Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 2
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 593
________________ ५८५ अपेक्षा न करके किसीका भी 'इन्द्र' नाम रख देना नाम निक्षेप है । (खोला २/९/२/ १-१०/१६६) (गो. ५२/३२) (तसा / १/१०) नाममाला २ नाम निक्षेपके भेद " खं. १३/५,३/ सूत्र ६/८ जो सो णामफासो णाम सो जीवस्स वा अजीवस्वा जोवाणं वा अजीवाणं वा जोवस्स च अजीवस्स च जीवस्स च अजीवाणं च जीवाणं च अजीवस्स च जीवाणं च अजीवाण च जम्स णाम कीरदि फार्मेत्ति सो सव्वो णामफासो णाम । = - जो वह नाम स्पर्श है वह एक जीव, एक अजीव, नाना जीव, नाना अजीव एक जीव एक अजीव एक जीव नाना अजीव, नाना जीव एक अजीव, तथा नाना जीव नाना अजीव; इनमेंसे जिसका 'स्पर्श' ऐसा नाम किया जाता है वह सब नाम स्पर्श है। नोट - ( यहाँ स्पर्शका प्रकरण होनेमे 'स्पर्श' पर लागू कर नाम निक्षेपके भेद किये गये हैं। पु. में 'कृति' पर लागू करके भेद किये गये है। इसी प्रकार अन्यत्र भी जान लेना । धवला में सर्वत्र प्रत्येक विषयमे इस प्रार निक्षेप किये गये है ।) (ष. खं. ६/४.१ / सू. ५१ / २४६), (ध. १५ / २ / ४) । ३. अन्य सम्बन्धित विषय २. नाम निक्षेप शब्दस्पर्शी है। २. नाम निक्षेपका नयोंमें अन्तर्भाव । ३ नाम निक्षेप व स्थापना निक्षेपमें अन्तर । नाममाला बर्षादको शब्दकोश' । नाम सत्य — दे० सत्य । नाम सम० निक्षेप // नारकी - दे० नरक / १ नारद - १ प्रत्येक कल्पकालके नौ नारदोका निर्देश व नारदकी उत्पत्ति स्वभाव आदि - (दे० शलाकापुरुष / ७) । २. भावी कालीन २१ वे 'जय' तथा २२ वे 'विमल' नामक तीर्थकरोके पूर्व भवों के नाम- दे० तीर्थंकर / - दे० नय/1/५/३। - दे० निक्षेप / २.३ । -दे० निक्षेप /४ | - नासिंह जैनधर्म के अति एक यादव व होयसळवंशीय राजा थे। इनके मन्त्रीका नाम हुल्लराज था। ये विष्णुवर्द्धन प्रथमले उत्तराधिकारी थे और इनका भी उत्तराधिकारी बल्लाल देव था । समय - श. सं. २०५०-१०८५ (ई० ११२८-११६३) नाराच - दे० संहनन । नारायण ९. नव नारायण परिचय दे० शलाकापुरुष / ४ । २. लक्ष्मणका अपर नाम -- दे० लक्ष्मण । नारायणमत दे० अज्ञानवाद | नारी-१, वीके अर्थ में ० स्त्री २ खण्ड भरत क्षेत्रकी एक नदी - दे० मनुष्य / ४ । ३. रम्यकक्षेत्रकी एक ग्रधान नदी -दे० लोक / ३ / ११ । ४, रम्यक क्षेत्रस्थ एक कुण्ड जिसमें से नारी नदी निकलती है- दे० लोक/३/१० । ५-उपरोक्त कुण्डकी स्वामिनी देवी - दे० लोक / ३ / १० / भा० २०७४ नारोकूट - रा. वा. की अपेक्षा रुक्मि पर्वतका कूट है और ति प. की अपेक्षा नील पर्वतका कूट है। दे० लोक/५/ नालिका पूर्वी खण्डको एक नदी दे० मनुष्य /४ नाली - क्षेत्र व कालका प्रमाण विशेष । दे० गणित //१/४ | 1 Jain Education International नि.कांक्षित नासारिक - भरतक्षेत्र पश्चिमी आर्यखण्डका एक देश - दे० मनुष्य / ४ । नास्तिक बाद ० चाक मौ व नास्तिक्यसि.