Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 2
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 576
________________ नय ५६८ V निश्चय व्यवहार नय ऐसा भ्रमरूप प्रवर्त नेकरि तौ दोऊ नयनिका ग्रहण करना कह्या नाहीं । (प्र. ३६६/१४ )। नीवली दशाविर्षे आपको भी व्यवहारनय कार्यकारी है। परन्तु व्यवहारको उपचारमात्र मानि बाकै द्वार वस्तुका प्रदान ठीक कर र्ती कार्यकारी होय । बहुरि जो निश्चयवत् व्यवहारे भी सत्यभूत मानि 'वस्तु ऐसे ही है' ऐसा श्रद्धान कर तो उलटा अकार्यकारी हो जाय । (पृ.३७२/8) तथा (और भी दे० नय/V//३)। का. अ./4. जयचन्द/४६४ निश्चयके लिए तो व्यवहार भी सत्यार्थ है और बिना निश्चयके व्यवहार सारहीन है। (का. अ./पं.जय चन्द/४६७)। ३० ज्ञान/IV/३/१ (निश्चय व व्यवहार ज्ञान द्वारा हेयोपादेयका निर्णय करके. करके, शुद्धात्मस्वभावकी ओर झुकना ही प्रयोजनीय है।) (और भी दे०जीव, अजीव, आस्रव आदि तत्त्व व विषय) (सर्वत्र यही कहा गया है कि व्यवहारनय द्वारा बताये गये भेदों या संयोगोंको हेय करके मात्र शुद्वात्मतत्त्वमे स्थित होना ही उस तत्त्वको जाननेका भावार्थ है।) नोट -(इसी प्रकार निश्चयनय साधकतम है, व्यवहारनय साधकतम नहीं है। निश्चयनय सम्यक्त्वका कारण है तथा व्यवहारनयके विषयका आश्रय करना मिथ्यात्व है। निश्चयनय उपादेय है और व्यवहारनय हेय है । ( नय/V३ व ६)। निश्चयनय अभेद विषयक है और व्यवहारमय भेद विषयका निश्चयनय स्वाति है और व्यवहारनय पर।निता (नय/ ब ४) निश्चयनय निविकल्प, एक वचनातीत, व उदाहरण राहत है तथा व्यवहारनय सविकल्प, अनेकों, वचनगोचर व उदाहरण सहित है ( नय/V/२/२.५। २ निश्चय मुख्य है और व्यवहार गीण न च /श्रुत/३२ तह द्वापि सामान्येन पूज्यतां गतौ। मह्येवं, व्यव- हारसय पूज्यतरत्या निश्चयस्य तु पूज्यतमत्वात् । प्रश्न-(यदि द.नो ही नयो के अवलम्बनसे परोक्षानुभूति तथा नयातिक्रान्त होनेपर पत्यक्षानुभूति होती है ) तो दोनो नय समानरूपसे पूज्यताको प्राप्त हा जायेगे। उत्तर-नही, क्योकि, वास्तवमें व्यवहारनय पूज्यतर है और निश्चयनय पूज्यतम । पंध/3./०६ तद् द्विधाय च वात्सल्यं भेदात्स्वपरगोचरात् । प्रधानं स्वारममबन्धि गुणो यावत परात्मनि ।०६। वह वात्सल्य अंग भी स्व और परके विषयके भेदसे दो प्रकारका है। उनमेंसे जो स्वारमा सम्बन्धी अर्थात् निश्चय वात्सल्य है वह प्रधान है और जो परात्मा सम्बन्धी अर्थात व्यबहार वात्सल्य है वह गौण है ।८०६। ३. निश्चयनय साध्य है और व्यवहारनय साधक द्र में /टो./१३/३३/इनिजपरमात्मद्रव्यमुपादेयम् परद्रव्यं हि हेयमित्यहत्सर्वज्ञप्रणात निश्चयव्यवहारनयसाध्यसाधकभावेन मन्यते । - परमात्मद्रव्य उपादेय है और परद्रव्य त्याज्य है, इस तरह सर्वज्ञदेव नणीत निश्चय व्यवहारनयको साध्यसाधक भावसे मानता है। (दे. नय/V/७/४)। ४. व्यवहार प्रतिषेध्य है और निश्चय प्रतिषेधक स, सा/मू./२७२ एवं बबहारण ओ पडिसिद्धो जाण णिच्छयणयेण । - इस प्रकार व्यवहारनयको निश्चयनयके द्वारा प्रतिषिद्ध जान। ( पंध/पू /५६८,६२५.६४३) । दे. स. मा/आ/१४२/क,७०-८६ का सारार्थ (एक नयकी अपेक्षा जीवबद्ध है तो दूसरेकी अपेक्षा वह अबद्ध है, इत्यादि २० उदाहरणों द्वारा दोनों नयो का परस्पर विरोध दर्शाया गया है)। ३. दोनों में मुख्य गौण व्यवस्थाका प्रयोजन प्र. सा./त.