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नयकोति
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नरक
दे० मोक्षमार्ग/४/६ साधक पहले सविकल्प दशामे व्यवहार मार्गी होता
है और पीछे निर्विकल्प दशामे निश्चयमार्गी हो जाता है । दे० धर्म/६/४ अशुभ प्रवृत्तिको रोकनेके लिए पहले व्यवहार धर्मका
ग्रहण होता है । पीछे निश्चय धर्ममें स्थित होकर मोक्षलाभ करता है। नयकाति-१.आप पद्मनन्दि नं०६ के गुरु थे। उन पद्मनन्दिका उल्लेख वि. १२३८,१२४२,१२६३ के शिलालेखोंमें मिलता है। तदनुसार आपका समय -वि. १२२५-१२५०० (ई.११६८-११६३), (पं.वि./ प्र.२८/A.N.Up.)। २ देशीयगण की तृ शाखा में क्लधौतनन्दि के शिष्य।-दे इतिहास/७/५ । नयचक्र-नयचक्र नामके कई ग्रन्थोंका उल्लेख मिलता है। सभी नय व प्रमाणके विषयका निरूपण करते है। १. प्रथम नयचक्र आ. मन्लवादी नं.१(ई. ३५७) द्वारा संस्कृत छन्दोंमें रचा गया था, जो श्लोक वार्तिककी रचना करते समय आ. विद्यानन्दिको प्राप्त था। पर अब वह उपलब्ध नहीं है । २. द्वितीय नयचक्र आ. देवसेन (ई. १३३-६५५) द्वारा प्राकृत गाथाओं में रचा गया है। इसमें कुल ४२३ गाथाएँ है। ३. तृतीय नयचक्रपर पं. हेमचन्द
जीने (ई. १६६७) एक भाषा वचनिका लिखी है ।क्षी./२/३३०, ६६६) नयनंदि-नन्दिसंघ देशीयगण, माणिक्य नन्दि के विद्या शिष्य,
द्रव्य स ग्रह कार नेमिचन्द्र सिद्धान्तिक के शिष्य । गुरु परम्परानक्षत्र, पद्मनन्दि, विश्वनन्दि, नन्दनन्दि, विष्णुनन्दि, विशाखनन्दि. रामनन्दि. माणिक्यन न्दि, नयनन्दि। कृतियें-- सुदसण चरिउ, सयत विहिबिहाणकव्व । समय-ई. १९३-१०५०। (दे. इतिहास ७/५)। (जी/३/२६२) ।
. नरकगति सामान्य निर्देश
नरक सामान्यका लक्षण। नरकगति या नारकीका लक्षण। नारकियोंके भेद (निक्षेपोंकी अपेक्षा)। नारकीके मेदोंके लक्षण। नरकगतिमें गति, इन्द्रिय आदि १४ मार्गणाओंके
स्वामित्व सम्बन्धी २० प्ररूपणाएँ। -दे० सद। * | नरकगति सम्बन्धी सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव व अल्पबहुत्व रूप आठ प्ररूपणाएँ ।
-दे० वह वह नाम । नरकायुके बन्धयोग्य परिणाम । -दे० आयु/३ । नरकगतिमें कर्मप्रकृतियोंके बन्ध, उदय, सत्त्व-विषयक प्ररूपणाएँ।
-दे० वह वह माम । नरकगतिमें जन्म मरण विषयक गति अगति प्ररूप
-दे० जन्म/। * सभी मार्गणाओंमें आयके अनुसार व्यय होनेका नियम।
-दे० मार्गणा।
__णाएँ।
नरकगतिके दुःखोंका निर्देश नरकमें दुःखोंके सामान्य भेद । शारीरिक दुःख निर्देश। क्षेत्रकृत दुःख निर्देश। असुर देवोंकृत दुःख निर्देश। मानसिक दुःख निर्देश।
नयनसुख-सुन्दर आध्यात्मिक अनेक हिन्दी पदोके रचयिता। समय-वि. श. १६ मध्य (हि. जैन साहित्य इतिहास/कामताप्रसाद)। नय विवरण-आ. विद्यानन्दि (ई.७७५-८४०) द्वारा संस्कृत
भाषामें रचित न्याय विषयक ग्रन्थ है, जिसमें नय व प्रमाणका विस्तृत विवेचन है । ( दे. विद्यानन्दि ) नयसेन-धर्मामत, समय परीक्षा, धर्म परीक्षा के रचयिता कन्नड
कवि । गुरु-नरेन्द्र मेन । समय-ई. ११२५ । (ती /४/३०८) । नर-(रा.बा/२/५०/५/१५६/११) धर्मार्थकाममोक्षलक्षणानि कार्याणि नृणन्ति नयन्तीति नराः। = धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष इन चार पुरुषार्थ का नयन करनेवाले 'नर' होते हैं। नरक-प्रचुररूपसे पापकर्मों के फलस्वरूप अनेकों प्रकारके असह्य दुःखौंको भोगनेवाले जीव विशेष नारकी कहलाते हैं। उनकी गतिको नरकगति कहते हैं, और उनके रहनेका स्थान नरक कहलाता है, जो शीत, उष्ण, दुर्गन्धि आदि असंख्य दुःखोंकी तीव्रताका केन्द्र होता है। वहाँपर जीव बिलों अर्थात् सुरंगोंमें उत्पन्न होते व रहते हैं और परस्परमें एक दूसरेको मारने-काटने आदि के द्वारा दुःख भोगते रहते हैं।
३ | नारकियों के शरीरकी विशेषताएँ
जन्मने व पर्याप्त होने सम्बन्धी विशेषता । शरीरकी अशुभ आकृति। वैक्रियक भी वह मांस आदि युक्त होता है। इनके मूंछ-दाढी नहीं होती। इनके शरीरमें निगोदराशि नहीं होती।
नारकियोंको आयु व अवगाहना।-दे० वह वह नाम । | नारकियोंको अपमृत्यु नहीं होती।-दे० मरण/४ । छिन्न भिन्न होनेपर वह स्वतः पुनः पुनः मिल जाता है। आयु पूर्ण होनेपर वह काफूरवत् उड़ जाता है। नरकमें प्राप्त आयुध पशु आदि नारकियोंके ही शरीरकी विक्रिया हैं।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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