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नरक
५. नरक लोक निर्देश
२. अधोलोक सामान्य परिचय ति, ५ /२/६,२१,२४-२५ खरपंकप्पबहुलाभागा रयणप्पहाए पुढवीए ।। सत्त चियभूमीओ णवदिसभाएण घणोवहि बिलग्गा। अट्ठमभूमी दसदिसभागेसु घणोवहि छिवदि ।२४। पुव्वापरदिभाए वेत्तासणसंणिहाओ संठाओ। उत्तर दक्षिणदीहा अणादिणिहणा य पुढवीओ।२॥ ति. प./१/१६४ सेढीए सत्तसो हेट्ठिम लोयस्स होदि मुहबासो। भूमीवासो सेढीमेत्ताअवसाण उच्छेहो ।१६४। = अधोलोकमे सबसे पहले रत्नप्रभा पृथिवी है, उसके तीन भाग है-खरभाग, कभाग और अप्पबहुलभाग। (रत्नप्रभाके नीचे क्रमसे शर्कराप्रभा आदि छ: पृथिवियाँ है।)। सातो पृथिवियों में ऊर्ध्व दिशाको छोड़ शेष नौ दिशाओमें घनोदधिवातवलयसे लगी हुई है, परन्तु आठवीं पृथिवी दशों-दिशाओमे ही घनोदधि वातवलयको छूती है ।२४। उपर्युक्त पृथिवियाँ पूर्व और पश्चिम दिशाके अन्तरालमें वेत्रासनके सदृश आकारवाली हैं। तथा उत्तर और दक्षिणमें समानरूपसे दीर्घ एवं अनादिनिधन है ।२५॥ (रा. वा./२/१/१४/१६९/१६); (ह. पु./४/६,४८); (त्रि. सा./१४४,१४६); (ज. प./११/१०६,११) । अधोलोकके मुखका विस्तार जगश्रेणीका सातवा भाग (१ राजू), भूमिका विस्तार जगश्रेणी प्रमाण (७ राजू) और अधोलोकके अन्ततक ऊँचाई भी जगणीप्रमाण (७ राजू) ही है ।१६४। (ह. पू./४/६). (ज. प./११/१०८) ध. ४/१,३,१/६/३ मंदरमूलादो हेट्ठा अधोलोगो।। ध.४/१.३,३/४२/२ चत्तारि-तिण्णि-रज्जुबाहक्लजगपदरपमाणा अधउड्ढलोगा। -मंदराचल के मूलसे नीचेका क्षेत्र अधोलोक है । चार गजू मोटा और जगत्प्रतरप्रयाण लम्बा चौडा अधोलोक है ।
(दे० प्रकृति बंध/७)। २. जिसने पहले नरकायुका बन्ध कर लिया है ऐसे जीव भी सासादन गुणस्थानको प्राप्त होकर नारकियोमे उत्पन्न नहीं होते है, क्योंकि, नरकायुका बन्ध करनेवाले जीवका सासादन गुणस्थानमें मरण ही नहीं होता है। ३. असंयत सम्यग्दृष्टि जीव भी द्वितीयादि पथिवियोमें उत्पन्न नहीं होते हैं। क्योंकि, सम्यग्दृष्टियोंके शेष छह पथिवियों में उत्पन्न होनेके निमित्त नहीं पाये जाते हैं। ४. कर्मस्कन्धों की बहुलताको उसके लिए वहाँ उत्पन्न होनेका निमित्त नहीं कहा जा सकता; क्योकि, क्षपितकर्माशिकोंकी भी नरकमें उत्पत्ति देखी जाती है। ५ कर्मस्कन्धोंको अल्पता भी उसके लिए वहाँ उत्पन्न होनेका निमित्त नहीं है, क्योकि, गुणितकमाशिकोकी भी वहाँ उत्पत्ति देखी जाती है। ६. नरक गति नामकर्मका सत्त्व भी उसके लिए वहाँ उत्पत्तिका निमित्त नहीं है; क्योंकि नरकगतिके सत्त्वके प्रति कोई विशेषता न होनेसे सभी पंचेन्द्रिय जीवोंको नरकगतिकी प्राप्तिका प्रसंग आ जायेगा। तथा नित्य निगोदिया जीवोंके भी त्रसकर्म की सत्ता रहनेके कारण उनकी त्रसोंमें उत्पत्ति होने लगेगी। ७. अशुभ लेश्या का सत्त्व भी उसके लिए वहाँ उत्पन्न होनेका निमित्त नहीं कहा जा सकता; क्योंकि, मरण समय असंयत सम्यग्दृष्टि जीवके नीचेकी छह पथिवियोमें उत्पत्तिकी कारण रूप अशुभ लेश्याएँ नहीं पायी जातीं । ८. नरकायुका सत्व भी उसके लिए वहाँ उत्पत्तिका कारण नहीं है क्योंकि, सम्यग्दर्शन रूपी खड्गसे नीचेकी छह पृथिवी सम्बन्धी आयु काट दी जाती है। और वह आयुका कटना असिद्ध भी नहीं है; क्योंकि, आगमसे इसकी पुष्टि होती है। इसलिए यह सिद्ध हुआ कि नीचेकी छह पथिवियों में सम्यग्दृष्टि जीव उत्पन्न नहीं होता।
