Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 2
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 570
________________ नय V निश्चय व्यवहार नय फलमागन्तुकभावा' स्वपरनिमित्ता भवन्ति यावन्त' । क्षणिकत्वान्नादेया इति बुद्धि. स्यादनात्मधर्मत्वात् ।।४८ - इस जयकी प्रवृत्तिमें कारण यह है कि उपयोगात्मक दशामें जीवकी वैभाविक शक्ति उसके साथ अनन्यमयरूपसे प्रतीत होती है ।५४ और इसका फल यह है कि क्षणिक होनेके कारण स्व-परनिमित्तक सर्व ही आगन्तुक भावों में जीवकी हेय बुद्धि हो जाती है ।५४८। ६. उपचरित असद्भत व्यवहार निर्देश १. भिन्न द्रव्योंमें अभेदको अपेक्षा लक्षण व उदाहरण आ. प./१० संश्लेषरहितवस्तुसंबन्धविषय उपचरितासभूतव्यवहारो यथा-देवदत्तस्य धनमिति ।-संश्लेष रहित वस्तुओंके सम्बन्धको विषय करनेवाला उपचरित असदभूत व्यवहारनय है। जैसे-देवदत्त का धन ऐसा कहना । (न. च./श्रुत/२५) । आ. प./५ असद्भूतव्यवहार एवोपचार' । उपचारादप्युपचारं य' करोति स उपचरितासभूतव्यवहार' =असहभूत व्यवहार ही उपचार है। उपचारका भी जो उपचार करता है वह उपचरित असत व्यवहारनय है । (न, च./श्रुत/२६) (विशेष दे. उपचार)। नि. साता, वृ./१८/उपचरितासभूतव्यवहारेण घटपटशकटादीनां कर्ता । = उपचरित असद्भूत व्यवहारनयसे आत्मा घट, पट, रथ आदिका क्र्ता है। (द्र.सं./टी./८/२१/५।। प्र. सा/ता. वृ./परि/३६४/१३ उपचरितासभूतव्यवहारनयेन काष्ठा सनाद्य पविष्टदेवदत्त वरसमवशरणस्थितवीतरागसर्व ज्ञवद्वा विवक्षितैकग्रामगृहादिस्थितम् । - उपचरित असद्भूत व्यवहारनयसे यह आत्मा, काष्ठ, आसन आदिपर मैठे हुए देवदत्तकी भाँति, अथवा समवशरण में स्थित वीतराग सर्वज्ञकी भाँति, विवक्षित किसी एक ग्राम या घर आदिमें स्थित है। द्र. सं./टी/१४/७/१० उपचरितासदभूतव्यवहारेण मोक्षशिलायां तिष्ठ- न्तीति भण्यते। द्र.सं./टी./8/२३/३ उपचरितासभूतव्यवहारेणेष्टानिष्टपञ्चेन्द्रियविषय- जनितसुखदुख भुडक्ते। द्र.सं./टी,/४५/१६६/११ योऽसौ बहिविषये पञ्चेन्द्रिय विषयादिपरित्याग' स उपचरितासभूतब्यवहारेण । - उपचरित असद्भूत व्यवहारनयसे सिद्ध जीव मोक्षशिलापर तिष्ठते है। जीव इष्टानिष्ट पंचेन्द्रियों के विषयोंसे उत्पन्न सुखदुखको भोगता है। बाह्यविषयों-पंचेन्द्रियके विषयोका त्याग कहना भी उपचरित असद्भुत व्यवहारनयसे है। २. विभाव भावोंकी अपेक्षा लक्षण व उदाहस्ण पं.ध./पू./५४६ उपचरितोऽसद्भूतो व्यवहाराव्यो नयः स भवति यथा। क्रोधाद्या' औदयिकाश्चेदबुद्धिजा विवक्ष्याः स्यु।५४६) - उपचरित असदभूत व्यवहारनयसे बुद्धिपूर्वक होनेवाले क्रोधादि विभावभाव भी जीवके कहे जाते हैं। ३. इस नयका कारण व प्रयोजन पं.ध /1/५५०-५५१ बीजं विभावभावाः स्वपरोभयहेतवस्तथा नियमात् । सत्यपि शक्तिविशेषे न परनिमित्ताद्विना भवन्ति यतः १५० तत्फलभविनाभावात्साध्यं तदबुद्धिपूर्वका भावा । तत्सत्तामात्र प्रति साधनमिह बुद्धिपूर्वका भावा' ५५१। - उपचरित असभूत व्यवहारनयकी प्रवृत्ति में कारण यह है कि उक्त क्रोधादिकरूप विभावभाव नियमसे स्व व पर दोनों के निमित्तसे होते हैं, क्योंकि शक्तिविशेषके रहनेपर भी वे बिना निमित्तके नहीं हो सकते ५५० और इस नयका फल यह है कि बुद्धिपूर्वकके क्रोधादि भावोंके साधनसे अबुद्धिपूर्वकके क्रोधादिभाकोकी सत्ता भी साध्य हो जाती है, अर्थात सिद्ध हो जाती