वि./मू./४/१२/२७१ तत्रेति द्वेधा नास्तिक्यं प्रज्ञासत् प्रज्ञप्तिसत् । तथादृष्टमदृष्टं वा तत्त्वमित्यात्मविद्विषाम् । नास्तिव्य दो प्रकारका है - प्रज्ञासत् व प्रज्ञप्तिसत्, अर्थात् बाह्य व आध्यात्मिक । बाह्यमें दृष्ट घट स्तम्भादि ही सत् है, इनसे अतिरिक्त जीव अजीवादि तत्त्व कुछ नहीं है, ऐसी मान्यतावाले चार्वाक प्रज्ञासत नास्तिक है । अन्तरंगमें प्रतिभासित संवित्ति या ज्ञानप्रकाश ही सत् है, उससे अतिरिक्त बाह्यके घट स्तम्भ आदि पदार्थ अथवा जीब अजीव आदि तत्व कुछ नहीं है. ऐसी मान्यतावाले सौगत (मोड) प्राप्ति सव नास्तिक है। नास्तित्व नय- दे०/५ - नास्तित्व भंग - दे० सप्तभंगी / ४ । नास्तित्व स्वभाव आ. प./६ परस्वरूपेणाभावान्नास्तिस्वभाव' । - पर स्वरूपसे अभाव होना सो नास्तित्व स्वभाव है। जेसे-घट पटस्वभावी नहीं है । 52 - अन्यका अन्यरूपसे न , न च वृ./६१ असंततच्चा हु अण्णमण्णेण । होना ही असत् स्वभाव है। निकषाय-कालीन १८ अ नाम मिनभ दे० तीर्थंकर/२ 1 निःकांक्षित - १ निःकांक्षित गुणका लक्षण १ व्यवहार लक्षण म. सा./२२० जो करेदि के कम्मम्मे सो freita | चेदा सम्मादिट्ठी मुणेयव्वो । २३०1- जो चेतयिता कर्मो के फलोके प्रति तथा (बौद्ध, चार्वाक, परिवाजक आदि अन्य (दे० नीचे के उद्धरण) सर्व धर्मोके प्रति कांक्षा नही करता है, उसको निष्कास सम्यष्टि कहते है। मू. आ./२४६-२५१ तिविहा य होइ करवा इह परलोए तथा कुधम्मे य । तिविहं पिजो ण कुज्जा दंसणसुद्रीमुपगदो सो । २४६१ बलदेव चक्कनट्टीसेट्ठीरायणादि अपिलमा साभिमादी सो 1२५०१ रत्तवडचरगताव सपरिवत्तादीण मण्णतित्थीणं धम्मा य अहिलासो कुधम्मकंवा हवदि एसा । २५११ = अभिलाषा तीन प्रकारकी होती है - इस लोक संबन्धी, परलोक सम्बन्धो, और कुधर्मो सम्बन्धी । जो ये तीनों ही अभिलाषा नहीं करता वह सम्यग्दर्शनकी शुद्धिको पाता है । २४६| इस लोक में बसवेष चक्रवर्ती सेठ आदि बनने या राज्य पानेकी अभिलाषा इस लोक सम्बन्धी अभिलाश है । परलोक में देव आदि होनेकी प्रार्थना करना परलोक सम्बन्धी अभिलाषा है। ये दोनों हो दर्शनको घातनेवाली है | २५०१ रक्तपट अर्थात मोचा, तापस, परिवाजक आदि अन्य धर्मवाली के धर्म मे अभिलाषा करना सी धमक है ।२४९ (१. था. १२) (रा.वा./३/२४/१/५२६/६ ) ( चा. सा/२/५) (पू. सि. उ. २४ ) ( प ध . /उ. / ५४७ ) का. अ./मू./४१६ जो सग्गसुहणिमित्तं धम्मं णायरदि दूसहतवेहि । मोक्खं समीहमाणो णिक्करखा जायदे तस्स |४१६ | = दुर्धर तपके द्वारा मोक्षकी इच्छा करता हुआ जो प्राणी स्वर्गसुखके लिए धर्मका आच रण नही करता है उसके निकांक्षित गुण होता है। ( अर्थात् सम्यदृष्टि मोक्षकी इच्छा तपादि अनुष्ठान करता है न कि इन्द्रियोंके भोगोंकी इच्या) (पं.../५४०) । जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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