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नय
३. कोई किसीके समान नहीं है।
क. पा./१/१३-१४/१९६३ / २३० / ३ नास्य नयस्य समानमस्तिः सर्वथा द्वयोः समानत्वे एकवापत्तेः। न कथंचित्समानतापि विरोधात् । इस अजुनकी दृष्टिमें कोई किसीके समान नहीं है, क्योंकि दोको सर्वथा समान मान लेनेपर उन दोनोंमें एकत्वकी आपत्ति प्राप्त होती है। कथंचित् समानता भी नहीं है, क्योंकि ऐसा माननेमें विरोध आता है।
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४. ग्राह्यग्राहकभाव सम्भव नही
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क.पा./१/१३-१४/१६५/२३०/८ नास्य नयस्य ग्राह्यग्राहकभावोऽप्यस्ति । तद्यथा - नासंबद्धोऽर्थो गृह्यते; अव्यवस्थापत्तेः । न संबद्धः तस्यातीतत्वाद, चक्षुषा व्यभिचाराच्च । न समानो गृह्यते; तस्यासत्त्वात् मनस्कारेण व्यभिचाराद इस सूत्र नयको दृष्टिमें ब्राह्मग्राहक भाव भी नहीं बनता । वह ऐसे कि - असम्बद्ध अर्थ के ग्रहण माननेमें अव्यवस्थाकी आपत्ति और सम्बद्धका ग्रहण माननेमें विरोध आता है, क्योंकि यह पदार्थ ग्रहणकालमें रहता हो नहीं है, तथा चक्षु इन्द्रियके साथ व्यभिचार भी आता है, क्योंकि चक्षु इन्द्रिय अपनेको नहीं जान सकती । समान अर्थका भी ग्रहण नहीं होता है, क्योंकि एक तो समान पदार्थ है ही नहीं (दे० ऊपर) और दूसरे ऐसा मानने से मनस्कारके साथ व्यभिचार आता है अर्थात् समान होते हुए भी पूर्वज्ञान उत्तर ज्ञानके द्वारा गृहीत नहीं होता है।
५. वाच्यवाचकभाव सम्भव नहीं
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क. पा./१/१३ - १४/१६६/२३१/३ नास्य शुद्धस्य ( नयस्य ) वाच्यवाचकभावोऽस्ति । तद्यथा- न संबद्धार्थः शब्दवाच्यः तस्यातीतत्वात् । नासंबद्धः अव्यवस्थापते. नार्थेन शब्द उत्पाद्यते ताम्बादिभ्यसम्भाद न शब्दादर्थ उत्पद्यते शब्दोत्पते प्रागमि अर्थसत्त्वसम्भात् । न शब्दार्थ योस्तादात्म्यलक्षण प्रतिबन्ध करणाधिकरणभेदेन प्रतिपन्नभेदयोरेकत्वविरोधात् क्षुरमोदकशब्दोचारणे मुखस्य पाटनपूरणप्रसङ्गाच्च । न विकल्प शब्दवाच्यः अत्रापि बाह्यार्थोक्तदोषप्रसङ्गात् । ततो न वाच्यवाचकभाव इति । - १. इस नयको दृष्टिमें वाच्यवाचक भाव भी नहीं होता। वह ऐसे ऋजुसूत्र कि-शब्दप्रयोग कालमें उसके वाच्यभूत अर्थका अभाव हो जा सम्बद्ध अर्थ उसका वाच्य नहीं हो सकता । असम्बद्ध अर्थ भी वाच्य नहीं हो सकता, क्योंकि ऐसा माननेसे अव्यवस्थादोषकी आपत्ति आती है । २. अर्थ से शब्दको उत्पत्ति मानना भी ठीक नहीं है. क्योंकि तालु आदिसे उसकी उत्पत्ति पायी जाती है तथा उसी प्रकार शब्दसे भी अर्थकी उत्पत्ति नहीं मानी जा सकती क्योकि शब्दोत्पत्तिसे पहिले भी अर्थका सद्भाव पाया जाता है । ३. शब्द व अर्थ में तादात्म्य लक्षण सम्बन्ध भी नहीं है, क्योंकि दोनोंको ग्रहण करनेवाली इन्द्रियाँ तथा दोनोंका आधारभूत प्रदेश या क्षेत्र भिन्न-भिन्न है । अथवा ऐसा माननेपर 'छुरा' और 'मोदक' शब्दोंको उच्चारण करनेसे मुख कटनेका तथा पूर्ण होनेका प्रसंग आता है । ४ अर्थ की भाँति विकल्प अर्थात् ज्ञान भी शब्दका वाच्य नही है, क्योंकि यहाँ भी ऊपर दिये गये सर्व दोषोंका प्रसंग आता है । अतः वाच्यवाचक भाव नहीं है।
दे० नय | III /-/ ४-६ ( वाक्य, पदसमास व वर्णसमास तक सम्भव नहीं ) ।
दे० नय / I/४/५ ( वाच्यवाचक भावका अभाव है तो यहाँ शब्दव्यवहार कैसे सम्भव है ) |
