Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 2
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 568
________________ नय आ.प./५ सहभूतव्यवहारो द्विधा युद्धसङ्गभृतव्यवहारो... अशुद्धसत व्यवहारो | सद्भूत व्यवहारनय दो प्रकारको है -- शुद्ध सदभूत और अशुद्ध सद्भूत । (न. च / श्रुत/२१ ) । २. अनुपचारित या शुद्धसद्भूत निर्देश १. क्षायिक शुद्धकी अपेक्षा लक्षण व उदाहरण ५६० बा. प./१० निरुपाधिगुणगुणिनोर्भेदविषयोऽनुपचरितसद्भूतव्यवहारो यथा -- जीवस्य केवलज्ञानादयो गुणाः । निरुपाधि गुण व गुणीमें भेदको विषय करनेवाला अनुपचारित असद्भूत व्यवहार नय है। जैसे- केवलज्ञानादि जीवके गुण हैं (न.च./रा/२५)। आ. प . / ५ शुद्धसद्भूतव्यवहारो यथा - शुद्धगुणशुद्धगुणिनो, शुद्धपर्यायशुद्धपर्यायणोर्भेदकवनस्शुद्धगुण व शुद्धगुणीमें अपना शुद्धपर्याय पर्यासी भेदका कथन करना शुद्ध सहभूत व्यवहारनय है (न. // २१)। नि.सा./ता.वृ./१३ बन्या कार्यदृष्टिः क्षायिकजीवस्य समकेवलावबोधबुद्धभुवनत्रयस्थ ... साथ निधनामुद्रयस्वभानशुद्धसद्भूतव्यवहारन यात्मकस्य तीर्थंकर परमदेवस्य केवलज्ञानादियमपि युगपोकालोकव्यापिनी दूसरी कार्य सुरक्षाक जीवको जिसने कि सकल विमल केवलज्ञान द्वारा तीनभुवनको जाना है, जो सादि अनिधन अमूर्त अतीन्द्रिय स्वभाववाले शुद्धसत व्यवहार नयात्मक है, ऐसे तीर्थंकर परमदेवको केवलज्ञानकी भाँति यह भी युगपत् लोकालोकमे व्याप्त होनेवाली है। (नि. सा./ता. वृ./ ४३ ) । नि. सा./ता.वृ./६ शुद्धसद्भूतव्यवहारेण केवलज्ञानादि शुद्धगुणानामाधारभूतत्वात्कार्य शुद्धजीव - शुद्धसद्भूत व्यवहार से केवलज्ञानादि शुद्ध गुणों का आधार होनेके कारण 'कार्यशुद्ध जीव' है (प्र.सा./ता. []/ परि/ १६०/९४)। २. पारिणामिक शुद्धकी अपेक्षा लक्षण व उदाहरणा नि. सा./ता.वृ./२८ परमाणुपर्याय पुइगतस्य शुद्धपर्यायः परमपारनामिकभावलक्षणः वस्तुष्ट प्रकारहानिवृद्धिरूपः अतिसूक्ष्मः अर्थपर्यायात्मक सादिनिधनोऽपि परद्रव्यनिरपेक्षवासभूतउपहारनवात्मकः । - परमाणुपर्याय पुगलकी पर्याय है। जो कि परमपारिणामिकभाव स्वरूप है, वस्तुमें होनेवाली छह प्रकारकी हानिवृद्धि रूप है, अति सूक्ष्म है, अर्थ पर्यायात्मक है, और सादि सान्त होनेपर भी परद्रव्यसे निरपेक्ष होनेके कारण शुद्धसद्भूत व्यवहारयात्मक है । पं. घ. ५३५-३६ स्यादादिमो यथान्तवना था शक्तिरस्ति यस्य सतः । तत्तत्सामान्यतया निरूप्यते चेद्विशेष निरपेक्षम् १५३५॥ इदमत्रो - दाहरणं ज्ञानं जीवोपजीवि जीवगुणः । ज्ञेवालम्बनकाले न तथा शेयोपजीवि स्यात् ।११६। जिस पदार्थ की जो अन्तलीन (त्रिकाली) शक्ति है, उसके सामान्यपनेते यदि उस पदार्थ विशेषकी अपेक्षा न करके निरूपण किया जाता है तो वह अनुपचरित - सद्भूत व्यवहारनय कहलाता है | ५३५ | जैसे कि ज्ञान जीवका जीवोपजीवी गुण है । घटपट आदि ज्ञेयोंके अवलम्बन काल में भी वह ज्ञेयोपजीवी नहीं हो जाता। ( अर्थात् ज्ञानको ज्ञान कहना ही इस नयको स्वीकार है, घटज्ञान कहना नहीं । ५३६ । २. अनुपचारित व शुद्ध सद्भूत की एकाता द्र.