Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 2
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 561
________________ नय ४. निश्चयनयके भेद -- शुद्ध व अशुद्ध आ. प./१० तत्र निश्चयो द्विविधः सुनिश्चयोऽशुवनिश्चयश्च ।निश्चयनय दो प्रकारका है-शुनिश्चय और अशुपनिश्चय। ५. शुद्धनिश्चयनयके लक्षण व उदाहरण २. परममानग्राहीकी अपेक्षा नोट - ( परमभावग्राहक शुद्धद्रव्यार्थिक नय ही परम शुद्ध निश्चयनय है अतः दे० नथ //V/२/६/१०) = नि. सा./मू./ ४२ चउगइभवसंभमणं जाइजरामरणरोयसोका य । कुलजोणिजीवमग्गणठाणा जीवस्स णो सति ॥४२॥ ( शुद्ध निश्चयनयसे ता.वृ. टोका) जीवको चार गतिके भवोंमें परिभ्रमण, जाति, जरा, मरण, रोग, शोक, कुन योनि, जीवस्थान और मार्गणा स्थान नहीं है । ( स.सा./मू./५०-५५), (बा. अ. / ३७) (प. प्र./मू./१/११-२१, ६८ ) स.सा.//५६ यवहारेण एदे जीनस हवंति वणमादीया गुण ठाणं ता दु भावा ण दु केइ णिच्छयणयस्स १५६। ये जो (पहिले गाथा नं० ५०५५ में) वर्णको आदि लेकर गुणस्थान पर्यन्त भाव कहे गये है व्यवहार नयसे ही जीवके होते हैं परन्तु (शुद्ध) निश्चयनयसे तो इनमें कोई भी जीवके नहीं है। स.सा./१८ मोहम्मदया वु वणिया जे इमे गुणद्वाणा । ते कह हवंति जीवा जे णिच्चमचेदणा उत्ता | ६टा स.सा./आ./६८ एवं रागद्वेषमोहप्रत्ययनकर्म... संयमलब्धिस्थानान्यपि पुद्गल कर्म पूर्वकत्वे सति नित्यमचेतनत्वात्पुद्गल एव न तु जीव इति स्वयमायातं । - जो मोह कर्मके उदयसे उत्पन्न होनेसे अचेतन कहे गये हैं, ऐसे गुणस्थान जीव कैसे हो सकते हैं और इसी प्रकार राग, द्वेष, मोह, प्रत्यय, कर्म, नोकर्म आदि तथा संयमलब्धि स्थान ये सब १९ बातें पुद्गलकर्म जनित होनेसे नित्य अचेतन स्वरूप हैं और इसलिए पुद्गल हैं जीव नहीं, यह बात स्वतः प्राप्त होती है। (इ.सं./टी./१६/५३/३) । वा. अनु. / ९२ णिच्छयणयेण जीवो सागारणगारधम्मदो भिण्णो । == निश्चयनयसे जीव सागार व अनगार दोनों धर्मोसे भिन्न है । प्र.///विमो निरायतु जय जीव कम्मु जगह। अप्पा किंपि विकु णवि णिच्छउ एउ भणेइ ॥ ६५॥ बन्धको या मोक्षको करनेवाला तो कर्म है । निश्चयसे आत्मा तो कुछ भी नहीं करता । (पं. ध. /पु/४५६ ) } न च वृ./१९२ दो जोवसहावो जो रहियो व्यभावम्मेहि सो शुद्धमिच्छयादी समासिओ सुगागीहिं । १९३३ - शुद्धनिश्चय नयसे जीवस्वभाव द्रव्य व भावकर्मोंसे रहित कहा गया है । नि. सा./ता.वृ./१५६ शुद्ध निश्चयतः स भगवान् त्रिकालनिरुपाधिनिरवधिनित्यशुद्धसहजज्ञान सहज दर्शनाभ्यां निजकारणपरमात्मानं स्वयं कार्य परमात्मादि जानाति पश्यति च शुद्ध निश्चयनयसे भगवान् त्रिकाल निरुपाधि निरवधि नित्यशुद्ध ऐसे सहजज्ञान और सहज दर्शन द्वारा निज कारणपरमात्माको स्वयं कार्य परमात्मा होनेपर भी जानते और देखते हैं । प्र. सं./टी./४०/२०६/४ साक्षाद्वधनिश्चयनयेन स्त्रीपुरुषसंयोगरहितपुत्रस्येव सुधारिदासंयोगरहितरविशेषस्येन तेषामुत्पत्तिरेव नास्ति कथमुत्तरं पृथ्वाम इति साक्षात निश्चयनयसे तो जैसे स्त्री व पुरुषसंयोग के बिना पुत्रकी तथा चूना व हल्दीके संयोग बिना सारंगको उत्पत्ति नहीं होती, उसी प्रकार रागद्वेषकी उत्पत्ति हो नहीं होती, फिर इस प्रश्नका उत्तर ही क्या ? (स. सा./ता.वृ./१११/ १७१/२३) प्र. सं. टी/१०/२३५/० में उधृत करचेत् प्रभवेदन्धो नो बन्धो मोचनं कथम् अमन्धे मोचन मैरयों निरर्थक मन्धश्च शुनिश्चययेन नास्ति तथा बन्धपूर्वकमोक्षोऽपि। जिसके भा० २-७० Jain Education International ५५३ V निश्चय व्यवहार नय मन्म होता है उसको हो मोक्ष होती है। शुद्ध निश्चयमय जीवको बन्ध ही नहीं है, फिर उसको मोक्ष कैसा । अतः इस नयमें मुञ्च धातुका प्रयोग ही निरर्थक है। शुद्ध निश्चय नयसे जीवके बन्ध ही नहीं है, तथा बन्ध पूर्वक होनेसे मोक्ष भी नहीं है (प.