Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 2
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 597
________________ निंबदेव ६. मिध्यादृष्टियोंके लिए अपमानजनक शब्दका प्रयोग प्रमाण १ मू. आ. / ६५१ २.सा./१०८ २ पापा./१० ४ भा.पा./मू. ७१ ५.भा.पा./. Jug भा.पा./मू./९४३ ६ | मो.पा./मू /७६ ७ मो.पा./मू./१०० ८ लिंग पा./मू./३४ लिंग प. ४-१८ प्र.स. पू. २६६ १० ११ दे० भव्य / २ १२ ३० मिथ्यादर्शन १३ स.सा./खा./२०१ १४ १५ स सा / आ./८५ नि.सा./ता वृ./ व्यक्ति एकल बिहारी साधु स्वच्छन्द साधु सम्यक्त्वचरण से भ्रष्टसाधु मिथ्यादृष्टि नग्न साधु भावविहीन साधु मिध्यादृष्टि साधु श्वेताम्बर साधु मिध्यादृष्टिका लाग व चारित्र द्रव्य लिगी नग्न साधु " मन्त्रापजीवि नग्न साधु मिथ्यादृष्टि सामान्य बाह्य क्रियाबलम्बी आत्माको कर्मों आदि का कर्ता माननेवाले 92 अन्यवश साधु १४३ / क २४४ १६ यो. सा. / ८ / १८ - १६ लोक दिखावेको धर्म करनेवाले Jain Education International वेदांत 2 निकल निकल परमात्मा दे० परमात्मा /१ निकाचित व निधत - १ लक्षण - उपाधि पाप श्रमण राज्य सेवक ज्ञानमूढ इक्षु पुष्पसम नट श्रमण पाप व तिर्यगा लय भाजन अभव्य पाजीब लौकिक चल शब मोक्षमार्ग भ्रष्ट बाल श्रुत बाल चरण पापमोहितमति नारद, तिच तिर्यग्योनि लौकिक ५८९ सर्वमसे बाहर राजवल्लभ नौकर निवदेव - शिलाहार के नरेश गण्डरादित्य के सामन्त थे । उक्त नरेशका उलेख श. सं. १०३०-१०५८ तकके शिलालेखोंमे पाया जाता है । अत इनका समय - श. सं. २०३०-१०५८ ( ई १९०८ - ११३६ ) होता है। निर्कवेदांत मूढ, लोभी, क्रूर. डरपोक, सूखं भवाभिनन्दी मो./.जी. प्र./४४०/४६३ उदये संक्रमयुर मुवि दादु कमेण णो सकें। उपसंतं च णिति निकाचिदं होदिजं क्रम्मं । ... कर्मइयावयां निक्षेप्तं संक्रामयि चाशक्यं तज्ञिन्तिर्नाम । उदयावयां निक्षेप्तुं संक्रामयितुमुत्कर्षयितुमपकर्षयितुं चाशक्यं निचितं नाम भवति जो धर्म उदयालीमा परी या अन्य प्रकृतिरूप संक्रमण करनेको समर्थन जे सो नि कहिये। बहुरि जो धर्म उदयावी व प्राप्त करनेको वा अन्य प्रकृतिरूप संक्रमण करने की या उत्कर्षण करने को समर्थन जे सो निकाचित कहिए। २. निकाचित व निधत सम्बन्धी नियम गो.क./मू. व जी. प्र / ४५०/५६६ उवसतं च णिति णिकाचिदं तं गुणस्थानपर्यन्तमेव स्यात् तदुपरि निक्षेप गुणस्थानेषु यथासंभवं कामित्यर्थ उपशान्त, नित निका पित ये तीनो प्रकारके कर्म अपूर्वकरण गुणस्थान पर्यंत ही है। ऊपर के गुणस्थानों में यथासम्भव शक्य अर्थात् जो उदयावली विधै प्राप्त करनेकू समर्थ हूजे ऐसे ही कर्म परमाणु पाइए है। ३ नित व निकाचित कमका मंजन भी सम्भव है भ. ६/९.१-१.२२/४९०१९ जिगमिव समेण धिस विकाचिदस्त भि मिच्छत्तादिकम्म कलावस्स खयदंसणादो । -जिनबिम्बके दर्शन से निधत और निकाचित रूप भी मिध्यात्वादि कर्मकलापका क्षय होता देखा जाता है। निकाय - --- - ( स. सि. /४/१/२३६/- ) देवगतिनामकर्मोदयस्य स्वकर्मविशेषापादितभेदस्य सामर्थ्यान्निचीयन्त इति निकायाः संघाता इत्यर्थ' । अपने अवान्तर कर्मोसे भेदको प्राप्त होनेवाले देवगति नामकर्मके उसकी सामने जो संग्रह किये जाते हैं ने निकाय कह साते है। (रा. बा/४/९/३/२११/११) । निक्कुन्दरी - भरतक्षेत्र आर्यखण्डकी एक नदी- दे० मनुष्य ४ ) । निकृति- मायाका एक भेद (दे० माया/२) निकृति बचन दे० वचन । निक्लोदिम–०५/५/१ निक्षिप्तनिक्षेप निक्षेप जिसके द्वारा वस्तुका ज्ञानमें क्षेपण किया जाय या उपचार से वस्तुका जिन प्रकारोंसे आक्षेप किया जाय उसे निक्षेप कहते है । सो चार प्रकारसे किया जाना सम्भव है- किसी वस्तुकै नाममें उस वस्तुका उपचार वा ज्ञान, उस वस्तुको मूर्ति या प्रतिमामे उस वस्तुका उपचार या ज्ञान वस्तुकी पूर्वापर पर्यायों में से किसी भी एक पर्याय मे सम्पूर्ण वस्तुका उपचार या ज्ञान तथा वस्तुके वर्तमान रूप में सम्पूर्ण वस्तुका उपचार या ज्ञान । इनके भी यथासम्भव उत्तरभेद करके वस्तुको जानने वजनानेका व्यवहार प्रचलित है। वास्तव में ये सभी भेद वक्ताका अभिप्राय विशेष होनेके कारण किसी न किसी नय में गर्भित हैं। निक्षेप विषय है और नय विषयी यही दोनों अन्तर है। आहारका एक दोष-३०४ उत्कर्षण अपकर्षण विधानमें जघन्य उत्कृष्ट निक्षेप । - दे० वह वह नाम 1 9 निक्षेप सामान्य निर्देश १ निक्षेप सामान्यका लक्षण । ३ ५ ६ निक्षेपके ४, ६ या अनेक भेद । चारों निक्षेपोंके लक्षण व मेद आदि । -दे० निक्षेप /४०७ प्रमाण नय और निक्षेपमें अन्तर । निक्षेप निर्देशका कारण व प्रयोजन । नयोंसे पृथक् निक्षेपका निर्देश क्यों । चारों निक्षेपका सार्थक्य व विरोध निरास । वस्तु सिद्धिमें निक्षेपका रुपान -दे० नय /I/३/७ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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