Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 2
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 564
________________ नय ५५६ v निश्चय व्यवहार नय और भी दे० नय/V/१/१ ( एवंभूत या सत्यार्थ ग्रहण ही निश्चयनयका लक्षण है।) स, सा./पं. जयचन्द/६ द्रव्यदृष्टि शुदध है, अभेद है, निश्चय है, भूतार्थ है, सत्यार्थ है, परमार्थ है। २. निश्चयनय साधकतम व नयाधिपति है न. च./श्रुत/३२ निश्चयनयः...पूज्यतमः । -निश्चयनय पूज्यतम है। म. सा./त. प्र./१८६ साध्यस्य हि शुद्धत्वेन द्रव्यस्य शुद्धत्वद्योतकत्वानिश्चयनय एव साधकतमो। -साध्य वस्तु क्योंकि शुद्ध है अर्थात पर संपर्कसे रहित तथा अभेद है, इसलिए निश्चयनय ही द्रव्यके शुद्धत्वका द्योतक होनेसे साधक है। (दे० नय/V/१/२)। पं.ध./पू./५६६ निश्चयनयो नयाधिपतिः । =निश्चयनय नयाधिपति है। ३. निश्चयनय ही सम्यक्त्वका कारण है स. सा./मू-/भूयत्थमस्सिदो खलु सम्माइट्ठी हवइ जीवो। - जो जीव । भूतार्थका आश्रय लेता है वह निश्चयनयसे सम्यग्दृष्टि होता है। न. च. श्रुत/३२ अत्रैवाविश्रान्तान्तर्दृष्टिर्भवत्यात्मा । - इस नयका सहारा लेनेसे ही आत्मा अन्तर्दृष्टि होता है। स.सा./आ./११,४१४ ये भूतार्थमाश्रयन्ति त एव सम्यक् पश्यत सम्यग्दृष्टयो भवन्ति न पुनरन्ये, कतकस्थानीयत्वात शुद्धनयस्य ।१११ य एव परमार्थ परमार्थबुद्ध्या चेतयन्ते त एव समयसार चेतयन्ते। -यहाँ शुद्धनय कतक फलके स्थानपर है (अर्थात् परसंयोगको दूर करनेवाला है ), इसलिए जो शुद्धनयका आश्रय लेते है, वे ही सम्यक अवलोकन करनेसे सम्यग्दृष्टि हैं, अन्य नहीं।११। जो परमार्थको परमार्थबुद्धिसे अनुभव करते हैं वे हो समयसारका अनुभव करते प्रसारसे पूर्ण जो ज्ञान, उससे स्फुरायमान होनेमात्र जो समयसार; उससे उच्च वास्तवमे दूसरा कुछ भी नहीं है। पं.वि/१/१५७ तत्राद्य श्रयणीयमेव सुदृशा शेषद्वयोपायतः। -सम्यग्दृष्टिको शेष दो उपायोंसे प्रथम शुद्ध तत्त्व (जो कि निश्चयनयका वाच्य बताया गया है ) का आश्रय लेना चाहिए। पं.का/ता. वृ./१४/१०४/१८ अत्र यद्यपि पर्यायाथिकनयेन सादि सनिधन जीवद्रव्यं व्याख्यातं तथापि शुद्धनिश्चयेन यदेवानादिनिधनं टङ्कोरकीर्णज्ञायकैकस्वभाव निर्विकारसदानन्दै कस्वरूपं च तदेवोपादेयमित्यभिप्रायः । यहाँ यद्यपि पर्यायार्थिकनयसे सादिसनिधन जीव द्रव्यका व्याख्यान किया गया है, परन्तु शुद्ध निश्चयनयसे जो अनादि निधन टंकोत्कीर्ण ज्ञायक एकस्वभावी निर्विकार सदानन्द एकस्वरूप परमात्म तत्त्व है, वही उपादेय है, ऐसा अभिप्राय है। (पं.का/ता.वृ./२७/६१/१६)। पं.ध./पू./६३० यदि वा सम्यग्दृष्टिस्तदृष्टिः कार्यकारी स्यात् । तस्माद स उपादेयो नोपादेयस्तदन्यनयवादः १६३०। क्योंकि निश्चयनयपर दृष्टि रखनेवाला ही सम्यग्दृष्टि व कार्यकारी है, इसलिए वह निश्चय ही ग्रहण करनेयोग्य है व्यवहार नहीं। विशेष दे० नय/V/८/१ (निश्चयनयकी उपादेयताके कारण व प्रयोजन । यह जीवको नयपक्षातीत बना देता है।) ४. व्यवहारनय सामान्य निर्देश १. व्यवहारनय सामान्यके लक्षण १. संग्रहनय ग्रहीत अर्थमें विधिपूर्वक भेद घ.१/१.१.१/गाद/१२ पडिरूवं पुण वयणस्थणिच्छयो तस्स बबहारो। लवस्तुके प्रत्येक भेदके प्रति शब्दका निश्चय करना ( संग्रहनयका) व्यवहार है । (क.