Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 2
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 579
________________ नरक ९ ४ नारकियों में सम्भव नाव व गुणस्थान आदि १ सदा अशुभ परिणामोंसे युक्त रहते हैं । * वहाँ सम्भव वेद, लेश्या आदि । - दे० वह वह नाम । २-३ नरकगतिमें सम्यक्त्वों व गुणस्थानोंका स्वामित्व । ४ मिथ्यादृष्टिसे अन्यगुणस्थान वहाँ कैसे सम्भव है । वहीं सासादनकी सम्भावना कैसे है ? मरकर पुनः जी जानेवाले उनकी अपर्याप्तावस्थामें भी सासादन] व मिश्र कैसे नहीं मानते १ यहाँ सम्यग्दर्शन कैसे सम्भव है ? अशुभ श्यामें भी सम्यन्त्य कैसे उत्पन्न होता है। - दे० लेश्या / ४ | सम्यक्त्वादिकों सहित जन्ममरण सम्बन्धी नियम । - दे० जन्म / ६ | सासादन, मिश्र व सम्यग्दृष्टि मरकर नरकमें उत्पन्न नहीं होते। इसमें हेतु । कम्परके गुणस्थान यहाँ क्यों नहीं होते। ५ ६ ८ ९ ५ १ २ ३ ४ ५ * on * नारकियको पृथक् विक्रिया नहीं होती । -दे० ८ /१ छह पृथिवियों आयुरूप विक्रिया होती है और सातवी की रूप। वहाँ जल अग्नि आदि जीवोंका भी अस्तित्व है। - ३० काय/२/५ । ९ नरकलोक निर्देश नरककी सात पृथिवियोंके नाम निर्देश । अधोलोक सामान्य परिचय | रत्नप्रमा पृथिवी सरपंक भाग आदि रूप विभाग ६ नरकबिलों में अन्धकार व भयंकरता । ७ नरकोंमें शीत उष्णताका निर्देश । नरक पृथिवियोंमें बादर अप् तेज व वनस्पति कायिकों का अस्तित्व । साठों पृथिवियोंका सामान्य अवस्थान सातों पृथिवियोंकी मोटाई व बिलों आदिका प्रमाण । सातों पृथिवियोंके बिलोंका विस्तार । - दे० १० रत्नप्रभा । पटलों व विठोंका सामान्य परिचय । बिलोंमें स्थित जन्मभूमियोंका परिचय | नरक भूमियोंमें मिट्टी, आहार व शरीर आदिकी दुर्गवियोंका निर्देश | Jain Education International - दे० काय /२/५ । दे० लोक /२ १० बिलोंमें परस्पर अन्तराल । ११ पटलोंके नाम व तहाँ स्थित बिलोंका परिचय । * नरकलोक नको। - दे० लोक /७ । ५७१ १. नरकगति सामान्य निर्देश ५. नरक सामान्यका लक्षण I रा.वा./२/५०/२-३/१६६ / १३ शीतोष्णास योदयापादितवेदनमा नराच कायन्तीति शब्दायन्त इति नारका । अथवा पापकृतः प्राणिन आत्यकिं दुःखं गृणन्ति नयन्तीति नारकाणि श्रणादिकः कर्तर्यक जो नरोको शीत. उष्ण आदि वेदनाओंसे शब्दाकुलित कर दे वह नरक है । अथवा पापी जीवोंको आत्यन्तिक दु.खोंको प्राप्त करानेवाले नरक हैं । १. नरकगति सामान्य निर्देश ध. १४/५, ६,६४१/४१५/- णिरयसे डिबद्धाणि णिरयाणि णाम । - नरकके श्रेणीबद्ध बिल नरक कहलाते है । २. नरकगति या नारकीका लक्षण " ति प./१/६० ण रमंति जदो णिच्चं दव्वे खेत्ते य काल भावे य । अण्णोष्णेहि य णिच्चं तम्हा ते णारया भणिया । ६० यतः तत्स्थानवर्ती द्रव्यमें क्षेत्रने, कालमें, और भावमें जो जीव रमते नहीं हैं, तथा परस्परमें भी जो कभी भी प्रीतिको प्राप्त नही होते हैं, अतaa नारक या नारकी कहे जाते है । (ध. १/१,१.