९. उपरके गुणस्थान यहाँ क्यों नहीं होते ति. प./२/२७४-२७५ ताण य पच्चक्वाणावरणोदयसहिदसव्वजीवाणं । हिंसाणं दजुदाणं णाणाविहसंकिलेसपउराणं ।२७४। देसविरदादिउवरिमदसगुणठाणाण हेदुभूदाओ। जाओ विसोधियाओ कइया विण ताओ जायंति ।२७५॥ - अप्रत्याख्यानावरण कषायके उदयसे सहित, हिंसामें आनन्द माननेवाले और नाना प्रकारके प्रचुर दु.खोंसे संयुक्त उन सब नारकी जीवोके देशविरत आदिक उपरितन दश गुणस्थानोंके हेतुभूत जो विशुद्ध परिणाम हैं, वे कदाचित भी नहीं होते है १२७४ २७५॥ ध.१/१,१,२५/२०७/३ नोपरिमगुणानां तत्र संभवस्तेषां संयमासंयमसंयमपर्यायेण सह विरोधात। -इन चार गुणस्थानों (१-४ तक) के अतिरिक्त ऊपरके गुणस्थानोका नरकमें सद्भाव नहीं है, क्योंकि, सयमासंयम, और संयम पर्यायके साथ नरकगतिमें उत्पत्ति होनेका विरोध है। ५. नरक लोक निदश
१. नरककी सात पृथिवियों के नाम निर्देश त. सू./३/१ रत्नशर्कराबालुकापड्डधूमतमोमहातमःप्रभाभूमयो घनाम्बुवाताकाशप्रतिष्ठाः सप्ताधोऽध ।। - रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा, बालुकाप्रभा, पंकप्रभा, धूमप्रभा, तमःप्रभा, और महातमःप्रभा, ये सात भूमियाँ धनाम्बुवात अर्थात् घनोदधि वात और आकाशके सहारे स्थित हैं तथाक्रमसेनीचेनीचे हैं।(ति.प./१/१५२) (ह. पू./४/४३-४५); (म. पु./१०/३१); (त्रि. सा./१४४); (ज. प./११/११३ ) । ति.प./२/१५३ धम्मावंसामेघाअंजणरिट्ठाण उब्भमघवीओ। माषविया
इय ताणं पुढवीणं गोत्तणामाणि ।१५३। इन पृथिवियोंके अपर रूढि नाम क्रमसे धर्मा, वंशा, मेघा, अंजना, अरिष्टा, मघवी और माधवी भी हैं ।४६। (ह. पु./४/४६); (म. पु/१०/३२ ); (ज. प./११/ १११-११२); (त्रि. सा./१४५) ।
३. पटलों व बिलोंका सामान्य परिचय ति. प./२/२८,३६ सत्तमखिदिबहुमझे बिलाणि सेसेसु अप्पबहुलं तं ।
उर्वरि हेठे जोयणसहस्समुझिय हवं ति पडलकमे ।२८। इदयसेढी बदा पइण्णया य हवं ति तिवियप्पा। ते सव्वे णिरयबिला दारुण दुक्रवाण संजणणा।३६ = सातवीं पृथिवीके तो ठीक मध्यभागमें ही नारकियोके बिल हैं। परन्तु उपर अब्बालभाग पर्यन्त शेष छह पथि वियोमें नीचे व ऊपर एक-एक हजार योजन छोडकर पटलोंके क्रमसे नारकियोके बिल हैं ।२८। वे नारकियोके बिल, इन्द्रक, श्रेणी बद्ध और प्रकीर्ण कके भेदसे तीन प्रकारके है। ये सब ही बिल नारकियोंको भयानक दु.ख दिया करते हैं ।३६। (रा. बा./३/२/२) १६२/१०), (ह.पु./१/७१-७२), (त्रि.सा./१५०), (ज. प./११/१४२) । ध. १४/५.६.६४१/४६५/८ णिरयसेडिबाद्धणि णिरयाणि णाम । सेडिबद्धाणं
मज्झिमणिरयावासा णिरइंदयाणि णाम । तत्थतणपइण्णया णिरयपत्थडाणि णाम । = नरकके श्रेणीबद्ध नरक कहलाते है, श्रेणीबद्धोंके मध्यमें जो नरकवास हैं वे नरकेन्द्रक कहलाते हैं। तथा वहाँके
प्रकीर्ण क नरक प्रस्तर कहलाते हैं। ति. प./२/६५, १०४ संखेज्जमिदयार्ण रु'दं सेढिगदाण जोयणया। त होदि असंखेज्जं पइण्णयाणुभयमिस्सं च ।१५। संखेज्जवासजुत्ते णिरय-विले होति णारया जीवा। संखेज्जा णियमेणं इदरम्मि तहा असंखेज्जा ।१०४। - इन्द्रक बिलोंका विस्तार संरख्यात योजन, श्रेणीबद्ध बिलोंका असंख्यात योजन और प्रकीर्णक जिलोंका विस्तार उभयमिश्र हैं, अर्थात कुछका संख्यात और कुछका असंख्यात योजन है।५। संख्यात योजनवाले नरक बिलोमे नियमसे संख्यात नारकी जीव तथा असंख्यात योजन विस्तारवाले बिलोंमे असंख्यात ही नारकी जीव होते हैं ।१०४। (रा. वा./३/२/२/१६३/११); (ह. पु./४/ १६६-१७०): (त्रि. सा./१६७-१६८)। त्रि. सा./१७७ वज्जघणभित्तिभागा बट्टतिचउरंसबहुविहायारा। णिरया
सयावि भरिया सव्वि दियदुवखदाई हि । - यज्र सदृश भोतसे युक्त
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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