Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 2
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 559
________________ नय ५५१ IV द्रव्याथिक व पर्यायाथिक नोट-[ सूक्ष्म ऋजुसूत्रनय शुद्धपर्यायार्थिक नय है और स्थूल ऋजुसूत्र अशुद्ध पर्यायार्थिकनय है। (दे० नय/III/१/३,४,७) तथा व्यवहार नय भी कथंचित अशुद्ध पर्यायाथिकनय माना गया है-(दे० नय/ V/४/७)] २. पर्यायार्थिक नयके छ: भेदोंका निर्देश आ.प./५ पर्यायार्थिकस्य षड् भेदा उच्यन्ते-अनादिनित्यपर्यायार्थिको, सादिनित्यपर्यायार्थिको,..... स्वभावो नित्याशुद्धपर्यायाथिको,... भावोऽनित्याशुद्धपर्यायार्थिको, ... कर्मोपाधिनिरपेक्षस्वभावोऽनित्यशुद्धपर्यायाथिको, ... कर्मोपाधिसापेक्षस्वभावोऽनित्याशुद्धपर्यायार्थिको । पर्यायार्थिक नयके छ भेद कहते हैं-१. अनादि नित्य पर्यायार्थिक नय; २. सादिनित्य पर्यायाथिकनय; ३. स्वभाव नित्य अशुद्धपर्यायाथिकनय; ४ स्वभाव अनित्य अशुद्धपर्यायाथिकनय: १. कर्मोपाधिनिरपेक्षस्वभाव अनित्य शुद्धपर्यायार्थिक नय: ६. कर्मोपाधि सापेक्षस्वभाव अनित्य अशुद्धपर्यायाथिकनय । ३. उत्पाद भी निहेंतुक है क. पा.१/१३-१४/३११२/२२८/५ उत्पादोऽपि निर्हेतुकः । तद्यथानोत्पद्यमान उत्पादयति; द्वितीयक्षणे त्रिभुवनाभावप्रसङ्गात् । नोत्पन्न उत्पादयति क्षणिकपक्षक्षतेः। न विनष्ट उत्पादयति; अभावाद्भावोत्पत्तिविरोधात् । न पूर्व विनाशोत्तरोत्पादयोः समानकालतापि कार्यकारणभावसमर्थिका। तद्यथा-नातीतार्थाभावत उत्पद्यते; भावाभावयोः कार्यकारणभावविरोधात । न तद्भावात; स्वकाल एव तस्थोत्पत्तिप्रसगाव । किंच, पूर्वक्षणसत्ता यतः समानसंतानोत्तरार्थक्षणसत्त्वविरोधिनी ततो न सा तदुत्पादिका; विरुद्धयोस्सत्तयोरुत्पाद्योत्पादकभावविरोधात् । ततो निर्हेतुक उत्पाद इति सिद्धम् । = इस ऋजुसूत्रनयकी दृष्टि में उत्पाद भी निर्हेतुक होता है। वह इस प्रकार कि-जो अभी स्वयं उत्पन्न हो रहा, उससे उत्पत्ति माननेमें दूसरे ही क्षण तीन लोकोंके अभावका प्रसंग प्राप्त होता है। जो उत्पन्न हो चुका है, उससे उत्पत्ति माननेमें क्षणिक पक्षका विनाश प्राप्त होता है। जो नष्ट हो चुका है, उससे उत्पत्ति माने तो अभावसे भावकी उत्पत्ति होने रूप विरोध प्राप्त होता है। पूर्वक्षणका विनाश और उत्तरक्षणका उत्पाद इन दोनोंमें परस्पर कार्यकारण भावकी समर्थन करनेवाली समानकालता भी नहीं पायी जाती है। वह इस प्रकार कि-अतीत पदार्थ के अभावसे नवीन पदार्थकी उत्पत्ति मानें तो भाव और अभावमें कार्यकारण भाव माननेरूप विरोध प्राप्त होता है। अतीत अर्थ के सद्भावसे नवीन पदार्थका उत्पाद मानें तो अतीतके सद्भावमें ही नवीन पदार्थ की उत्पत्तिका प्रसंग आता है। दूसरे, चूंकि पूर्व क्षणकी सत्ता अपनी सन्तानमें होनेवाले उत्तर अर्थक्षणको सत्ताकी विरोधिनी है, इसलिए पूर्व क्षणकी सत्ता उत्तर क्षणको उत्पादक नहीं हो सकती है। क्योंकि विरुद्ध दो सत्ताओंमें परस्पर उत्पाद्य-उत्पादकभावके माननेमें विरोध आता है । अतएव ऋजुसूत्रनयको दृष्टिसे उत्पाद भी निर्हेतुक होता है, यह सिद्ध होता है। १०. सकल व्यवहारका उच्छेद करता है रा. वा/१/३३/७/85/८ सर्व व्यवहारलोप इति चेत; न; विषयमात्रप्रदर्शनाव, पूर्वनयवक्तव्यात संव्यवहारसिद्धिरिति शंका- इस प्रकार इस नयको माननेसे तो सर्व व्यवहारका लोप हो जायगा। उत्तरनहीं; क्योंकि यहाँ केवल उस नयका विषय दर्शाया गया है। व्यवहारकी सिद्धि इससे पहले कहे गये व्यवहारनयके द्वारा हो जाती है (दे० नयv/४) । (क.पा./२/१३-१४/६१६६/२३२/२), (क.पा./१/१३१४/१२२८/२७८/४)। ३. पर्यायार्थिक नयषटकके लक्षण न. च /श्रुत/पृ.