है। ६. व्यवहार नयको कथंचित गौणता १. व्यवहारनय असत्यार्थ है तथा इसका हेतु स सा /मू ११ ववहारोऽभूयत्यो । व्यवहारनय अभूतार्थ है । (न. च | श्रुत/३०)। आप्त मी./४६ संवृत्तिश्चेन्मृषे वैषा परमार्थ विपर्ययात् ।। -संवृत्ति अर्थात व्यवहार प्रवृत्तिरूप उपचार मिथ्या है। क्योंकि यह परमार्थ से विपरीत है। ध. १/१,१,३७/२६३/८ अथवा नेदं व्याख्यान समीचीनं । -(द्रव्येन्द्रियोके सदभावकी अपेक्षा केवलीको पंचेन्द्रिय कहने रूप व्यवहार नयके ) उक्त व्याख्यानको ठीक नहीं समझना।। न. च /श्रुत/२६-३० योऽसौ भेदोपचारलक्षणोऽर्थः सोऽपरमार्थः। अभेदा नुपाचारस्यार्थस्यापरमार्थत्वात् । व्यवहारोऽपरमार्थप्रतिपादकत्वादभूतार्थः । = जो यह भेद और उपचार लक्षणवाला पदार्थ है, सो अपरमार्थ है; क्योंकि, अभेद व अनुपचाररूप पदार्थको ही परमार्थपना है । व्यवहार नय उस अपरमार्थ पदार्थ का प्रतिपादक होनेसे अभूतार्थ है । (पं.ध./पू./५२२)। पं. ध./पू./६३१,६३५ ननु च व्यवहारनयो भवति स सर्वोऽपि कथमभूतार्थ.। गुणपर्ययवद्रव्यं यथोपदेशात्तथानुभूतेश्च ।६३१॥ तदसव गुणोऽस्ति यतो न द्रव्यं नोभयं न तद्योग । केवलमद्वैत सव भवतु गुणो वा तदेव सद्रव्यम्।६३५।- प्रश्न-सब ही व्यवहारनयको अभूतार्थ क्यों कहते हो,क्योंकिद्रव्यजैसे व्यवहारोपदेशसे गुणपर्यायवाला कहा जाता है, वैसा ही अनुभवसे ही गुणपर्यायवाला प्रतीत होता है। १६३१। उत्तर-निश्चय करके वह 'सत' न गुण, न द्रव्य है, न उभय है और न उन दोनोंका योग है किन्तु केवल अद्वैत सत है। उसी सतको चाहे गुण मान लो अथवा द्रव्य मान लो, परन्तु वह भिन्न नहीं है ।६३५॥ पं.का./पं.हेमराज/४५ लोक व्यवहारसे कुछ वस्तुका स्वरूप सधता नहीं। मो. मा प्र/७/३६६/८ व्यवहारनय स्वद्रव्य परद्रव्यकौं वा तिनके भावनिकौ वा कारणकार्यादिककौं काहूको काहविषै मिलाय निरूपण करे है। सो ऐसे श्रद्धानते मिथ्यात्व है। तात याका त्याग करना। मो. मा. प्र./७/४०७/२ करणानुयोगविर्ष भी कहीं उपदेशकी मुख्यता लिये उपदेश हो है, ताकौ सर्वथा तेसै ही न मानना। २. व्यवहारनय उपचार मात्र है स. सा./मू./१५ जोवम्हि हेदुभूदबंधस्स दु पस्सिदूण परिणायं। जीवेण कर्द कम्म भरणदि उवयारमत्तेण । जीवको निमित्तरूप होनेसे कर्मबन्धका परिणाम होता है। उसे देखकर, 'जीवने कर्म किये है। वह उपचार मात्रसे कहा जाना है। (स. सा/आ./१०७) । स्या. म./२८/३१२/८ पर उद्धृत-तथा च माचकमुख्यः " लौकिक समउपचारप्रायो विस्तृतार्थो व्यवहार' । -वाचकमुख श्री उमास्वामीने ( तत्त्वार्थाधिगमभाष्य/१/३५ में ) कहा है, कि लोक व्यवहारके अनुसार तथा उपचारप्राय विस्तृत व्याख्यानको उपचार कहते हैं। नदी/१/१४/१२ चक्षुषा प्रमीयत इत्यादिव्यवहारे पुनरुपचारः शर णम् । 'आँखोंसे जानते हैं' इत्यादि व्यवहार तो उपचारसे प्रवृत्त होता है। पं.ध./पू./५२१ पर्यायार्थिक नय इति वा व्यवहार एव नामेति । एकार्थो यस्मादिह सर्वोऽप्युपचारमात्र' स्यात् ।।२१। पर्यायार्थिक नय और व्यवहारनय दोनों ही एकार्थवाची हैं, क्योंकि सकल व्यवहार उपचार मात्र होता है। पं.ध./उ./११३ तत्राद्वैतेऽपि यदद्वैत तद्विधाप्यौपचारिकम् । तत्राद्य स्वांशसंकल्पश्चेत्सोपाधि द्वितीयकम् । अद्वैतमें दो प्रकारसे द्वैत जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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