Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 2
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 603
________________ निक्षेप ३. निक्षेपोंका नैगमादि नयों में अन्तर्भाव नयके आश्रयसे होता है (दे०निक्षेप/२/१)। उत्तर-१. यह दोष- युक्त नहीं है; क्योकि वर्तमानपर्यायसे उपलक्षित द्रव्यको भाव कहते हैं। शुद्ध द्रव्याथिकनयमे तो क्योकि, भूत भविष्यत और वर्तमानरूपसे कालका विभाग नहीं पाया जाता है, कारण कि वह पर्यायोंकी प्रधानतासे होता है; इसलिए शुद्ध द्रव्यार्थिक नयों में तो भावनिक्षेप नहीं बन सकता है, क्योंकि भावनिक्षेपमें वर्तमानकालको छोड़कर अन्य काल नहीं पाये जाते हैं। परन्तु जब व्यंजनपर्यायोंकी अपेक्षा भावमें द्रव्यका सद्भाव स्वीकार कर दिया जाता है, तब अशुद्ध द्रव्यार्थिक नयों में भाव निक्षेप बन जाता है; क्योंकि, व्यंजनपर्यायको अपेक्षा भाव में भी तीनों काल सम्भव हैं । (ध.६/४,१,४८/२४२/८), (ध.१०/४,२,२,३/११/१), (ध.१४/५,६,४/ ३/७)। २. अथवा सभी समीचीन नयोमें भी क्योंकि तीनों ही कालोंको स्वीकार करने में कोई विरोध नहीं है। इसलिए सभी द्रव्यार्थिक नयोंमें भावनिक्षेप बन जाता है। और व्यवहार मिथ्या नयोंके द्वारा किया नहीं जाता है, क्योंकि, उनका कोई विषय नहीं है। ३. यदि कहा जाय कि भाव निक्षेपका स्वामी द्रव्यार्थिक नयोंको भी मान लेनेपर सन्मति तर्कके 'णामं ठवणा' इत्यादि (दे० निक्षेप/२/१ ) सूत्रके साथ विरोध आता है, सो यह कहना भी ठीक नहीं है; क्योंकि, जो भावनिक्षेप ऋजुसूत्र नयका विषय है, उसकी अपेक्षासे सन्मतिके उक्त सूत्रकी प्रवृत्ति हुई है। (ध.१/१,१,१/१५/६). (ध.६/४,१,४६/२४४/१०)। अतएव नैगम संग्रह और व्यवहारनयों में सभी निक्षेप संभव हैं, यह सिद्ध होता है। ध,१/१,१,१/१४/२ कधं दवठ्यि -णये भाव-णिवखेवस्स संभवो। ण, वट्टमाण-पज्जायोवलक्वियं दव्वं भावो इदि दव्वठ्ठिय-णयस्स वट्टमाणमवि आरंभप्पहुडि आ उवरमादो । संगहे सुद्धदबटिए वि भावणिक्खेवस्स अत्थित्तं ण विरुज्झदे सुकुक्खि-णिक्वित्तासेसविसेस-सत्ताए सव्व-कालमव हिदाए भावन्भुवगमादो त्ति । म प्रश्न-द्रव्यार्थिक नयमें भावनिक्षेप कैसे सम्भव है ! उत्तर१. नहीं; क्योंकि वर्तमान पर्यायसे युक्त द्रव्यको ही भाव कहते हैं, और वह वर्तमान पर्याय भी द्रव्यकी आरम्भसे लेकर अन्त तककी पर्यायों में आ ही जाती है। (ध.१०/५,५,६/३६/७)। २. इसी प्रकार शुद्ध द्रव्याथिक रूप संग्रहनयमे भी भाव निक्षेपका सद्भाव विरोधको प्राप्त नहीं होता है; क्योंकि अपनी कुक्षिमें समस्त विशेष सत्ताओंको समाविष्ट करनेवाली और सदा काल एक रूपसे अवस्थित रहनेवाली महासत्तामें हो 'भाव' अर्थात पर्यायका सद्भाव माना गया है। ष खं.१३/५,४/सू./४० सद्दणओ णामकम्मं भावकम्मं च इच्छदि। शब्दनय नामकर्म और भावकर्मको स्वीकार करता है। (ष.वं. १०/४,२,२/सूत्र ४/११); (ष.ख.१३/५,६/सूत्र ८/२००); (ष ख.१४/५,६/ सू.६/३); (प.वं.१४/५,६/सूत्र७४/५३); (क.पा.१/१,१३-१४/१२१४/चूर्ण सूत्र/२६४)। ध.१/१,१.१/१६/५ सह-समभिरूढ-एवंभूद-णएम वि णाम-भाव-णिवरेवा हवं ति तेसि चेय तत्थ संभवादो। =शब्द, समभिरूढ और एवंभूत नयमें भी नाम और भाव ये दो निक्षेप होते है, क्योकि ये दो ही निक्षेप वहाँपर सम्भव है. अन्य नही। (क.पा.१/१,१३-१४/६२४०/ चूर्ण सूत्र/२८५) । २. तीनों द्रव्यार्थिक नयोंके समी निक्षेप विषय कैसे? ध.