Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 2
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 606
________________ निक्षेप ५९८ ४. स्थापना निक्षेप निर्देश ज्ञान होता है, परोपदेशके बिना नहीं। (ध. १/१.१,१/२०/१), (न. च वृ./२७३) ४. सद्भाव असद्भाव स्थापनाके भेद ध. १३/५,४,१२/४२/१ कठ्ठकम्मप्पहुडि जाब भंडकम्मे त्ति ताव एदेहि सम्भावट्ठवणा परूविदा। उधरिमेहि असब्भावट्ठवणा समुद्दिट्ठा। = (स्थापनाके उपरोक्त काष्ठकर्म आदि भेदों में से ) काष्ठकमसे लेकर भेंडकर्म तक जितने कर्म निर्दिष्ट हैं उनके द्वारा सद्भाव स्थापना कही गयी है, और आगे जितने अक्ष बराटक आदि कहे गए है, उनके द्वारा असद्भावस्थापना निर्दिष्ट की गयी है। (ध.६/४,१,५२/२५०/३) ध.६/४,१,५२/२५०/३ एदे सम्भावठ्ठवणा। एदे देसामासया दस परूविदा। संपहि असम्भावठ्ठवणाविसयस्सुवलक्खणर्छ भणदि--...जेच अण्णे एवमादिया त्ति वयणं दोण्ण अवहारणपडिसेणफलं । तेण तंभतुलाहल-मूसलकम्मादोणं गहणं । -ये (काष्ठ कर्म आदि) सद्भाव स्थापनाके उदाहरण हैं। ये दस भेद देशामर्षक कहे गये है, अर्थात इनके अतिरिक्त भी अनेकों हो सकते है। अब असद्भावस्थापनासम्बन्धी विषयके उपलक्षणार्थ कहते है-इस प्रकार 'इन (अक्ष व वराटक) को आदि लेकर और भी जो अन्य है' इस वचनका प्रयोजन दोनो भेदोंके अवधारणका निषेध करना है, अर्थात् 'दो ही है। ऐसे ग्रहणका निषेध करना है। इसलिए स्तम्भकर्म, तुलाकम, हलकम, मूसलकर्म आदिकों का भी ग्रहण हो जाता है। ५. काष्ठकर्म भादि भेदोंके लक्षण ध.१/४,१,५२/२४६/३ देव-णेरइय-तिरिक्ख-मणुस्साण गच्चण-हसणगायण-तूर-वोणादिवायणकिरियावावदाण कडिदपडिमाओ कठ्ठकम्मे त्ति भणं ति । पड-कुड्ड-फलहियादीमु णच्चणादिकिरियावावददेव-णेरइय-तिरिक्वमणुस्साणं पडिमाआ चित्तकम्म, चित्रण क्रियन्त इति व्युत्पत्ते । पोत्त वस्त्रम्, तेण कदाओं पडिमाओ पात्तकम्म । कड-सक्रवर-मट्टियादीणं लेबो लेप्प, तेण घडिदपडिमाओ लेप्पकम्म । लेणं पब्बओ, तम्हि घडिदपडिमाओ लेणकम्मं । सेलो पत्थरो, तम्हि घडिदपडिमाओ सेलकम्म । 'गिहाणि जिणघरादाणि, तेसु कदपडिमाओ गिहकम्म, हय-हत्थि-णर-वराहादिसरूवेण घडिदघराणि गिहकम्ममिदि वुत्त होदि । घरकुड्डेसु तदो अभेदेण चिदपडिमाओ भित्तिकम्म। हस्थिदतेसु किण्णपडिमाओ दतकम्म । भेंडो सुप्पसिद्धो, तेण धडिदपडिमाआ भेडकम्म ।" अक्खे त्ति वत्ते जूबक्खो सयडक्खो वा घेत्तब्वो। वराडओ त्ति वुत्ते कब ड्डिया घेत्तव्बा । -नाचना, हॅसना, गाना तथा तुरई एव वीणा आदि वाद्योके बजानेरूप 'क्रियाओमे प्रवृत्त हुए देव, नारकी, तिर्यच और मनुष्योको काष्ठसे निर्मित प्रतिमाओको काष्ठकर्म कहते है। पट, कुड्य ( भित्ति ) एवं फल हिका ( काष्ठ आदिका तख्ता) आदिमे नाचने आदि क्रियामें प्रवृत्त देव, नारकी, तिर्यच और मनुष्योकी प्रतिमाओको चित्रकर्म कहते हैं। क्योंकि, चित्रसे जो किये जाते है वे चित्रकर्म है' ऐसी व्युत्पत्ति है। पोत्तका अर्थ वस्त्र है, उससे की गयी प्रतिमाओका नाम पोत्तकर्म है। कूट ( तृण ), शर्करा (बालू ) व मृत्तिका आदिके लेपका नाम लेप्य है। उससे निर्मित प्रतिमाये लेप्यकर्म कही जाती है। लयनका अर्थ पर्वत है, उसमे निर्मित प्रतिमाओका नाम लयनकर्म है । शैलका अर्थ पत्थर है, उसमे निर्मित प्रतिमाओंका नाम शेलकर्म है। गृहोसे अभिप्राय जिनगृह आदिकोसे है, उनमें की गयी प्रतिमाओका नाम गृहकर्म है। घोडा, हाथी, मनुष्य एवं वराह ( शूकर ) आदिके स्वरूपसे निर्मित घर गृहकर्म कहलाते हैं, यह अभिप्राय है। घरको दीवालों में उनसे अभिन्न रची गयी प्रतिमाओंका नाम भित्तिकर्म है। हाथी दाँतोपर खोदी हुई प्रतिमाओंका नाम दन्तकर्म है । भेंड सुप्रसिद्ध है । उस पर खोदी गई प्रतिमाओं का नाम भेंडकर्म है। अक्ष ऐसा कहनेपर ताक्ष अथवा शकटाक्षका ग्रहण करना चाहिए (अर्थात् हार जीतके अभिप्रायसे ग्रहण किये गये जूआ खेलनेके अथवा शतरंज व चौसर आदिके पासे अक्ष हैं ) बराटक ऐसा कहनेपर कपर्दिका (कौड़ियो ) का ग्रहण करना चाहिए । (ध. १३/५,३,१०/४/८); (घ. १४/५.