Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 2
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 562
________________ नय जीवन कहे जाते है और साक्षात् शुद्धनिश्चय नयसे ये हैं ही नहीं, तब किसके कहे (३० शीर्षक न. ५/१ मे इ.सं.)। द्र. सं./टी./५७/२३६/७ विवक्षितैकदेश शुद्ध निश्चयनयेन पूर्वं मोक्षमार्गो व्याख्यातस्तथा पर्यायरूपो मोक्षोऽपि । न च शुद्धनिश्चयेनेति । -- पहिले जो मोक्षमार्ग या पर्यायमोक्ष कहा गया है, यह विवक्षित एकदेश शुद्ध निश्चयनमसे कहा गया है. शुद्ध निश्चयनयसे नहीं ( क्योंकि उसमें तो मोक्ष या मोक्षमार्गका विकल्प ही नहीं है। ५५४ ७. शुद्ध, एकदेश शुद्ध, व निश्चय सामान्यमें अन्तर व इनकी प्रयोग विधि प. प्र./टी./६४/६५/१ सांसारिकं सुखदुःखं यद्यप्यशुद्धनिश्चयनयेन जीवजनितं तथापि शुद्धनिश्चयेन कर्मजनितं भवति । सांसारिक सुख दुख यद्यपि अशुद्ध निश्चयनयसे जीव जनित हैं, फिर भी शुद्ध निश्चय कर्मजनित है (यहाँ एकदेश शुद्धको भी शुद्ध निश्चयनय ही कह दिया है) ऐसा ही सर्वत्र यथा योग्य जानना चाहिए ) प्र.सं./टी./१/२१/१२ शुभाशुभयोगत्रयव्यापाररहितेन शुद्धबुद्ध कस्वभावेन यदा परिणमति तदानन्तज्ञानसुखादिशुद्धभावानां छद्मस्थावस्थायां भावनारूपेण विवक्षितेकदेशशुद्ध निश्चयेन कर्ता, मुक्तावस्थायां तु शुद्धनयेनेति । शुभाशुभ मन वचन कायके व्यापार से रहित जब शुद्धबुद्ध एकस्वभावसे परिणमन करता है, तब अनन्तज्ञान अनन्तसुख आदि शुद्धभावका दस्थ अवस्थामें ही भावना रूपसे, एकदेशशुद्धनिश्चयनयकी अपेक्षा कर्ता होता है, परन्तु मुक्तावस्थामें उन्हीं भावोंका कर्ता शुद्ध निश्चयनयसे होता है। (इस परसे एकदेश शुद्ध व शुद्ध इन दोनों निश्चय नयोंमें क्या अन्तर है यह जाना जा सकता है । ) प्र.सं./टी./५३/२२४/६ निश्चयशवेन तु प्राथमिकापेक्षा व्यवहाररत्नयानुकृतनिश्चयो प्राह्यः निष्पन्नयोनिश्चलपुरुषापेक्षा व्यवहारनत्रयानुकुल निश्चयो ग्राह्यः निष्पन्नयोगपुरुषापेक्षया तु शुद्धपयोगलक्षणविवक्षितै कदेशशुद्ध निश्चयो ग्राह्यः । विशेष निश्चयः पुनरग्रे वक्ष्यमाणस्तिष्ठतीति सूत्रार्थ: ।...'मा चिटुह मा जंपह...] निश्चय शब्दसे--अभ्मास करनेवाले प्राथमिक, जघन्य पुरुषकी अपेक्षा तो व्यवहार रत्नत्रय के अनुकूल निश्चय ग्रहण करना चाहिए। निष्पन्न योगमें निश्चत पुरुषकी अपेक्षा अर्थात् मध्यम धर्मध्यानको अपेक्षा व्यवहाररत्नत्रयके अनुकूल निश्चय करना चाहिए। निष्यन्नयोग अर्थात उत्कृष्ट धर्मध्यानी पुरुषकी अपेक्षा सुद्धोपयोगरूप विवक्षित एकदेश शुद्ध निश्चयनय ग्रहण करना चाहिए। विशेष अर्थात शुद्ध निश्चय आगे कहते हैं । —मन वचन कायसे कुछ भी व्यापार न करो केवल आत्मामें रत हो जाओ ( यह कथन शुक्लध्यानीकी अपेक्षा समझना ) । ८. अशुद्ध, निश्चयनय का लक्षण व उदाहरण आ. ५/१० सोपाधिकविषयोऽशुद्ध निश्चयो यथा मतिज्ञानादिजीव इति । सोपाधिक गुण व गुणीमें अभेद दर्शानेवाला अशुद्धनिश्चयनय है । जैसे - मतिज्ञानादि ही जीव अर्थात् उसके स्वभावभूत लक्षण है (न/रा/पृ. २५) (प.प्र./टी./७/१३/३) । न. च. वृ./११४ ते चैव भावरूवा जीवे भूदा खओवसमदो य । ते हंति भावपाणा अशुद्ध णिच्छयणयेण णायव्वा । ११४। जीवमें कर्मोंके क्षयोपशम से उत्पन्न होनेवाले जितने भाव हैं, वे जीव के भावप्राण होते हैं, ऐसा अशुद्ध निश्चयनयसे जानना चाहिए। ( पं. का./ता.वृ./२७/ १०/१४) (प्र.सं./टी./३/११/०); नि. सा./ता.