सं./टी./६/१८/५ केवलज्ञानदर्शनं प्रति शुद्धसद्भूत शब्दवाच्योSनुपचरितसभूतव्यवहारः । यहाँ जीवका लक्षण कहते समय केवलज्ञान व केवलदर्शन के प्रति शुद्धसदभूत शब्द वाच्य अनुपचारित सद्भूत व्यवहार है । Jain Education International V निश्चय व्यवहार नव ४. इस नयके कारण व प्रयोजन घ../५३६ फलमास्तिष्यनिदानं सहमे वास्तवतीतिः स्यात् । भवति क्षणिकादिमते परमपेक्षा यतो विनामासात आस्तिक्य पूर्वक यथार्थ प्रतीतिका होना ही इस क्योंकि इस नयके द्वारा बिना किसी परिश्रम के उपेक्षा हो जाती है। सदरूप द्रव्यमें नयका फल है, क्षणिकादि मतोंमें ३. उपचरित या अशुद्ध सद्भूत निर्देश १. क्षायोपशमिक भावकी अपेक्षा लक्षण व उदाहरण आ. प./५ अशुद्धभूतव्यवहारो यथाशुद्धगुणाशुद्धगुणिनोरशुद्धपर्यायाशुद्धपर्यायणोर्भेदन अशुद्धगुण व अशुद्रगुणीने अथवा अशुधपर्याय न अशुद्धपर्यायीमें भेदका कथन करना अशुद्रसभूत व्यवहार नय है ( न च / श्रुत/२१) । आ. प./१० सोपाधिगुणगुणिनोर्भेदविषय उपचरितसद्भूतव्यवहारो यथा - जीवस्य मतिज्ञानादयो गुणाः । उपाधिसहित गुण व गुणीमें भेदको विषय करनेवाला उपचारित सहभूत व्यवहारमय है। जैसेमतिज्ञानादि जीव के गुण है। (न च.// २५) । नि.सा./ता.वृ./६ अशुद्धभूतव्यवहारेण मतिज्ञानादिविभावगुणानामाधारभूतत्वादखजीवः अशुद्धसहभूत व्यवहारसे मतिज्ञानादि विभावगुणों का आधार होनेके कारण 'अशुद्ध जीव' है । (प्र.सा./ ता.वृ./ परि./३६६/१) २. पारिणामिक भावमें उपचार करने की अपेक्षा लक्षण न उदाहरण पं. भ. पू./२४०-२४१ उपचरितो भूतो व्यवहारः स्यान्नयो मया नाम अविरुद्ध हेतुनापरतोऽयुपचर्यते यतस्व गुणः ४० अर्थविकल्पो ज्ञानं प्रमाणमिति लक्ष्यतेऽनापि यथा अर्थः स्वपरनिकायो भवति विकल्पस्तु चित्तदाकारम् ॥ ३४११ - किसी हेतु के यशसे अपने गुणका भी अविरोधपूर्वक दूसरेमें उपचार किया जाये, तहाँ उपचरित सद्भूत व्यवहारनय होता है । ६४०। जैसे - अर्थ विकल्पात्मक ज्ञानको प्रमाण कहना | यहाँ पर स्वव परके समुदायको अर्थ तथा ज्ञानके उस स्वव परमें व्यवसायको विकल्प कहते हैं । ( अर्थात् ज्ञान गुण तो वास्तव निर्विकल्प मात्र है, फिर भी यहाँ बाह्य अर्थोंका अवलम्बन लेकर उसे अर्थ विकल्पात्मक कहना उपचार है, परमार्थ नहीं ५४१० ३. उपचरित व अशुद्ध सद्भूतकी एकाता प्र.सं./टी./६/१०/६ अग्रस्थज्ञानदर्शनापरिपुर्णपेिक्षया पुनरसतशब्दवाच्य उपचरिवासभूतव्यवहार' । - छद्मस्थ जीवके ज्ञानदर्शनकी अपेक्षासे अशुद्धसद्भूत शब्दसे वाच्य उपचरित सद्भूत व्यवहार है 1 जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश For Private & Personal Use Only ४. इस नमके कारण व प्रयोजन पं. ध. / पू. / ५४४ - ५४५ हेतुः स्वरूपसिद्धि विना न परसिद्धिरप्रमाणत्वात् । तदपि च शक्तिविशेषाद्रव्यविशेषे यथा प्रमाणं स्वाद ॥५४४ वर्षो ज्ञे यज्ञायक करदोषश्रमक्षयो यदि या। अविनाभावात् सायं सामान्यं साधको विशेषः स्यात् । ५४५॥ स्वरूप सिद्धिके बिना परकी सिद्धि नहीं हो सकती, क्योंकि वह स्व निरपेक्ष पर अप्रमाणभूत है। तथा प्रमाण स्वयं भी स्वपर व्यवसायात्मक शक्तिविशेषके कारण द्रव्य विशेष विषयमें प्रवृत्त होता है, यही इस नयकी प्रवृत्ति में हेतु है १५४४ । ज्ञेय ज्ञायक भाव द्वारा सम्भव संकरदोषके भ्रमको दूर करना, तथा अविनाभावरूपसे स्थित वस्तुके सामान्य व विशेष अंशोंमें परस्पर साध्य साधनपनेकी सिद्धि करना इसका प्रयोजन www.jainelibrary.org

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