६६/५/१०) ६. नाम व स्थापनामें अन्तर रा. बा./९/५/१३/२६/२५ नामस्थापनयोरेकत्वं संज्ञाकर्माविशेषादिति चेत्; ना आदरानुग्रहाकाक्षित्वात् स्थापनायाम् ।...यथा अर्ह दिन्द्रस्कन्देश्वरादिप्रतिमासु आदरानुग्रहाकाक्षित्वं जनस्य,न तथा परिभाषते वर्तते। ततोऽन्यत्वमनयोः।। रा, वा./१/५/२३/३०/३१ यथा ब्राह्मणः स्यान्मनुष्यो ब्राह्मणस्य मनुष्य जात्यात्मकत्वात्। मनुष्यस्तु ब्राह्मण' स्यान्न वा, मनुष्यस्य वाह्मणजात्यादिपर्यायात्मकत्वादशनात् । तथा स्थापना स्यान्नाम, अकृतनाम्न' स्थापनानुपपत्तेः। नाम तु स्थापना स्यान्न वा, उभयथा दर्शनात् । -१. यद्यपि नाम और स्थापना दोनों निक्षेपों में संज्ञा रखी जाती है, बिना नाम रखे स्थापना हो ही नहीं सकती; तो भी स्थापित अहंन्त, इन्द्र, स्कन्द और ईश्वर आदिकी प्रतिमाओंमें मनुष्यको जिस प्रकारकी पूजा, आदर और अनुग्रहकी अभिलाषा होती है, उस प्रकार केवल नाममें नहीं होती, अतः इन दोनोंमें अन्तर है । (ध. १/१,७,१/गा. १/१८६), ( श्लो. वा. २/१/३/श्लो, १५/२६४) २. जैसे ब्राह्मण मनुष्य अवश्य होता है। क्योंकि, ब्राह्मणमें मनुष्य जातिरूप सामान्य अवश्य पाया जाता है; पर मनुष्य ब्राह्मण हो न भी हो, क्योंकि मनुष्यके ब्राह्मण जाति आदि पर्यायात्मकपना नहीं देखा जाता। इसी प्रकार स्थापना तो नाम अवश्य होगी, क्योंकि बिना नामकरण के स्थापना नहीं होती; परन्तु जिसका नाम रखा है उसकी स्थापना हो भी न भी हो, क्योंकि नामवाले पदार्थों में स्थापनायुक्तपना व स्थापनारहितपना दोनों देखे जाते हैं। ध.५/१,७,१/गा, २/१८६ णामिणि धम्मुवयारो णामट्ठवणा य जस्स तं थविदं । तद्धम्मे ण वि जादो सुणाम ठवणाणमविसेसं। -नाममें धर्मका उपचार करना नामनिक्षेप है, और जहाँ उस धर्म की स्थापना को जाती है, वह स्थापना निक्षेप है । इस प्रकार धर्मके विषयमें भी नाम और स्थापनाको अविशेषता अर्थात् एकता सिद्ध नहीं होती। ७. सद्भाव व असद्भाव स्थापनामें अन्तर दे, निक्षेप/४/३ (सद्भाव स्थापनामें बिना किसी के उपदेशके 'यह वही हैं ऐसी बुद्धि हो जाती है, पर असदभाव स्थापनामें बिना अन्यके उपदेशके ऐसी बुद्धि होनी सम्भव नहीं।) ध, १३/५.४,१२/४२/२ सब्भावासब्भावठ्ठवणाणं को विसेसो। बुद्धीए ठविज्जमाणं वण्णाकारादीहि जमणुहरइ दव्वं तस्स सम्भावसण्णा । दव्व-खेत्त-वेयणावेयणादिभेदेहि भिण्णाण पडिणिभि-पडिणिभेयाणं कधं सरिसत्तमिदि चेण, पाएण सरित्तवल भादो। जमसरिसं दवं तमसम्भावठवणा। सव्वदव्वाणं सत्त-पमेयत्तादीहि सरिसत्तमुवल भदि त्ति चे-होदु णाम एदेहि सरिसत्तं, किंतु अप्पिदेहि वण्ण-करचरणादीहि सरिसत्ताभावं पेक्खिय असरिसत्तं उच्चदे।-प्रश्नसद्भावस्थापना और असद्भावस्थापनामें क्या भेद है ? उत्तर- बुद्धिद्वारा स्थापित किया जानेवाला जो पदार्थ वर्ण और आकार आदिके द्वारा अन्य पदार्थका अनुकरण करता है उसको सद्भावस्थापना संज्ञा है। प्रश्न-द्रव्य, क्षेत्र, वेदना, और अवेदना आदिके भेदसे भेदको प्राप्त हुए प्रतिनिभ और प्रतिनिभेय अर्थात सदृश और सादृश्यके मूलभूत पदार्थों में सदृशता कैसे सम्भव है ! उत्तर-नहीं, क्योकि, प्रायः कुछ बातो में इनमें सदृशता देखी जाती है। जो जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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