Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 2
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 617
________________ १३१५.५.८४विबइसदि, बइहा चव हदि कि उदयसे चलता २. साधुओंके लिए निद्राका निर्देश निद्रा उठ बैठता है और अल्प शब्दके द्वारा भी सचेत हो जाता है। निद्रा बदा गो. क./मू./२४/१६ पयलापयलुदयेण य बहेदि लाला चलं ति अंगाई। प्रचलाप्रचलाके उदयसे पुरुष मुख से लार बहाता है और उसके हस्त प्रकृतिके उदयसे गिरता हुआ जोव जल्दी अपने आपको सँभाल लेता पादादि चलायमान हो जाते है। है, थोड़ा थोडा काँपता रहता है और सावधान सोता है। ध,१३/५,५,८१/८ जिस्से पयडीए उदएण अद्धजगंतओ सोवदि. ५. स्त्यानगृद्धिके चिह्न धूलोए भरिया इव लोयणा होति गुरुवभारेणोठद्धव सिरमभारिय ध ६/१,६-१,१६/३२/१ थीणगिद्धीए तिब्बोदएण उट्ठा विदो वि पुणो होइ सा णिहा णाम । =जिस प्रकृतिके उदयसे आधा जागता हुआ सोवदि, सुत्तो वि कम्म कुण दि. सुत्तो वि झवखइ, दते कडकडावेइ । सोता है, धूलिसे भरे हुएके समान नेत्र हो जाते है, और गुरुभारका -स्त्यानगृदिके तीन उदयसे उठाया गया भी जीव पुन' सो जाता उठाये हुएके समान शिर अति भारी हो जाता है, वह निद्रा है, सोता हुआ भी कुछ क्रिया करता रहता है, तथा सोते हुए भी प्रकृति है। बडबडाता है और दॉतोको कड़कडाता है। गो. क./मू /२४/१६ णिदुदये गब्छतो ठाइ पुणो वइसइ पडेई । निद्रा ध. १३/५,५,८५/५ जिस्से णिहाए उदएण जंतो वि थंभियो व णिच्चलो के उदयसे मनुष्य चलता चलता खड़ा रह जाता है, और खड़ा खड़ा चिट्ठदि, ट्ठियो वि वइस दि, वइट्ठओ वि णिवज्जदि, णिवण्णओ वि बैठ जाता है अथवा गिर पड़ता है। उहाविदो विण उहदि, सुत्तओ चेव पंथे हदि, कसदि, लणदि, २. निद्रानिद्राके चिह्न परिबादि कुण दि सा थीण गिद्धी णाम ।जिस निद्राके उदयसे चलता चलता स्तम्भित किये गयेके समान निश्चल खड़ा रहता है, खडा खडा ध.६/१,६-१:१६/३१/8 तत्थ णिहाणिहाए तिबोदएण रुक्खग्गे विसम भी बैठ जाता है, बैठकर भी पड़ जाता है, पड़ा हुआ भी उठानेपर भी भ्रमीए जत्थ वा तत्थ वा देसे घोरतो अधोरंतो वा णिभर सुबदि । निद्रानिद्रा प्रकृतिके तीन उदयसे जीव वृक्षके शिखर पर, विषम नहीं उठता है, सोता हुआ भी मार्गमे चलता है, मारता है, काटता भ्रमिपर, अथवा जिस किसी प्रदेशपर बुरघुराता हुआ या नहीं घुर है और बडबडाता है वह स्त्यानगृद्धि प्रकृति है। घुराता हुआ निर्भर अर्थात् गाढ निद्रामे सोता है। गो. क./म् /२३/१६ थीणुदयेणुढविदे सोवदि कम्मं करेदि जप्पदि य । ध.१३/५,५,६५/३५४/३ जिस्से पयडीए उदएण अइणिभर सोब दि, -स्त्यानगृद्धिके उदयसे उठाया हुआ सोता रहता है तथा नींद हीमें अण्णे हिं अट्ठाबिज्जंतो वि ण उट्ठह साणिवाणिहा णाम | अनेक कार्य करता है, बोलता है, पर उसे कुछ भी चेत नहीं जिस प्रकृतिके उदयसे अतिनिर्भर होकर सोता है, और दूसरोंके हो पाता। द्वारा उठाये जानेपर भी नहीं उठता है, वह निद्रानिद्रा प्रकृति है। ३. निद्राओंका जघन्य व उत्कृष्ट काल व अन्तर गो, क./मू./२३/१६ णिहाणिद्दुदयेण य ण दिठिमुग्धादिदं सक्को । -निद्रानिद्राके उदयसे जीव यद्यपि सोनेमें बहुत प्रकार सावधानी घ. १५/५/पंक्ति णिवाणिहा-पयलापयला-थीगिद्धीणमुदीरणाए कालो करता है परन्तु नेत्र खोलनेको समर्थ नहीं होता। जहण्णेण एगसमओ। कुदो। अद्धुवोदयादो। उकारसेण अंतीमुहत्तं । एवं णिहापयलाणं पि वत्तव्वं । (६११४)। णिद्दा पयलाणमंतरं जह३. प्रचलाके चिह्न ण्णमुक्कस्सं पि अंतोमुहुत्तं । णिद्दागिहा-पयलापयला-थीणगिरीणमंध.