१/१,१,१/१४/१ तत्थ णेगम-संगह-ववहारणएसु सव्वे एदे णिवखेवा हवं ति तबिसयम्मि तम्भव-सारिच्छ-सामण्ण म्हि सव्वणिवखेवस भवादो। नै गम, संग्रह और व्यवहार इन तीनो नयोंमे सभी निक्षेप होते है; क्योंकि इन नयोके विषयभूत तद्भवसामान्य और सादृश्यसामान्यमे सभी निक्षेप सम्भव है। (क.पा.१/१,१३-१४/६२११/२५६/८)। क.पा.१/१,१३-१४/६२३६/२८३/६ णेगमो सव्वे कसाए इच्छदि। कुदो। संगहासंगहसरूवणेगम्मि विसयीकयसयललोगववहारम्मि सव्वकसायसभवादो। -नै गमनय सभी (नाम, स्थापना, द्रव्य व भाव) कषायौंको स्वीकार करता है; क्योंकि वह भेदाभेदरूप है और समस्त लोकव्यवहारको विषय करता है। दे०निक्षेप/२/३-७ ( इन द्रव्यार्थिक नयोंमे भावनिक्षेप सहित चारो निक्षेपोंके अन्तर्भावमें हेतु), ३. निक्षेपोंका नेगमादि नयोंमें अन्तर्भाव ३. ऋजुसूत्रका विषय नाम निक्षेप कैसे घ.१/१,१,१/१६/४ ण तत्थ णामणिक्खेवाभावो वि सद्दोवलद्धि काले णियत्तवाचयत्तु बलभादो। =(जिस प्रकार ऋजुसूत्रमे द्रव्य निक्षेप घटित होता है) उसी प्रकार वहाँ नामनिक्षेपका भी अभाव नहीं है; क्योंकि जिस समय शब्दका ग्रहण होता है, उसी समय उसकी नियत वाच्यता अर्थात् उसके विषयभूत अर्थका भी ग्रहण हो जाता है। घ.६/४,१,४६/२४३/१० उजुसुदणोणाम पज्जवटियो व तस्स णामदव्व-गणणगंथकदी होति त्ति, विरोहादो । .. एत्थ परिहारो वुच्चदे-उजुसुदो दुविहो सुद्धो असुद्धो रेदि । तत्थ सुद्धो विसईकय अत्थपज्जाओ...। एदस्स भाव मोत्तूण अण्ण कदीओ ण संभवं ति, विरोहादो। तत्थ जो सो असुद्धो उजुसुदणओ सो चक्खुपासियवेजणपज्जयविसओ । ...तम्हा उजुसुदे ठवणं मोत्तूण सव्वणिक्खेवा संभवंति त्ति वुत्तं । -प्रश्न-ऋजुसत्रनय पर्यायाथिक है, अत: वह नामकृति, द्रव्यकृति, गणनकृति और ग्रन्थकृतिको कैसे विषय कर सकता है, क्योकि इसमें विरोध है। उत्तर-यहाँ इस शंकाका परिहार करते हैं-जुसूत्रनय शुद्ध और अशुद्धके भेदसे दो प्रकारका है। उनमें अर्थ पर्यायको विषय करनेवाले शुद्ध ऋजुसूत्र मे तो भावकृतिको छोड़कर अन्य कृतियाँ विषय होनी सम्भव नहीं हैं: क्योंकि इसमे विरोध है। परन्तु अशुद्ध ऋजुसूत्रनय चक्षु इन्द्रियकी विषयभूत व्य जन पयोयोको विषय करनेवाला है। इस कारण उसमें स्थापनाको छोड़कर सब निक्षेप सम्भव है ऐसा कहा गया है। (विशेष दे० नय/III/५/६ ) । क. पा./१/१,१३-१४/१२२८/२७८/३ दबट्ठियणयमस्सिदूण 'ट्ठिदणाम कथमुजुसुदे पज्जवट्ठिए स भवइ। ण, अत्थणएमु सहस्स अत्थाणुसारित्ताभावादो। सद्दबवहारेचप्पलए संते लोगववहारो सयलो वि उच्छिज्जदि त्ति चे; होदि तदुच्छेदो, किन्तु णयस्स विसओ अम्मे हि परूविदो। प्रश्न-नामनिक्षेप द्रव्याथिकनयका आश्रय १. नयोंके विषयरूपसे निक्षेपोंका निर्देश ष. वं./१३/५,४/सूत्र ६/३६ णेगम-ववहार-संगहा सव्वाणि ।६। -नै गम, व्यवहार और संग्रहनय सब कर्मोको (नाम, स्थापना, द्रव्य, भाव आदि कर्मोको) स्वीकार करते हैं। (ष.वं./१०/४.२.२/सूत्र २/१०); (ष.वं./१३/११/सू.६/१६८); (ष,खं/१४/५.६,६/सूत्र४/३); (प.ख.१४/ ५.६/सूत्र ७२/५२); ( क. पा./१/१,१३-१४/६२११/चूर्ण सूत्र/२५६); (ध.१/१,११/१४/१)। ष,खं.१३/१४/सू.७/३६ उजुसुदो ठवणकम्मं णेच्छदि । -जुसूत्र नय स्थापना कर्मको स्वीकार नहीं करता । अर्थात अन्य तीन निक्षेपोंको स्वीकार करता है । (ष. खं.१०/४,२.२/सूत्र ३/११); (ष.वं.१३/५/सू.७/१६६); (ष.व.१४/५,६/सूत्र ५/३); (प.वं.१४/५,६/ सूत्र/७३/५३); (क.पा.१/१,१३-१४/१२१२/चूर्ण सूत्र/२६२); (ध.१/१,१. १/१६/१)। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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