Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 2
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 572
________________ नय ५६४ १०. शुद्ध दृष्टिमें व्यवहारको स्थान नहीं नि.सा./ता.वृ./४०/ प्रायेषां धियां कुधियामपि । नयेन केनचितेषां भिदां कामपि वेद्म्यहम् ॥ ७१ ॥ = सुबुद्धि हो या कुबुद्धि अर्थात् सम्यग्दृष्टि हो या मिथ्यादृष्टि, सबमे ही जब शुद्धता पहले हो से विद्यमान है उनमे कुछ भी भेद मे किस नयसे करू । ११. व्यवहारनयका विषय निष्फल है = सा/२६६दवसानं तत्सम परभावस्य परस्म व्याप्रियमाणत्वेन स्वार्थ क्रियाकारित्वाभावात् खकुसुमं लुनामीत्यध्यवसानवमिध्यात्वं केवलमात्मनोऽनयमिव मे पर जीवोको सुखी दुखी करता हॅू ) इत्यादि जो यह अध्यवसान है वह सभी मिथ्या है, क्योकि परभावका परमें व्यापार न होनेसे स्वार्थ क्रियाकारीपन नहीं है, परभाव परमें प्रवेश नहीं करता। जिस प्रकार कि 'मै आकाशके फूल तोडता है' ऐसा कहना जिम है तथा अपने अनर्थ के लिए है, परका कुछ भी करनेवाला नहीं । पं. ध. /उ./५६३-५६४ तद्यथा लौकिकी रूढिरस्ति नानाविकल्पसात् । निसारैराश्रिता पुम्भिर ||१३| अफलानिष्टफला हेतु म्या योगापहारिणी दुस्याज्या तोकिको सद्धि के पि दुष्कर्मपाकत | ५६४| अनेक विकल्पोवाली यह लौकिक रूढि है। और वह निस्सार पुरुषों द्वारा ति है तथा अफिसको देने नाती है | १३| यह सौकिकी निष्फल है, दुष्फल है, युक्ति रहित है, अन्वर्थ अर्धसे समय उदय होती है तथा किन्हीं के द्वारा दुस्त्याज्य है ।५६४ (पं. ध. /पू./५६३) । १२. व्यवहारनयका आश्रय मिध्याख है ससा./आ./४१४३ उपहारमेव परमार्थ सुधा चेतयन्ते से समयसारमेव नसतयन्ते जो व्यवहारको ही परमार्थ बुद्धिसे अनुभव करते है, वे समयसारका ही अनुभव नहीं करते। (पु.सि.उ./६) । प्रसा४यतितरियो मनुष्य एवाहने .... मनुष्यव्यवहारमाश्रित्य रज्यन्तो द्विषन्तक्ष परद्रव्येण कर्मणा सङ्गतत्वात्परसमया जायन्ते । वे जिनकी निरर्गल एकान्त दृष्टि उती है ऐसे, "यह मे मनुष्य ही हूँ, ऐसे मनुष्य-महारा आश्रय करके रागी द्वेषी होते हुए परद्रव्यरूप कर्मके साथ संगतता के कारण वास्तव में परसमय होते है । प्र. सा./त. प्र / १६० यो हि नाम शुद्धद्रव्यनिरूपणात्मक निश्चयनय निरनिरूपणार महारयोपि ममत्वं न जहाति स खलु उन्मार्गमेव प्रतिपद्यते । -जो आत्मा शुद्ध द्रव्यके निरूपणस्वरूप निश्वयनयसे निरपेक्ष रहकर अशुद्ध द्रव्यके निरूपणस्वरूप व्यवहारनयसे जिसे मोह उत्पन्न हुआ है, ऐसा वर्तता हुआ, परद्रव्यमें ममत्व नहीं छोड़ता है वह आत्मा वास्तव में उन्मार्गका ही आश्रय लेता है । 1 पं. ध. / . / ५२८ व्यवहार कि मिध्या स्वयमपि मिथ्योपदेशकरच यत प्रतिषेभ्यस्तस्मादिह मिध्यादृशिस्तदर्थदृष्टिश्च स्वयमेत्र मिथ्या अर्थका उपदेश करनेवाला होनेके कारण व्यवहारनय निश्चय करके मिथ्या है। तथा इसके अर्थ पर दृष्टि रखनेवाला मिथ्यादृष्टि है । इसलिए यह नय हेय है । दे० कर्ता (एक को दूसरेका कर्ता कहना मिथ्या है। कारक / ४ ( एक द्रव्यको दूसरेका बताना मिथ्या है ) । कारण / LET/२/१२ कार्यको सर्वथा निमित्ताधीन कहना मिथ्या है। दे० नय / V/३/३ ( निश्चयनयका आश्रय करनेवाले ही सम्यग्दृष्टि होत हैं, व्यवहारका आश्रय करनेवाले नहीं । ) Jain Education International १३. व्यवहारनय हेय है मो.