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निक्षेप
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वैयाकरणो राजा वा भविष्यतीति व्यवहारदर्शनात शचीपती प भावे इन्द्र इति । न च विरोधः । किंच, 1201 यथा नामैकं नामैवेष्यते न स्थापना इत्याचक्षाणेन त्वया अभिहितानवबोधः प्रकटीक्रियते । यती नैवमाचस्मामेव स्थापना इति किन्तु एकस्यार्थस्य नामस्थापनाद्रव्यभावे न्यासः इत्याचक्ष्महे |२१| नै तदेकान्तेन प्रतिजानीमहेनामै स्थापना भवतीति न वा, स्थापना वा नाम भवति नेति च ॥ २२ ॥ ...यत एव नामादिचतुष्टयस्य विरोधं भवानाचष्टे अतएव नाभाव' । कथम् । इह योऽयं सहानवस्थानलक्षणो विरोधो बध्यघातकवत, स सामर्थानां भवति नासता काकोदवायापन काकदन्त स्वरविषाणयोर्विरोधोऽस्माद किंच (२४..अथ अर्थान्तरभावेऽपि विरोधकत्वमिष्यतेः सर्वेषां पदार्थानां परस्परतो नित्यं विरोधः स्याद। न चासावस्तीति । अतो विरोधाभावः ॥ २५ ॥ स्यादेतत् ताद्गुण्याद् भाव एव प्रमाणं न नामादिः |...तन्नः किं कारणम् ।... एवं हि सति नामाद्याश्रयो व्यवहारो निवर्तेत । स चास्तीति । अतो न भावस्यैव प्रामाण्यम् ॥ २१.. मद्यपि भावस्यैव प्रामान्यं तथापि नामादिव्यवहारा न निवर्तते । कुतः। उपचारात् ।...तत्र किं कारणम्। तद्गुणाभावात् । युज्यते माणवके सिंहाभ्दव्यवहारः कोर्यशौर्यादिगुणे वेदायीगाव, इह तु नामादिषु जीवनादिगुणे देशो न कश्चिदप्यस्तीत्युच्चाराभाया व्यवहारनिवृत्तिः स्यादेव ।२ ... पचारान्नामादिव्यवहारः स्पात् 'गौणमुल्ययोर्मुख्ये संप्रत्ययः' इति मुख्यस्यैव संप्रत्ययः स्मान्न नामादीनाम। यतस्त्वर्थ प्रकरणादिविशेषािभावे सर्वत्र संप्रश्वय अविशिष्टः कृतगर्भवति अती न नामादिषुपचाराट् व्यमहारा २८. स्थादेतत् - कृत्रिमाकृत्रिमयोः कृत्रिमे संप्रत्ययो भवतीति लोके । तन्न; किं कारणम् । उभयगतिदर्शनात् । लोके ह्यर्थात् प्रकरणाद्वा कृत्रिमे संप्रत्ययः स्यात् अर्थी वास्यैवसंज्ञकेन भवति नामसामान्यापेक्षया स्यादकृत्रिमं विशेषापेक्षया कृत्रिमम् । एवं स्थापनादयश्चेति ॥३०॥ प्रश्न- विरोध होनेके कारण एक जीवादि अर्थके नामादि चार निक्षेप नहीं हो सकते। जैसे- नाम नाम ही है, स्थापना नहीं । यदि उसे स्थापना माना जाता है तो उसे नाम नहीं कह सकते; यदि नाम कहते हैं तो स्थापना नहीं कह सकते, क्योंकि उनमें विरोध है |१६| उत्तर- १ - एक ही वस्तु लोकव्यवहारमें नामादि चारों व्यवहार देखे जाते हैं, अत: उनमें कोई विरोध नहीं है। उदाहरणार्थ इन्द्र नामका व्यक्ति है ( नाम निक्षेप ) मूर्ति में इन्द्रकी स्थापना होती है । इन्द्रके लिए लाये गये काइको भी होग इन्द्र कह देते हैं सद्भाव असदभाव स्थापना ) । अगेकी पर्यायकी योग्यतासे भी इन्द्र, राजा, सेठ आदि व्यवहार होते हैं (द्रव्य निक्षेप ) । तथा शचीपतिको इन्द्र कहना प्रसिद्ध ही है ( भाव निक्षेप) [२०] ( स्लो. बा. २/९/२/पो. ७६-८२/२८८) २. 'नाम नाम ही है स्थापना नहीं' यह कहना भी ठीक नहीं है; क्योंकि यहाँ यह नहीं कहा जा रहा है कि नाम स्थापना है, किन्तु नाम स्थापना द्रव्य और भावसे एक वस्तुमें चार प्रकारसे व्यवहार करनेकी बात है ।२१। ३. पदार्थ व उसके नामादिमें सर्वथा अभेद या भेद हो ऐसा भी नहीं है क्योंकि अनेकान्तवादियोंके हाँ संज्ञा संक्षण प्रयोजन आदि तथा पर्यायार्दिक नयकी अपेक्षा कथंचित् भेद और द्रव्पार्थिकनयकी अपेक्षा कथंचित् अभेद स्वीकार किया जाता है । ( श्लो. वा. २/१/५/७३-८७/२८४-३१३); ४. 'नाम स्थापना ही है या स्थापना नहीं है' ऐसा एकान्त नहीं है; क्योंकि स्थापनामें नाम अवश्य होता है पर नाममें स्थापना हो या न भी हो (दे० निक्षेप / ४ / ६ ) इसी प्रकार द्रव्यमें भाव अवश्य होता है, पर भाव निक्षेपमें द्रव्य विवक्षित हो अथवा न भी हों । (दे० निक्षेप /७/८ ) / 1२२|५छाया और प्रकाश तथा कौआ और उल्लूमें पाया जानेवाला सहानमस्थान और मध्यघातक विरोध विद्यमान ही पदार्थोंमें होता है.