६/१,६-१,१६/३२/४ पयलाए तिब्बोदएण बालुवाए भरियाई व लोय- तर जहणेण अंतोमुहत्त, उक्कस्सेण तेत्तीस सागरोवमाणि साहियाणि णाई होंति, गुरुवभारोड्ढव्वं व सीसं होदि. पुणो पुणो लोयणाई अंतोमुहुत्तेण ।(६८/४)। =निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला और स्त्यानउम्मिल्ल-णि मिलणं कुणं ति। -प्रचला प्रकृतिके तीब उदयसे लोचन गृद्धिकी उदीरणाका काल जघन्यसे एक समय है; क्यो कि, ये अधुबालुकासे भरे हुएके समान हो जाते है, सिर गुरुभारको उठाये हुएके वोदयी प्रकृतियॉ है। उनकी उदीरणाका काल उत्कर्ष से--अन्तर्मुहूत समान हो जाता है और नेत्र पुन' पुन' उन्मीलन एवं निमीलन करने प्रमाण है । इसी प्रकारसे निद्रा और प्रचला इन दो प्रकृतियों के उदीलगते हैं। रणाकालका कथन करना चाहिए ।।६९/१४)। निद्रा और प्रचलाकी ध.१३/१४५,८५/३५४/४ जिस्से पयडीए उदएण अद्धसुत्तस्स सीसं मणा उदीरणाका अन्तरकाल जघन्य व उत्कृष्ट भी अन्तर्मुहर्त मात्र है। मणा चलदि सा पयला णाम । जिस प्रकृतिके उदयसे आधे सोते हुए- निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला, और स्त्यानगद्धिका वह अन्तरकाल का शिर थोड़ा-थोड़ा हिलता रहता है, वह प्रचला प्रकृति है। जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त और उत्कुष्टसे अन्तर्महूर्त से अधिक तेतीस सोगगो. क./मू./२५/१७ प्रचलुदयेण य जीवो ईसम्मीलिय सुवेइ सुत्तोवि। रोपम प्रमाण है। ईस ईसं जाणदि मुहूं मुहं सोबदे मंदं ।२१ प्रचलाके उदयसे जीव किंचित नेत्रको खोलकर सोता है। सोता हुआ कुछ जानता २. साधुओंके लिए निद्राका निर्देश रहता है। बार बार मन्द मन्द सोता है। अर्थात् बारबार सोता व १. शितिशयन मूलगुणका लक्षण जागता रहता है। ४. प्रचला-प्रचलाके चिह . आ./३२ फासुयभूमिपएसे अप्पमसथारिदम्हि पच्छण्णे । दंडंधणुव्य सेज्जं रिवदिसयणं एयपासेण ।३२॥ =जीवबाधारहित, अल्पसंस्तर ध./६/१.६-१,१६/३१/१० पयलापयलाए तिव्योदएण बइठ ओ बा रहित. असंयमीके गमनरहित गुप्तभूमिके प्रदेशमे दण्डके समान उब्भवों वा मुहेण गलमाणलालो पुणो पुणो कंपमाणसरीर-सिरो अथवा धनुषके समान एक कर्बटसे सोना क्षितिशयन मूलगुण है । णिभर सुबदि ।-प्रचलाप्रचला प्रकृति के तीव्र उदयसे बैठा या खडा अनु. ध./६/११/१२१ अनुत्तानोऽनवाड स्वप्याद्भूदेशेऽसंस्तृते स्वयम् । हुआ मुँहसे गिरती हुई लार सहित तथा बार-बार कपते हुए शरीर स्वमात्रे संस्तृतेऽल्प वा तृणादिशयनेऽपि वा । = तृणादि रहित केवल और शिर-युक्त होता हुआ जीव निर्भर सोता है। भूमिदेशमे अथवा तृणादि संस्तरपर, ऊर्ध्व व अधोमुख न होकर ध, १३/५,५,६५/३५४/४ जिस्से उदएण ठ्ठियो णिसण्णो वि सोवदि किसी एक ही कर्व टपर शयन करना क्षितिशयन है। गहगहियो व सीसं धुणदि वायायलया व चदुसु वि दिसासु लोट्टदि सा पयलापयला णाम । =जिसके उदयसे स्थित व निषण्ण अर्थात २. प्रमार्जन पूर्वक कर्वट लेते हैं बैठा हुआ भी सो जाता है, भूतसे गृहीत हएके समान शिर धुनता है, भ. आ //६६/२३४ इरियादाणणिखेवे विवेगठाणे णिसीयणे सयणे । तथा बायुसे आहत लताके समान चारो ही दिशाओमें लोटता है, उन्नत्तणपरिवत्तण पसारणा उटणायरसे १६ = शरीरके मल मूत्रादिवह प्रचला-प्रचला प्रकृति है। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश भा०२-७७ समान चारात हुएके समान शिक्षण अर्थात Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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