प्र./१६१ यो हि नाम स्वविषयमात्रप्रवृत्ताशुद्धद्रव्यनिरूपणास्मकव्यवहारनयाविरोधमध्यस्थः शुद्धद्रव्यनिरूपणात्मकनिश्चयापहस्तितमोह सन् स खलु शुद्धारमा स्यात् । -जो आत्मा मात्र अपने विषयमें प्रवर्तमान ऐसे अशुद्धद्रव्यके निरूपणस्वरूप व्यवहारनयमे अविरोधरूपसे मध्यस्थ रहकर, शुद्धद्रव्य के निरूपणस्वरूप निश्चयनयके द्वारा, जिसने मोहको दूर किया है, ऐसा होता हुआ ( एकमात्र आत्मामे चित्तको एकाग्र करता है) वह वास्तवमें शुद्धात्मा होता है। दे० नग/V/८/३ (निश्चय निरपेक्ष व्यवहारका अनुसरण मिथ्यात्व है।) मो. मा प्र./७/पृष्ठ/पंक्ति जिनमार्ग विषै कहीं तो निश्चयकी मुख्यता लिये व्याख्यान है, ताकौ तो 'सत्यार्थ ऐसे ही है' ऐसा जानना । बहुरि कही व्यवहार नयकी मुख्यता लिये व्याख्यान है, ताकी, 'ऐसे हैं नाही, निमित्तादि अपेक्षा उपचार किया है। ऐसा जानना। इस प्रकार जाननेका नाम ही दोनो नयोका ग्रहण है। महरि दोऊ नयनिके व्याख्यानको सत्यार्थ जानि 'ऐसे भी है और ऐसे भी है' ४. दोनोंमें साध्य-साधनमावका प्रयोजन दोनोंकी परस्पर सापेक्षता न. च./श्रुत/५३ वस्तुत' स्याद्भेदः करमान्न कृत इति नाशङ्कनीयम् । यतो न तेन साध्यसाधकयोरविनाभावित्वं । तद्यथा-निश्चयाविरोधेन व्यवहारस्य सम्यग्व्यवहारेण सिद्धस्य निश्चयस्य च परमार्थत्वादिति । परमार्थ मुग्धानां व्यवहारिणो व्यवहारमुग्धानी निश्चयवादिनी उभयमुग्धानामुभयबादिनामनुभयमुग्धानामनुभयवादिनां मोहनिरासार्थ निश्चयव्यवहाराभ्यामालिङ्गित कृत्वा वस्तु निर्णेयं । एव हि कथंचिभेदपरस्पराविनाभाबित्वेन निश्चयव्यवहारयोरनाकुला सिद्धि.। अन्यथाभास एव स्यात् । तस्माइव्यवहार प्रसिद्धयैव निश्चयप्रसिद्धिन्यिथेति, सम्यग्द्रव्यागमप्रसाधिततत्त्वसेवया व्यवहाररत्नत्रयस्य सम्यग्रूपेण सिद्धत्वात । प्रश्न-वस्तुतः ही इन दोनो नयोका कथंचित भेद क्यो नहीं किया गया। उत्तर-ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिए। क्योंकि वैसा करनेसे उनमें परस्पर साध्यसाधक भाव नहीं रहता। वह ऐसे कि-निश्चयसे अविरोधी व्यवहारको तथा समीचीन व्यवहार द्वारा सिद्ध किये गये निश्चयको ही परमार्थ पना है। इस प्रकार परमार्थसे मूढ केवल व्यवहारावलम्बियोंके, अथवा व्यवहारसे मूह केवल निश्चयावलम्बियोंके, अथवा दोनोंकी परस्पर सापेक्षतारूप उभयसे मूढ निश्चयव्यवहारावलम्बियोंके, अथवा दोनों नयोंका सर्वथा निषेध करनेरूप अनुभयमूढ अनुभयावलम्बियों के मोहको दूर करनेके लिए, निश्चय व व्यवहार दोनों नयोसे आलिगित करके ही वस्तुका निर्णय करना चाहिए। इस प्रकार कथंचित् भेद रहते हुए भी परस्पर अविनाभावरूपसे निश्चय और व्यवहारको अनाकुल सिद्धि होती है। अन्यथा अर्थात एक दूसरेसे निरपेक्ष वे दोनों ही नयाभास होकर रह जायेगे। इसलिए व्यवहारकी प्रसिद्धिसे ही निश्चयकी प्रसिद्धि है, अन्यथा नहीं। क्योकि समीचीन द्रव्यागमके द्वारा तत्त्वका सेवन करके ही समीचीन रत्नत्रयकी सिद्धि होती है। (पं.ध./ न. च. वृ./२८५-२६२ णो ववहारो मग्गो मोहो हवदि महामहमिदि वयणं । उक्तं चान्यत्र, णियदव्वजाणहू इयरं कहियं जिणेहि छदव्वं । तम्हा परछदव्वे जाणगभावो ण होइ सण्णाणं ।-ण हु ऐसा सुंदरा जुत्ती। णियसमयं पि य मिच्छा अह जदु मुण्णो य तस्स सौ चेदा जाणगभावो मिच्छा उवयरिबी तेण सो भणई।२८॥ जं चिय जीवसहावं उवयारं भणिय तंपि ववहारो। तम्हा णहु जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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