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भा० २-७५
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१. निक्षेपोंका द्रव्यार्थिक व पर्यायार्थिक ***
अविद्यमान खरविषाण आदिमें नहीं। अतः विरोधकी सम्भावनासे ही नामादि चतुष्टयका अस्तित्व सिद्ध हो जाता है | २४ | ६. यदि अर्थान्तररूप होनेके कारण इनमें विरोध मानते हो, तब तो सभी पदार्थ परस्पर एक दूसरे के विरोधक हो जायेगे । २५। ७. प्रश्नभावनिक्षेप में वे गुण आदि पाये जाते हैं अत इसे ही सत्य कहा जा सकता है नामादिको नहीं ? उत्तर-ऐसा माननेपर तो नाम स्थापना और द्रव्य होनेवाले मावद लोक व्यवहारोंका लोप हो जायेगा । लोक व्यवहार में बहुभाग तो नामारि तीनका ही है । २६ । यदि कहो कि व्यवहार तो उपचार से है, अतः उनका लोप नहीं होता है, तो यह भी ठीक नहीं है; क्योंकि बच्चे में क्रूरता शूरता आदि गुणोंका एकदेश देखकर उपचार से सिंह-व्यवहार तो उचित है, पर नामादिमें तो उन गुणोंका एकदेश भी नहीं पाया जाता अतः नामाद्याश्रित व्यवहार औपचारिक भी नहीं कहे जा सकते |१०| यदि फिर भी उसे औपचारिक ही मानते हो तो 'गौण और मुख्यमें मुख्यका ही ज्ञान होता है इस नियम के अनुसार मुख्यरूप 'भाव' का ही संप्रत्यय होगा नामादिका नहीं । परन्तु अर्थ प्रकरण और संकेत आदि के अनुसार नामादिका मुख्य प्रत्यय भी देखा जाता है |२| कृत्रिम और अकृत्रिम पदार्थो कृत्रिमका ही बोध होता है यह नियम भी सर्वथा एक रूप नहीं है क्योंकि इस नियम की उभयरूपसे प्रवृत्ति देखी जाती है। सोमे अर्थ और प्रकारणसे कृत्रिममें प्रत्यय होता है. परन्तु अर्थ व प्रकरणसे अनभिट्ट व्यक्तिमै तो कृत्रिम व अकृत्रिम दोनोंका ज्ञान हो जाता है जैसे किसी गँवार व्यक्तिको 'गोपालको लाओ' कहनेपर वह गोपाल नामक व्यक्ति तथा ग्वाला दोनोंको ला सकता है |२| फिर सामान्य दृष्टिसे नामादि भी तो अकृत्रिम ही है। अतः इनमें कृत्रिमत्व और अत्रिम अनेकान्त है 120 स्लो. बा. २/९/२/०७/३१२/२४ कचिदय किया न नामादयः कुर्वन्तीत्ययुक्तं तेषामवस्तुत्वप्रसहाय न चैतदुपपन्नं भागवन्नामादीनाममारिया मस्त्वसिद्ध ेः। : १० मे चारों कोई भी अर्थक्रिया नहीं करते, यह कहना भी ठोक नहीं है; क्योंकि, ऐसा माननेरी उनमें अवस्तुनेका प्रसंग आता है । परन्तु भाववत् नाम आदिक में भी वस्तुत्व सिद्ध है । जैसे -- नाम निक्षेप संज्ञा-संज्ञेय व्यवहारको कराता है, इत्यादि ।
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२. निक्षेपोंका द्रव्यार्थिक व पर्यायार्थिक नयोंमें
अन्तर्भाव
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१. माव पर्यायार्थिक है और शेष तीन द्रव्यार्थिक स.सि./१/६/२०/६ नयो द्विविधो द्रव्यार्थिकः पर्यायार्थिकश्च । पर्यायाकिमयेन भावतयमधिगन्तव्य । इतरेषां श्याणां व्यार्थिकमन सामान्यात्मकत्वात् । =नय दो हैं-द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक । पर्यायार्थिकनयका विषय भाव निक्षेप है, और शेष तीनको द्रव्याकिन ग्रहण करता है, क्योंकि वह सामान्यरूप है । ( ध. १/१, १.१ /गा. सन्मतितर्क से उत९५) (ध. ४/१.२.१ /गा. २/३ ) (. १/४,१.४५ / गा. ६६/१०५) (क. पा. १/१.१३-१४/४२११/गा. ९११/२६० ) ( रा. बा. १ / २ / ११ / १२ / ६) (सि. वि. / / १२ / २ / ०४९) (रतो. वा. २/१/५/एस. ६६ / २०१). ।
२. भाव में कथंचित् द्रव्यार्थिकपना तथा नाम व द्रव्यमें पर्यायार्थिकपना
दे. निक्षेप /३/१ ( नैगम संग्रह और व्यवहार इन तीन द्रव्यार्थिक नयोंमें चारों निक्षेप संभव हैं, तथा ऋजुसूत्र नयमे स्थापना से अतिरिक्त तीन निक्षेप सम्भव है । तीनों शब्दनयो में नाम व भाव ये दो ही निक्षेप होते हैं।)
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