२४ / गा. १२८/ २०२) (गो. जी /मू./१४० / ३६६ । रा.वा./२/५०/३/१३/६/९७ नरकेषु भवा नारका नरको जम्म सेनेवाले जीव नारक है गो जी. जी. ९४०३६६/९८)। घ. १/२१,१.२४/२०१६ हिसादिष्वसदनुष्ठानेषु व्यापृताः निरतास्तेषां गति निरतगतिः । अथवा नरान् प्राणिन. कायति पातयति खलीकरोति इति नरका कर्म तस्य नरकस्यापत्यानि नारकास्तेषां गतिर्नारिकगतिः । अथवा यस्या उदय. सकलाशुभकर्मणामुदयस्य सहकारिकारणं भवति सा नरकगतिः । अथवा द्रव्यक्षेत्रकालभावेष्वन्योन्येषु च विरता' नरता, तेषां गतिः नरतगतिः । = १. जो हिसादि असमीचीन कामोंमें व्यापृत हैं उन्हे निश्त बढ़ते है और उनकी गतिको निरस गति कहते हैं। २ अथवा जो नर अर्थात् प्राणियों को काता है अर्थात गिराता है, पोसता है, उसे नरक कहते है । नरक यह एक कर्म है । इससे जिनकी उत्पत्ति होती है उनको नारक कहते है, और उनकी गतिको नरकगति कहते हैं । ३. अथवा जिस गतिका उदय सम्पूर्ण अशुभ कर्मोंके उदयका सहकारीकारण है उसे नरकगति कहते हैं । ४. अथवा जो द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावमे तथा परस्परमे रत नहीं हैं, अर्थाव प्रीति नहीं रखते हैं, उन्हे भरत कहते है और उनकी गतिको नरतगति कहते हैं (गो. जी. जी. प्र. ९४०/२६६/१६) घ. १३/५,५,१४० / ३२/२ न रमन्त इति नारका । जो रमते नहीं हैं वे नारक कहलाते हैं । 1 गो. जी./जी. प्र./ १४७/३६६ / १६ यस्मात्कारणाद ये जीवाः नरकगतिसंवन्ध्यन्नपानादि तद्भूतरूपक्षेत्रे, समयादिस्वायुयानका चिपर्यायरूपभावे भवान्तरवे रोजमज्जनितकोधादिभ्योऽम्योः सह नूतनपुरातननारका परस्परं च न रमन्ते तस्मात्कारणात् ते जीवा नरता इति भणिताः । नरता एव नारताः ।... अथवा निर्गतोऽयः पुण्यं एयः ते निरयाः तेषां गति निरयगतिः इति व्युत्पत्तिभिरपि नारकगतिलक्षणं कथितं । क्योंकि जो जीव नरक सम्बन्धी अन्नपान आदि द्रव्यमें, तहाँको पृथिवीरूप क्षेत्र में, तिस गति सम्बन्धी प्रथम समयसे लगाकर अपना आयुपर्यन्त कालमें तथा जीनो चैतन्यरूप भावोंमें कभी भी रति नहीं मानते ५. और पूर्वक अन्य भय सम्बन्धी वैर के कारण इस भवमे उपजे क्रोधादिकके द्वारा नये व पुराने नारकी कभी भी परस्परमें नहीं रमते इसलिए उनको कभी भी प्रीति नहीं होनेसे वे 'नरत' कहलाते है। नरत को ही नारत जानना । तिनकी गतिको नारतगति जानना । ६. अथवा 'निर्गत' कहिये गया है 'जय' कहिये पुण्यकर्म जिनसे ऐसे जो निरय, निकी जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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