६ भरतादिक्षेत्राणि हिमवदादिपर्वताः पद्मादिसरोवराणि, सुदर्शनादिमेरुनगा. लवणकालोदकादिसमुद्रा' एतानि मध्यस्थितानि कृत्वा परिणतासंख्यातद्वीपसमुद्रा' श्वभ्रपटलानि भवनवासिबाणव्यन्तरविमानानि चन्द्रार्कमण्डलादिज्योतिर्विमानानि सौधर्मकल्पादिस्वर्ग पटलानि यथायोग्यस्थाने परिणताकृत्रिमचैत्यचैत्यालया. मोक्षशिलाश्च बृहबातवलयाश्च इत्येवमाद्यनेकाश्चर्यरूपेण परिणतपुद्गलपर्यायाद्यनेकद्रव्यपर्यायैः सह परिणतलोकमहास्कन्धपर्यायाः त्रिकालस्थिताः सन्तोऽनादिनिधना इति अनादिनित्यपर्यायाथिकनय' 1१। शुद्धनिश्चयनयविवक्षामकृत्वा सकलकर्मक्षयोद्भूतचरमशरीराकारपर्यायपरिणतिरूपशुद्धसिद्धपर्यायः सादिनित्यपर्यायाथिकनय' १२॥ अगुरुलघुकादिगुणा. स्वभावेन षट्हानिषड् वृद्धिरूपक्षणभङ्गपर्यायपरिणतोऽपरिणतसद्व्यानन्तगुणपर्यायासंक्रमणदोषपरिहारेण द्रव्यं नित्यस्वरूपेऽवतिष्ठमानमिति सत्तासापेक्षस्वभाव-नित्यशुद्ध-पर्यायार्थिकनय. ३। सद्गुण विवक्षाभावेन धौव्योत्पत्तिव्ययाधीनतया द्रव्यं विनाशोत्पत्तिस्वरूपमिति सत्तानिरपेक्षोत्पादव्ययग्राहकस्वभावानित्याशुद्धपर्यायार्थिकनयः ।४। चराचरपर्यायपरिणतसमस्तसंसारिजीवनिकायेषु शुद्धसिद्धपर्यायविवक्षाभावेन कर्मोपाधिनिरपेक्ष विभावनित्यशुद्धपर्यायाथिकनय' ।। शुद्धपर्यायविवक्षाभावेन कर्मोपाधिसंजनितनारकादिविभावपर्याया' जीवस्वरूपमिति कर्मोपाधिसापेक्ष-बिभावानित्याशुद्धपर्यायाथिकनय ६३ -१. भरत आदि क्षेत्र, हिमवान आदि पर्वत, पद्म आदि सरोवर, सुदर्शन आदि मेरु, लवण व कालोद आदि समुद्र, इनको मध्यरूप या केन्द्ररूप करके स्थित असंख्यात द्वीप समुद्र, नरक पटल, भवनवासी व व्यन्तर देवोंके विमान, चन्द्र व सूर्य मण्डल आदि ज्योतिषी देवोके विमान, सौधर्म कल्प आदि स्वर्गोके पटल, यथायोग्य स्थानोंमें परिणत अकृत्रिम चैत्यचैत्यालय, मोक्षशिला, बृहद् वातवलय तथा इन सबको आदि लेकर अन्य भी आश्चर्य रूप परिणत जो पुद्गलकी पर्याय तथा उनके साथ परिणत लोकरूप महास्क्रन्ध पर्याय जो कि त्रिकाल स्थित रहते हुए अनादिनिधन हैं, इनको विषय करनेवाला अर्थात् इनकी सत्ताको स्वीकार करनेवाला अनादिनित्य पर्यायार्थिक नय है। २. ( परमभाव ग्राहक ) शुद्ध निश्चयनयको गौण करके, सम्पूर्ण कर्मोंके क्षयसे उत्पन्न तथा चरमशरीरके आकाररूप पर्यायसे परिणत जो शुद्ध सिद्धपर्याय है, उसको विषय करनेवाला अर्थात उसको सत् समझनेवाला सादिनित्य पर्यायार्थिक नय है । ३ (व्याख्याकी अपेक्षा यह नं.४ है ) पदार्थ में विद्यमान गुणोंकी अपेक्षाको मुख्य न करके उत्पाद व्यय श्रौव्यके आधीनपने रूपसे द्रव्यको विनाश व उत्पत्ति ४. शुद्ध व अशुद्ध पर्यायाथिकनय निर्देश १. शुद्ध व अशुद्ध पर्यायार्थिकनयके लक्षण आ.प./ शुद्धपर्याय एवार्थः प्रयोजनमस्येति शुद्धपर्यायाथिक. । अशुद्धपर्याय एवार्थ. प्रयोजनमस्येत्यशुद्धपर्यायार्थिक'। - शुद्ध पर्याय अर्थात समयमात्र स्थायी, षड्गुण हानिवृद्विध द्वारा उत्पन्न, सूक्ष्म अर्थपर्याय ही है प्रयोजन जिसका वह शुद्ध पर्यायार्थिक नय है। और अशुद्ध पर्याय अर्थात चिरकाल स्थायी, संयोगी व स्थूल व्यंजन पर्याय हो है प्रयोजन जिसका वह अशुद्ध पर्यायाथिक नय है। न.च./श्रत/पृ.४४ शुद्धपर्यायार्थेन चरतीति शुद्धपर्यायार्थिकः । अशुद्धपर्यायार्थेन चरतीति अशुद्धपर्यायर्थिकः । = शुद्ध पर्यायके अर्थ रूपसे आचरण करनेवाला शुद्वपर्यायार्थिक नय है, और अशुद्ध पर्यायके अर्थरूपसे आचरण करनेवाला अशुद्ध पर्यायाथिकनय है। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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