/३/२/२०४/१९); (और भी दे० नियति/२/३/२) दे० नय/I/५/४/नय नं १६ कालनयसे आत्म द्रव्यको सिद्धि समयपर
आधारित है, जैसे कि गर्मी के दिनोंमें आम्रफल अपने समयपर स्वयं पक जाता है।
२. एक काललब्धिमें सर्व लब्धियोंका अन्तर्भाव ष. खं./६/१,६-८/सूत्र ३/२०३ एदेसिं चेव सब्बकम्माण जावे अंतोकोड़ा
कोडिढिदि बंधदि तावे पढमसम्मत्तं लंभदि । ध.६/१,६-८,३/२०४/२ एदेण खओवसमलद्धी विसोहिलदी देसणलद्धी
पाओग्गल द्धि त्ति चत्तारि लद्धीओ परूविदाओ । घ.६/१,६-८,३/२०५१ सुत्ते काललद्धी चेव परूविदा, तम्हि एदासि लद्धीणं कध संभवो। ण, पडिसमयमणतगुणहीणअणुभागुदीरणाए
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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