Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 2
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 585
________________ नरक ५७७ ५. नरकलोक निर्देश (मिट्टी) है, उसकी गन्धसे यहाँपर एक कोसके भीतर स्थित जीव मर सकते है। इसके आगे शेष द्वितीयादि पृथिवियोमे इसकी घातक शक्ति, आधा-आधा कोस और भी बढ़ती गयी है ।३४६। (ह पु./४/३४२): (त्रि.सा./१६२-१९३) ! ३. नारकियोंके शरीरकी दुर्गन्धि म. पु/१०/१०० श्वमार्जारखरोष्ट्रादिकुणपानां समाहृतौ। यद्वैगन्ध्यं तदप्येषां देहगन्धस्य नोपमा।१००। =कुत्ता, बिलाव, गधा, ऊँट, आदि जीवोंके मृत कलेवरोंको इकट्ठा करनेसे जो दुर्गन्ध उत्पन्न होती है, वह भी इन नारकियोके शरीरकी दुर्गन्धकी बराबरी नहीं कर सकती।१०० और गोल, तिकोने अथवा चौकोर आदि विविध आकारवाले, वे नरक बिल, सब इन्द्रियोंको दुखदायक, ऐसी सामग्रीसे पूर्ण हैं। ४. बिलों में स्थित जन्मभूमियोंका परिचय ति. प./२/३०२-३१२ का सारार्थ-१. इन्द्रक, श्रेणीबद्ध और प्रकीर्णक बिलोंके ऊपर अनेक प्रकारको तलवारोंसे युक्त, अर्धवृत्त और अधोमुखवालो जन्मभूमियाँ हैं। वे जन्मभूमियाँ धर्मा (प्रथम) को आदि लेकर तीसरी पथिवी तक उष्ट्रिका, कोथली, कुम्भी, मुद्गलिका, मुद्गर, मृदंग, और नालिके सदृश हैं ।३०२-३०३। 'चतुर्थ व पंचम पृथिवीमें जन्मभूमियोंका आकार गाय, हाथी, घोडा, भस्त्रा, अन्जपुट, अम्बरोष और द्रोणी जैसा है ।३०४। छठी और सातवीं पथिवीकी जन्मभूमियाँ झालर (वाद्यविशेष), भल्लक (पात्रविशेष), पात्री, केयूर, मसूर, शानक, किलिज (तृणकी बनी बड़ी टोकरी). ध्वज, द्वीपी, चक्रवाक, शृगाल, अज. रखर, करभ, संदोलक (झूला), और रीछके सदृश हैं। ये जन्मभूमियाँ दुष्प्रेक्ष्य एवं महा भयानक हैं ।३०५-३०६। उपर्युक्त नारकियों की जन्मभूमियाँ अन्तमें करोंतके सदृश, चारों तरफसे गोल, मज्जवमयी (1) और भयंकर हैं । ३०७१ (रा. वा./३/२/२/१६३/१६); (ह पु/४/३४७-३४६); (त्रि.सा./१८०)। २. उपर्युक्त जन्मभूमियोंका विस्तार जघन्य रूपसे ५ कोस, उत्कृष्ट रूपमे ४०० कोस, और मध्यम रूपसे १०-१५ कोस है ।३०।। जन्मभूमियोंको ऊँचाई अपने-अपने विस्तारकी अपेक्षा पाँचगुणी है। ।३१०१ ( ह. पु./४/३५१)। (और भी देनीचे ह.पु. व त्रि, सा.)। ३. ये जन्मभूमियाँ ७.३,२१ और ५ कोणवाली हैं।३१०। जन्मभूमियोंमें १,२,३.५ और ७ द्वार---कोण और इतने ही दरवाजे होते हैं । इस प्रकारकी व्यवस्था केवल श्रेणीबद्ध और प्रकीर्णक बिलोंमें ही है 1३११॥ इन्द्रक बिलों में ये जन्मभूमियाँ तीन द्वार और तीन कोनोंसे युक्त हैं । (ह. पु./४/३५२) ह.पू./४/३५० एकद्वित्रिकगव्यूतियोजनव्याससङ्गताः शतयोजनविस्ती स्तेिषूत्कृष्टास्तु वर्णिताः । ३५०वे जन्मस्थान एक कोश, दो कोश, तीन कोश और एक योजन विस्तारसे सहित हैं। उनमें जो उत्कृष्ट स्थान हैं, वे सौ योजन तक चौड़े कहे गये हैं ।३५०। त्रि.सा./१८० इगिवित्तिकोसो वासो जोयणमिव जोयणं सयं जेछ। उट्ठादीणं बहलं सगवित्थारेहिं पंचगुणं १८०1 -एक कोश, दो कोश, तीन कोश, एक योजन, दो योजन, तीन योजन और १०० योजन, इतना धर्मादि सात पृथिवियोमें स्थित उष्ट्रादि आकारवाले उपपादस्थानोंको क्रमसे चौडाईका प्रमाण है ।१८०। और बाहत्य अपने विस्तारसे पाँच गुणा है। ५. नरक भूमियों में दुर्गन्धि निर्देश १. बिलोंमें दुर्गन्धि ति. प./२/३४ अजगजमहिसतुरंगमखरोट्ठमर्जारअहिणरादीणं । कुधि दाणं गंधेहि णिरयबिला ते अणंतगुणा ॥३४॥ =बकरी, हाथी, भैंस, घोड़ा, गधा, ऊँट, बिल्ली, सर्प और मनुष्यादिकके सड़े हुए शरीरोंके गन्धकी अपेक्षा वे नारकियोंके बिल अनन्तगुणी दुर्गन्धसे युक्त होते हैं ।३४ (ति.प./२/३०८); (त्रि.सा./१७८) । २. आहार या मिट्टीकी दुर्गन्धि ति. प./२/३४४-३४६ अजगजमहिसतुरंगमरवरो ठमर्जारमेसपहुदीणं । कुथिताणं गंधादो अणं तगंधो हुवेदि आहारो ।३४४। घम्माए आहारो कोसस्सन्भतरम्मि ठिदजीवे। इह मारदि गधेणं सेसे कोसद्धवड्ढिया सत्ति । ३४६ । = नरकोंमें बकरी, हाथी, भैंस, घोडा, गधा, ऊँट, बिल्ली और मैढे आदिके सड़े हुए शरीरकी गन्धसे अनन्तगुणी दुर्गन्धवालो (मिट्टोका) आहार होता है ।३४४। धर्मा पृथिवीमें जो आहार १. नरक बिलोंमें अन्धकार व भयंकरता ति. प /२/गा. नं. कक्रवकवच्छुरीदो खइरिगालातितिक्रवसूईए। कुंजरचिक्कारादो णिरयाबिला दारुणा तमसहावा १३५॥ होरा तिमिरजुत्ता ।१०२। दुक्ख णिज्जामहामोरा ।३०६। णारयजम्मणभूमीओ भीमा य १३०७। णिच्चंधयारबहुला कत्थुरिहंतो अणंतगुणो ।३१२। -स्वभावत. अन्धकारसे परिपूर्ण ये नारकियोंके बिल कक्षक (क्रकच), कृपाण, छुरिका, खदिर ( स्वैर ) की आग, अति तीक्ष्ण सूई और हाथियोंकी चिक्कारसे अत्यन्त भयानक हैं ।३५॥ ये सब बिल अहोरात्र अन्धकारसे व्याप्त है ।१०२। उक्त सभी जन्मभूमियाँ दुष्प्रेक्ष एवं महा भयानक हैं और भयंकर है।३०६-३०७। ये सभी जन्मभूमियाँ नित्य हो कस्तुरीसे अनन्तगुणित काले अन्धकारसे व्याप्त हैं ।३१२।। त्रि.सा/१८६-१८७,१६१ वेदालगिरि भीमा जंतसुयक्कडगुहा य पडिमाओ। लोहणिहग्गिकणड्ढा परसूकुरिगासिपत्तवर्ण १८६। कूडासामलिरुक्रवा वइदरणिणदीउ खारजलपुण्णा । पुहरुहिरा दुगंधा हदा य किमिकोडिकुलकलिदा १८७४ विच्छियसहस्सवेयणसमधियदुवं धरित्तिफासादो १६१वेताल सदृश आकृतिवाले महाभयानक तो वहाँ पर्वत हैं और सैकड़ों दुखदायक यन्त्रोंसे उत्कट ऐसी गुफाएँ हैं। प्रतिमाएँ अर्थात स्त्रीकी आकृतियाँ व पुतलियाँ अग्निकणिकासे संयुक्त लोहमयी हैं । असिपत्र वन है, सो फरसी, री, खड्ग इत्यादि शस्त्र समान यन्त्रोंकर युक्त है ।१८६। वहाँ झूठे (मायामयी ) शाल्मली वृक्ष है जो महादुःखदायक हैं। बेतरणी नामा नदी है सो खारा जलकर सम्पूर्ण भरी है। घिनावने रुधिरवाले महा दुर्गन्धित द्रह हैं जो कोडों, कृमिकुलसे व्याप्त है ।१८७१ हजारों बिच्छू काटनेसे जैसी यहाँ वेदना होती है उससे भी अधिक वेदना वहाँको भूमिके स्पर्श मात्रसे होती है ।१६१ ७. नरकों में शीत-उष्णताका निर्देश १. पृथिवियोंमें शीत-उष्ण विभाग ति. प/२/२६-३१ पढमादिबितिचउक्के पचमपुरवाए तिचउक्कभागतं । अदिउण्हा णिरयबिला तट्ठियजीवाण तिब्बदाधकरा ।२६। पंचमिखिदिए तुरिमे भागे छट्टीय सत्तमे महिए। अदिसीदा णिरयबिला तदिजीबाण घोरसीदयरा ।३०। बासीदि लक्खाण उण्हभिला पंचवीसिदिसहस्सा । पणहत्तरं सहस्सा अदिसीदबिलाणि इगिलक्खं १३१४ -- पहली पृथिवीसे लेकर पाँचवीं पृथिवीके तीन चौथाई भागमें स्थित नारकियोंके बिल, अत्यन्त उष्ण होनेसे वहाँ रहनेवाले जीवोंको तीव्र गर्मीकी पीडा पहुँचानेवाले हैं।२६। पाँचवीं पुथिवीके अवशिष्ट चतुर्थ भागमें तथा छठी, सातवी पुथिवीमें स्थित नारकियों के बिल. अत्यन्त शीत होनेसे वहाँ रहनेवाले जीवोंको भयानक शीतकी वेदना करनेवाले हैं।३०। नारकियोंके उपर्युक्त चौरासी लाख बिलोंमें-से बयासी लाख पच्चीस हजार बिल उष्ण और एक लाख पचहत्तर हजार बिल अत्यन्त शीत है।३१। (ध.७/२,७,७८/गा.१] जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश भा०२-७३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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