वृ./१८ अशुद्धनिश्चयमयेन सकलमोहरागद्वेषादिधामकर्मणकर्ता भोक्ता - अशुद्ध निश्चयनयसे जीव सकल मोह, Jain Education International V निश्चय व्यवहार नय राग, द्वेषादि रूप भावकमका कर्ता है तथा उनके फलस्वरूप उत्पन्न हर्प विषादादिरूप सुख दुःखका मोका है (द्र.सं./टी.// २१/१ तथा १/२२/५)। प. प्र./टी./६४/६५/१ सांसारिकसुखदुःखं यद्यप्यशुद्ध निश्चयनयेन जीवजनितं । - अशुद्ध निश्चयनयसे सांसारिक सुख दुख जीव जनित हैं । प्र.सा./ता.वृ./परि./३६०/१३ अनिश्चययेन सोपाधिस्फटिकम मस्तरागादिविकल्पोपाधिसहितम् । अशुद्ध निश्चयनय से सोपाधिक स्फटिककी भाँति समस्तरागादि विकल्पोंकी उपाधि से सहित है। (द्र.सं./टी./९६/५३/३); (अन. ध./१/१०३ / १०८) प्र.सा./ता.वृ./८/१०/१३ अशुद्धात्मा तु रागादिना अशुद्धनिश्चयेनाशुद्धोपादानकारणं भवति अशुद्ध निश्चय नयसे अशुद्ध करमा रागादिकका अशुद्ध उपादान कारण होता है। । पं. का/खा/६९/११३/१३ कर्मकर्तृत्वप्रस्तावादशुद्ध निश्चयेन रागादयोऽपि स्वभावा भण्यन्ते । -कमका कर्तापना होनेके कारण अशुद्ध निश्चयनयसे रागादिक भी जीवके स्वभाव कहे जाते हैं। द्र.सं./टी./८/२१/१ अशुद्ध निश्चयस्यार्थः कथ्यते - कर्मोपाधिसमुत्पन्न - वादशुद्धः, तत्काले तप्तायः पिण्डवत्तन्मयत्वाच्च निश्चय । इत्युभयमेलापकेन शुद्ध निश्चयो भग्यते अशुद्ध निश्चय' इसका अर्थ कहते हैं - कर्मोपाधिसे उत्पन्न होनेसे अशुद्ध कहलाता है और अपने कासमें (अर्थात् रागादिके कालमें जीव उनके साथ) अग्निमें तपे हुए लोहे के गोलेके समान तन्मय होनेसे निश्चय कहा जाता है। इस रीतिसे अशुद्ध और निश्चय इन दोनोंको मिलाकर अनुध निश्चय कहा जाता है । द्र. सं./टी./४५/११७/१ यच्चाभ्यन्तरे रागादिपरिहारः स पुनरशुद्धनिश्चयेनेति । जो अन्तरंगमें रागादिका त्याग करना कहा जाता है. यह अशुभ निश्चयनयसे पारित्र है। पी./१/१/६/६ भावकर्मदहनं पुनरशुद्ध निश्चयेन भावकमका दहन करना अशुद्ध निश्चय नयसे कहा जाता है । RG - प. प्र./टी./१/१/६/१०/५ केवलज्ञानायनन्तगुणस्मरणरूपो भावनमस्कारः पुनरशुद्ध निश्चयेनेति । भगवान्के केवलज्ञानादि अनन्तगुणका स्मरण करना रूप जो भाव नमस्कार है वह भी अशुद्ध निश्चयनयसे कही जाती है। २. निश्चयनयकी निर्विकल्पता १. शुद्ध व अशुद्ध निश्चय द्रव्यार्थिकके भेद है आ.प./१ शुद्धाशुद्धनिश्चयी द्रव्यार्थिकस्य भेदौ शुद्ध और अशुद्ध ये दोनों निश्चयनय द्रव्यार्थिकनयके भेद हैं। (पं.भ./पू. ६६०) २. निश्चयनय एक निर्विकल्प व वचनातीत है म/१/१५० वागतिवहितत्वमितरद्वाच्चद्वाचके शुद्धा देश इति प्रमेदजनक शुद्ध तर कम्पितम् शुद्ध वचनके बगीच है, इसके विपरीत अशुद्ध तत्त्व वचनके गोचर है। शुद्धतत्त्वको प्रगट करनेवाला शुद्धादेश अर्थात सुनिश्चयनय है और अशुद्ध व भेदको प्रगट करनेवाला अनिश्चय नय है (.ध.पू./०४०) ( पं. घ. /उ. / १३४ ) . . . / २६ स्वयमपि भूतार्थत्वाद्भवति स निश्चयनयो हि सम्यत्वम् | अविकल्पवदतिवागिव स्यादनुभवै कगम्यवाच्यार्थः । ६२ । = स्वयं ही यथार्थ अर्थ को विषय करनेवाला होनेसे निश्चय करके वह निश्चयन सम्यक्त्व है, और निर्विकल्प व वचनागोचर होनेसे उसका वाच्यार्थ एक अनुभवगम्य ही होता है।. पं. १३४ एक नयः सर्वो निर्द्वन्द्रो निर्विकल्पक व्यवहारनयोः सइन्द्रःकल्पकः ॥ १३४॥ सम्पूर्ण शुद्ध अर्थात् निश्चय जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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