पा./मू./३२ इय जाणिऊण जोई ववहारं चयइ सञ्चहा सव्वं । = ( = ( जो उपहारमें जागता है सो आत्माके कार्य में सोता है गा. ३१) ऐसा जानकर योगी व्यवहारको सर्व प्रकार छोड़ता है । ३२ । प्र.सा.प्र./९४५ प्राशचतुष्काभिसन्धवं व्यवहारजी हेतुभि क्तव्योऽस्ति । - = इस व्यवहार जीवत्वको कारणरूप जो चार प्राणोंकी संयुक्तता है, उससे जीवको भिन्न करना चाहिए। स.सा./१९ अत प्रत्यगात्मदशभिर्व्यवहारमयी नानुसर्तव्यः । - अतः कर्मोंसे भिन्न शुद्धात्माको देखनेवालो को व्यवहारनय अनुसरण करने योग्य नहीं है। V निश्चय व्यवहार नय 1 म. सा./ता./१०१/२५२/१२ हवं नयद्वय बदस्ति किरिय नय उपादेय; न चासद्भूतव्यवहारः । यद्यपि नय दो है, किन्तु यहाँ निश्चयन उपादेय है अदभूत व्यवहारनय नहीं (पं.भ./पू./१०) और भी दे० आगे नय / V/ दोनों नयोंके ममन्यनमें इस नयका कचित् ता)। और भी दे० आगे नय / V/८ ( इस नयको हेय कहनेका कारण व प्रयोजन ) ७. व्यवहारनयकी कथंचित् प्रधानता ३. व्यवहारलय सर्वधा निषिद्ध नहीं है ध. १ / १,१.३०/२३० / ४ प्रमाणाभावे वचनाभावतः सकलव्यवहारोच्छिन्तिप्रसाद अस्तु चैन वस्तुविषयविधिप्रतिषेधोर 1 अस्तु चेन्न तथानुपलम्भात् । प्रमाणका अभाव होनेपर वचनकी प्रवृत्ति नहीं हो सकती और उसके बिना सम्पूर्ण लोकव्यवहारके विनाशका प्रसंग आता है। प्रश्न- यदि लोकव्यवहारका विनाश होता है तो हो जाओ उत्तर-नहीं, क्योंकि ऐसा माननेपर वस्तु विषयक विधिप्रतिषेधका भी अभाव हो जाता है। प्रश्न- वह भी हो जाओ उत्तर नहीं, क्योंकि वस्तुका विधि प्रतिषेधरूप व्यवहार देखा जाता है । ( और भी दे० नय / V/६/३) स.सा./ता.वृ./३६-३६५/४४०/१२ ननु सौगतोऽपि व्यवहारेण सर्वतस्य किमिति दूप दीयते भवद्धिरिति तत्र परिहारमाहसौगतादिमते यथा निश्चयापेक्षया गद्दारो मृषा तथा व्यवहार रूपेणापि व्यवहारो न सत्य इति, जैनमते पुनर्व्यवहारनयो यद्यपि निश्चयापेक्षया मृषा तथापि व्यवहाररूपेण सत्य इति यदि क व्यवहाररूपेणापि त्यो न भवति तर्हि सर्वोऽपि लोकव्यवहारो निथ्या भवति तथा सत्यतिप्रसङ्ग । एवमात्मा व्यवहारेण परद्रव्यं जानाति पश्यति निश्चयेन पुन स्वद्रव्यमेवेति । - प्रश्न - सौगत मतवाले (बौद्ध जन ) भी सर्वज्ञपना व्यवहारसे मानते है, तब आप उनको दूषण क्यों देते हैं ( क्योंकि, जैन मतमें भी परपदार्थों का जानना व्यवहारनयसे कहा जाता है ) 1 उत्तर- इसका परिहार करते हैं-सौगत आदि मतोमैं, जिस प्रकार निश्चयकी अपेक्षा व्यवहार झूठ है, उसी प्रकार व्यवहाररूपसे भी वह सत्य नहीं है । परन्तु जैन मतमें व्यवहारनय यद्यपि निश्चयकी अपेक्षा मृषा (झूठ ) है, तथापि व्यवहार रूप से वह सत्य है । यदि लोकव्यवहाररूप से भी उसे सत्य न माना जाये तो सभी लोकव्यवहार मिथ्या हो जायेगा; और ऐसा होनेपर अतिप्रसंग दोष आयेगा। इसलिए आत्मा व्यवहारसे परद्रव्यको जानता देखता है, पर निश्चयनयसे केवल आत्माको ही (विशेष दे० के ६/३/२/४: दर्शन /२/४) स. सा. / पं. जयचन्द / ६ शुद्धता अशुद्धता दोनों वस्तुके धर्म हैं। अशुद्ध को सर्वथा असत्यार्थ ही न मानना । अशुद्धमयको अस्थार्थ कहने से ऐसा हो न समझना कि यह मस्तु सर्वथा ही जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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