Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 2
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 565
________________ नय V निश्चय व्यवहार नय त. अनु./२६ व्यवहारनयो भिन्नकत कर्मादिगोचरः । =व्यवहारनय का./ता.वृ./१११/१७५/१३ अनलानिलकायिका तेषु पञ्चस्थावरेषु मध्ये भिन्न कर्ता कर्मादि विषयक है । (अन.ध./१/१०२/१०८) । चलनक्रियां दृष्ट्वा व्यवहारेण त्रसाः भण्यन्ते। -पाँच स्थावरोमें-से ४. लोकव्यवहारगत-वस्तुविषयक तेज वायुकायिक जीवोमें चलनक्रिया देखकर व्यवहारसे उन्हें त्रस कहा जाता है। ध.१३/५०५,७/१/१ लोकव्यवहारनिबन्धतं द्रव्यमिच्छत् व्यवहारनय।। प.ध./पू./५६६ व्यवहार' स यथा स्यात्सद्रव्यं ज्ञानवांश्च जीवो वा। -लोकव्यवहारके कारणभूत द्रव्यको स्वीकार करनेवाला पुरुष जैसे 'सत द्रव्य है' अथवा 'ज्ञानवान् जीव है' इस प्रकारका जो व्यवहारनय है। कथन है, वह व्यवहारनय है। और भी देखो-(नय/IV/२/६/६), २. व्यवहारनय सामान्यके उदाहरण (नय/V/२/१-३)। १. संग्रह ग्रहीत अर्थमें भेद करने सम्बन्धी ३. भिन्न पदार्थों में कारकरूपसे अभेदोपचार सम्बन्धी स.सि./१/३३/१४२/२ को विधिः । यः संगृहीतोऽर्थस्तदानुपयेणैव व्यव स.सा./मू./५६-६० तह जीवे कम्माणं णोकम्माणं च पस्सि, वणं । हार' प्रवर्तत इत्ययं विधिः। तद्यथा-सर्वसंग्रहेण यत्सत्त्वं गृहीतं जीवस्स एस वण्णो जिणेहि ववहारदो उत्तो ।।६। गंधरसफासरूवा तच्चानपेक्षितविशेष नाल संव्यवहारायेति व्यवहारनय आश्रीयते। देहो संठाणमाइया जे य। सव्वे ववहारस्स य णिच्छयदण्हू ववदियत्सत्तद् द्रव्यं गुणो वेति । द्रव्येणापि संग्रहाक्षिप्तेन जीवाजीवविशेषा संति ६० - जीवमें कर्मों व नोकर्मों का वर्ण देखकर, जीवका यह नपेक्षेण न शक्यः संव्यवहार इति जीवद्रव्यमजीवद्रव्यमिति वा व्यव वर्ण है, ऐसा जिनदेवने व्यवहारसे कहा है।५। इसी प्रकार गन्ध, रस और स्पर्शरूप देह संस्थान आदिक, सभी व्यवहारसे हैं, ऐसा हार आश्रीयते। जीवाजीवावपि च संग्रहाक्षिप्तौ नालं संव्यवहारा निश्चयनयके देखनेवाले कहते हैं ।६०। (द्र.सं./मू./७), (विशेष दे० येति प्रत्येकं देवनारकादिर्घटादिश्च व्यवहारेणाश्रीयते। -प्रश्नभेद करनेकी विधि क्या है। उत्तर-जो संग्रहनयके द्वारा गृहीत नय/V/AI)। अर्थ है उसीके आनुपूर्वीक्रमसे व्यवहार प्रवृत्त होता है, यह विधि द्र. सं./म./२,६ तिकाले चदुपाणा इंदियबलमाउआणपाणो य । बवहारा है। यथा-सर्व संग्रहनयके द्वारा जो वस्तु ग्रहण की गयी है, वह सो जीवो णिच्छयणयदो दु चेदणा जस्स ।३। पुग्गलकम्मादीणं कत्ता अपने उत्तरभेदोंके बिना व्यवहार करानेमें असमर्थ है. इसलिए वबहारदो ।। ववहारा मुहदुक्ख पुग्गलकम्मफलं प जेदि ।। - भूत भविष्यत् व वर्तमान तीनों कालोंमें जो इन्द्रिय बल, आयु व्यवहारनयका आश्रय लिया जाता है। यथा-जो सत है वह या व श्वासोच्छवासरूप द्रव्यप्राणोंसे जीता है, उसे व्यवहारसे जीव तो द्रव्य है या गुण । इसी प्रकार संग्रहनयका विषय जो द्रव्य है वह भी जीव अजीवकी अपेक्षा किये बिना व्यवहार करानेमें अस कहते हैं। व्यवहारसे जीव पुद्गलकर्मोका कर्ता है । और मर्थ है, इसलिए जीव द्रव्य है और अजीव द्रव्य है, इस प्रकारके व्यवहारसे पुद्गलकर्मोंके फलका भोक्ता है ह(विशेष देखो नय/VII) व्यवहारका आश्रय लिया जाता है। जीव द्रव्य और अजीव द्रव्य प्र.सा./त.