प्र./टी./१/ ६८/६९/१) 1 द्र.सं./टी./५७/२३६/८ यस्तु शुद्धद्रव्यशक्तिरूपः शुद्धपारिणामिकपरमभावलक्षणपरम निश्चयमोक्ष सच पूर्वमेव जी तिष्ठतीदानों भविष्यतीत्येवं न जो रूपारिणामिक भावरूप परम निश्चय मोक्ष है, वह तो जीव में पहिले ही विद्यमान है, अब प्रगट होगी, ऐसा नहीं है । ६.का./२०/६०/१३ आत्मा हि शुधनिश्चयेन सत्ताचैतन्यबोधादिशु जति शुद्धज्ञानचेतनयायुक्तत्वाचे यिता... । - शुद्ध निश्चयनयसे आत्मा सत्ता, चैतन्य व ज्ञानादि शुभ मागोसे जीता है और शुद्ध ज्ञान चेतनासे युक्त होनेके कारण चेतता है (नि.सा./ता. १) (द्र.सं./टी./३/१२) और भी दे० नय / IV/२/३ ( शुद्धद्रव्यार्थिकनय द्रव्यक्षेत्रादि चारों अपेक्षासे तत्त्वको ग्रहण करता है। २. क्षायिकभावग्राहीकी अपेक्षा फ आ. प./१० निरुपाधिकगुणगुण्यभेदविषयक, शुद्ध निश्चयो यथा केवलज्ञानादयो जीव इति । (स्फटिक) निरुपाधिक गुण व गुणीमें अभेद दर्शानेवाला शुद्ध निश्चयनय है, जैसे केवल ज्ञानादि ही जीव है अर्थात् जीव का स्वभावभूत लक्षण है। . (न. च. / श्रुत/२५); (प्र. सा./ता.वृ./परि./३६८/१२); (पं.का./ता.वृ./ ६१/११३/१२); (द्र.सं./टी./६/१८/८) पं.का./ता.वृ./२०/६०/१७ (शुद्ध) निश्चयेन केवलज्ञानदर्शनरूपशुद्धघोष योगेन युतत्वादुपयोगविशेषता: “मोक्षमोक्षकारणरूपशुपरिणामपरिणमनसमर्थत्वात्... प्रभुर्भवति शुद्धनिश्चयनयेन शुद्धभावानां परिणामानां कतृ वात्कर्ता भवतिः... शुद्धात्मोत्थवीतराग परमानन्दरूप सुखस्य भोक्तृ त्वात् भोक्ता भवति । यह आत्मा शुभ निश्चय नयसे केवलज्ञान व केवलदर्शनरूप शुद्धधोपयोगले युक्त होनेके कारण उपयोगविशेषतावाला है; मोक्ष व मोक्षके कारणरूप शुध परिणामों द्वारा परिणमन करनेमें समर्थ होनेसे प्रभु है, शुद्धध भावोका या शुद्ध भावोंको करता होनेसे कर्ता है और शुद्धधात्मासे उत्पन्न वीतराग परम आनन्दको भोगता होनेसे भोक्ता ई द्र. सं./टी./६/२३/६ शुद्ध निश्चयनयेन परमात्मस्वभावसम्यक् श्रद्धानज्ञानानुष्ठानोत्पन्नसदानन्देवलक्षणं सुखामृत भुक्त इति शुध निश्चयनयसे परमात्मस्वभाव के सम्यकश्रद्धधान, ज्ञान और आचरण से उत्पन्न अविनाशी आनन्दरूप लक्षणका धारक जो सुखामृत है, उसको ( आत्मा ) भोगता है 1 ६. एकदेश शुद्ध निश्चय नयका लक्षण व उदाहरण नोट - ( एकदेश शुद्धभावको जीवका स्वरूप कहना एकदेश शुध निश्चयनय है । यथा - ) ६. सं/टी./४०/२०५ अत्राह शिष्य-रागद्वेषादय कि कर्मजनिता किं जीवनिता इति तत्रोत्तरं स्त्रीपुरुषसंयोगोत्पन्नपुत्र सुपाहर द्रासंयोगोत्पन्नवर्ण विशेष इवोभयसंयोगजनिता इति । पश्चान्नयनिवाशेन विवक्षितेकदेशशुद्ध निश्चयेन कर्मजनिता भण्यन्ते ।प्रश्न - रागद्वेषादि भाव कर्मोंसे उत्पन्न होते हैं या जीवसे 1 उत्तरस्त्री व पुरुष इन दोनोंके संयोगसे उत्पन्न हुए पुत्रके समान और चूना तथा हल्दी इन दोनोंके मेलसे उत्पन्न हुए लालरंगके समान ये रागद्वेषादि कषाय जीव और कर्म इन दोनोंके संयोगसे उत्पन्न होते हैं। जब नकी विवक्षा होती है तो विवक्षित एकदेश शुद्धनिश्वयनयसे ये कषाय कर्म से उत्पन्न हुए कहे जाते हैं। (अशुद्ध निश्चयसे जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश = For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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