पा./१/१३-१४/७१८२/८६/२२०) । स. सि./१/३३/१४२/२ संग्रहनयाक्षिप्तानामर्थानां विधिपूर्वकमवहरणं व्यवहारः । - संग्रहनयके द्वारा ग्रहण किये गये पदार्थोंका विधिपूर्वक अवहरण अर्थात् भेद करना व्यवहारनय है । (रा.वा/१/३३/६/१६/२०), (श्लो,वा./४/१/३३/श्लो.५८/२४४), (ह.पु./५८/४५), (ध.१/१,१,१/८४/४) (त, सा./९/४६), (स्या. म./२८/३१७/१४ तथा ३१६ पृ. उदधृत श्लो, हैं ।४१४॥ पं. वि/१/८० निरूप्य तत्त्वं स्थिरतामुपागता, मतिः सतां शुद्धनयाव लम्बिनी। अखण्डमेकं विशदं चिदात्मक, निरन्तरं पश्यति तत्पर महः 1000 शुद्धधनयका आश्रय लेनेवाली साधुजनोंकी बुद्धितत्वका निरूपण करके स्थिरताको प्राप्त होती हुई निरन्तर, अखण्ड, एक, निर्मल एवं चेतनस्वरूप उस उत्कृष्ट ज्योतिका ही अब लोकन करती है। प्र. सा./ता. वृ./१६१/२५६/१८ ततो ज्ञायते शुधनयाच्छुधात्मलाभएव । -इससे जाना जाता है कि शुद्धनयके अवलम्बनसे आत्मलाभ अवश्य होता है। पं. घ./पू./६२६ स्वयमपि भूतार्थत्वाद्भवति स निश्चयनयो हि सम्य वत्वम् ।-स्वयं ही भूतार्थको विषय करनेवाला होनेसे निश्चय करके, यह निश्चयनय सम्यक्त्व है। मो. मा. प्र./१७/३६६/१० निश्चयनय तिनि ही कौं यथावत् निरूपै है, काहुकौं काविर्षे न मिलावै है । ऐसे हो श्रद्धानः सम्यवस्व हो है। ४. निश्चयनय ही उपादेय है न.च./त/६७ तस्माद्वावपि नाराध्यावाराध्यः पारमार्थिकः। -इसलिए व्यवहार व निश्चय दोनों ही नये आराध्य नहीं है, केवल एक पारमार्थिक नय ही आराध्य है। । सा./त.प्र./१८६ निश्चयनयः साधकतमत्वादुपात्तः। -निश्चयनय साधकतम होनेके कारण उपात्त है अर्थात ग्रहण किया गया है। स. सा./आ./११४/क. २४४ अलमलमतिजल्पविकल्पैरयमिह परमार्थश्चेत्यता नित्यमेकः । स्वरस विसरपूर्ण ज्ञानविस्फूर्तिमात्रान्न खलु समयसारादुत्तरं किंचिदस्ति । -बहुत कथनसे और बहुत दुर्विकल्पोंसे बस होओ, मस होओ। यहाँ मात्र इतना ही कहना है, कि इस एकमात्र परमार्थका ही नित्य अनुभव करो, क्योंकि निज रसके आ.प./ संग्रहेण गृहीतार्थस्य भेदरूपतया वस्तु येन व्यवहियतेति व्यवहारः। -संग्रहनय द्वारा गृहीत पदार्थ के भेदरूपसे जो वस्तुमें भेद करता है, वह व्यवहारनय है। (न. च. वृ./२१०), (का. अ./मू./२७३) २. अमेद वस्तुमें गुण-गुणी आदि रूप मेदोपचार न.च.व./२६२ जो सियभेदुवयारं धम्माणं कुणइ एगवत्थुस्स । -सो ववहारो भणियो...॥२६२। -एक अभेद वस्तुमें जो धर्मोका अर्थात गुण पर्यायौंका भेदरूप उपचार करता है वह व्यवहारनय कहा जाता है। (विशेष दे० आगे नय/V/११-३), (पं.ध./पू./६१४). ( आ. प./8) पं.ध./पू./५२२ व्यवहरणं व्यवहारः स्यादिति शब्दार्थतो न परमार्थः । स यथा गुणगुणिनो रिह सदभेदे भेदकरणं स्यात् । -विधिपूर्वक भेद करनेका नाम व्यवहार है। यह इस निरुक्ति द्वारा किया गया शब्दार्थ है, परमार्थ नहीं। जैसा कि यहाँपर गुण और गुणीमें सत् रूपसे अभेद होनेपर भी जो भेद करना है वह व्यवहार नय कहलाता है। ३. भिन्न पदार्थोंमें कारकादि रूपसे अभेदोपचार स.सा./आ./२७२ पराश्रितो व्यवहारः। -परपदार्थ के आश्रित कथन करना व्यवहार है। (विशेष देखो आगे असदभूत व्यवहारनय-नय/ V/५/४-६)। ro . जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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