प्र./परि/नय नं०४४ व्यवहारनयेन बन्धकमोचकपरमाण्वन्तर-- भी जबतक संग्रहनयके विषय रहते हैं, तब तक वे व्यवहार करानेमें संयुज्यमानवियुज्यमानपरमाणुवबन्धमोक्षयोद्वैतानुवर्ती ४४ - असमर्थ हैं, इसलिए जीवद्रव्यके देव नारकी आदि रूप और अजीव आत्मद्रव्य व्यव हारनयसे बन्ध और मोक्ष में द्वैतका अनुसरण करनेद्रव्यके घटादि रूप भेदोंका आश्रय लिया जाता है। (रा.वा/१/३३/६/ वाला है । बन्धक और मोचक अन्य परमाणुके साथ संयुक्त होनेवाले ६/१६/२३), (श्लो. वा ४/१/३३/६०/२४४/२५), (स्या. म./२८/ और उससे वियुक्त होनेवाले परमाणुकी भाँति । ३१७/१६)। प्र.सा./त.प्र./१०४ यस्तु पुद्गलपरिणाम आत्मनः कर्म स एव पुण्यपापद्वैतं श्लो, वा ४/१/३३/६०/२४५/१ व्यवहारस्तद्विभज्यते यद्रव्यं तज्जीवादि पुदगलपरिणामस्यात्मा कर्ता तस्योपदाता हाता चेति सोऽशुद्धद्रव्याषड् विधं, या पर्यायः स द्विविधः क्रमभावो सहभावी चेति । पुनरपि थिकनिरूपणात्मको व्यवहारनयः। -जो 'पुद्गल परिणाम आत्मासंग्रहः सर्वानजीवादीन संगृह्णाति ।...व्यवहारस्तु तद्विभागमभिप्रैति का कर्म है वही पुण्य पापरूप द्वैत है; आरमा पुद्गल परिणामका कर्ता यो जीव' स मुक्तः संसारी च,.. यदाकाशं तक्लोकाकाशमलोकाकाशं है, उसका ग्रहण करनेवाला और छोड़नेवाला है, यह अशुद्धद्रव्यका ...यः क्रमभावी पर्यायः स क्रियारूपोऽक्रियारूपश्च विशेषः, यः सह निरूपणस्वरूप व्यवहारनय है। भावी पर्याय, स गुणः सदृशपरिणामश्च सामान्यमिति अपरापर प.प्र./१/५५/५४/४ य एव ज्ञानापेक्षया व्यवहारनयेन लोकालोकव्यापको संग्रहठ्यवहारप्रपञ्चः। -( उपरोक्तसे आगे)-व्यवहारनय उसका भणित। -व्यवहारनयसे ज्ञानकी अपेक्षा आत्मा लोकालोकविभाग करते हुए कहता है कि जो द्रव्य है वह जीवादिके भेदसे व्यापी है। छः प्रकारका है, और जो पर्याय है वह क्रमभावी व सहभावीके मो.मा.प्र./७/१७/३६६/८ व्यवहारनय स्वद्रव्य परद्रव्यको वा तिनिके भेदसे दो प्रकारको है। पुनः संग्रहनय इन उपरोक्त जीवादिकोंका भावनिकौं वा कारणकार्यादिककौं काहूको काहूविषै मिलाय निरूसंग्रह कर लेता है, तब व्यवहारनय पुनः इनका विभाग करता है पण करै है। कि जीव मुक्त व संसारीके भेदसे दो प्रकारका है. आकाश लोक व अलोकके भेदसे दो प्रकारका है। (इसी प्रकार पुहगल व काल और भी दे० (नय/III/२/३), (नय/V/५/४-६)। आदिका भी विभाग करता है। जो क्रमभावी पर्याय है वह क्रिया ___४. लोक व्यवहारगत वस्तु सम्बन्धी रूप व अक्रिया (भाव) रूप है, सो विशेष है । और जो सहभावी स्या. म./२८/३१९/२३ व्यवहारस्त्वेवमाह । यथा लोकग्राहकमेव वस्तु, पर्याय हैं वह गुण तथा सदृशपरिणामरूप होती हुई सामान्यरूप हैं। अस्तु, किमनया अदृष्टाव्यवह्रियमाणवस्तुपरिकल्पनकष्टपिष्टिकया। इसी प्रकार अपर व पर संग्रह तथा व्यवहारनयका प्रपंच समझ लेना यदेव च लोकव्यवहारपथमवतरति तस्यैवानुग्राहकं प्रमाणमुपलभ्यते चाहिए। नेतरस्य। न हि सामान्यमनादिनिधनमेकं संग्रहाभिमत प्रमाण२. अभेद वस्तुमें गुणगुणीरूप भेदोपचार सम्बन्धी भूमिः, तथानुभवाभावात् । सर्वस्य सर्वदर्शित्वप्रसङ्गाच्च । नापि स सा./मू./७ ववहारेणुवदिस्सदि णाणिस्स चरित्त दसणं गाणं।-ज्ञानी- विशेषाः परमाणुलक्षणाः क्षणक्षयिणः प्रमाणगोचराः, तथा प्रवृत्तरके चारित्र दर्शन व ज्ञान ये तीन भाव व्यवहारसे कहे गये हैं। (द्र.सं. भावात् । तस्माद् इदमेव निखिललोकाबाधितं प्रमाणसिद्ध मू./६/१७), (स.सा/आ./१६/क.१७) । कियत्कालभाविस्थूलतामाबिभ्राणमुदकाद्याहरणाद्यर्थ क्रियानिर्वर्तनक्षम जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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