आगम /४/४ उपरोक्त सभी तर्कोंको पूर्व पक्षकी कोटिमें रखकर उत्तर पक्षमें कथंचित् वाच्यवाचक भाव स्वीकार किया गया है।
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IV द्रव्याथिक व पर्यायार्थिक
६. बध्यबन्धक आदि अन्य भी कोई सम्बन्ध सम्भव नहीं क.पा.१/१३-१४/११/२२८/३ ततोऽस्य नयस्य न बन्ध्यबन्धक - मध्यघातक दाहादाहक- संसारादयः सन्ति। इसलिए इस अजुनकी दृष्टिमें बन्ध्यबन्धकभाव, बध्यघातकभाव, दाह्यदाहकभाव और संसारादि कुछ भी नहीं बन सकते हैं।
९. कारण कार्यभाव संभव नहीं
१. कारणके बिना ही कार्यकी उत्पत्ति होती है
रा. वा/१/१/२४/८/३२ नेमी ज्ञानदर्शनशब्दी करणसाधनौ । किं तर्हि । कर्तृ साधनी तथा चारित्रशब्दोऽपि न कर्मसाधनः किं तहिं । तु साधनः । कथम् एवंभूतनयवशात् एवं नमकी दृष्टिसे ज्ञान, दर्शन व चारित्र ये तीनों ( तथा उपलक्षणसे अन्य सभी) शब्द कर्म साधन नही होते, कर्तासाधन हो होते हैं ।
क. पा. १/१३-१४/३२८४ / ३१९/३ कर्तृ साधन' कषायः । एदं णेगमसंगहववहारउदातत्य करणभावसंवादो तिहं राहण्याणं ग केण वि कसाओ; तत्थ कारणेण बिणा कज्जुप्पत्तीदो । 'कषाय शब्द कतृ ' साधन है', ऐसी बात नैगम ( अशुद्ध) संग्रह, व्यवहार ब (स्थूल) सूत्र नमकी अपेक्षा समझनी चाहिए क्योंकि, इन नयों में कार्य कारणभाव सम्भव है । परन्तु (सूक्ष्म ऋजुसूत्र ) शब्द, समभिरूढ व एवंभूत इन तीनों शब्द नयोंकी अपेक्षा कषाय किसी भी साधनसे उत्पन्न नहीं होती है; क्योंकि इन नयोंको दृष्टिमें कारण के बिना ही कार्यको उत्पत्ति होती है।
घ. १२/४.२.८.१३/२१२/१ तिष्णं संदणयागं णाणावरणीयपोग्गतन्त्रदोदयजणिदणाणं वेयणा । ण सा जोगकसाएहिंतो उप्पज्जदे णिस्ससीदो सत्तिभिसेसस्स उत्पत्ति मिरोहाशे गोइयगदकम्मदव्यधादो, पज्जयवदिरित्तदव्वाभावादो। =तीनों शब्दनयोंकी अपेक्षा ज्ञानावरणीय सम्बन्धी पौगलिक स्वाधीक उदयसे उत्पन्न अज्ञानको ज्ञानावरणीय बेदना कहा जाता है। परन्तु वह (ज्ञानावरणीय वेदना) योग व कषायसे उत्पन्न नहीं हो सकती, क्योंकि जिसमें जो शक्तिनहीं है, उससे उस शक्ति विशेषकी उत्पत्ति माननेमें विरोध आता है । तथा यह उदयगत कर्मस्कन्धसे भी उत्पन्न नहीं हो सकती क्योंकि, इन नयोंमें) पर्यायों से भिन्न द्रव्यका अभाव है ।
२. विनाश निर्हेतुक होता है
क. पा. १/१३-१४ / १९१० / २२६/- अस्य नयस्य निर्हेतुको विनाशः । तद्यथा- न तावत्प्रसज्यरूपः परत उत्पद्यते; कारकप्रतिषेघे व्यापृतास्परस्माइ घटाभावनिरोधात् न पर्युदासी व्यतिरिक्त उत्पयते; ततो व्यतिरिक्तघटोत्पत्तविनाशनिरोधाय । नाव्यति रिक्तः; उत्पन्नस्योत्पत्तिविरोधात् । ततो निर्हेतुको विनाश इति सिद्ध इस नुनको दृष्टिमें विनाश निर्हेतुक है। वह इस प्रकार कि - प्रसज्यरूप अभाव तो परसे उत्पन्न हो नहीं सकता; क्योंकि, वहाँ क्रियाके साथ निषेध मापक 'न'का सम्बन्ध होता है । अतः क्रियाका निषेध करनेवाले उसके द्वारा घटका अभाव माननेमें विरोध आता है । अर्थात् जब वह क्रियाका ही निषेध करता रहेगा तो विनाशरूप अभावका भी कर्ता न हो सकेगा । पर्युदासरूप अभाव भी परसे उत्पन्न नहीं होता है। पर्युदाससे व्यतिरिक्त घटकी उत्पत्ति माननेपर विवक्षित पटके विनाशके साथ विरोध आता है । घटसे अभिन्न पर्युदासकी उत्पत्ति मानने पर दोनों की उत्पत्ति एकरूप हो जाती है, तब उसकी घटसे उत्पति हुई नहीं कहीं जा सकती। और घट तो उस अभावसे पहिले ही उत्पन्न हो चुका है, अतः उत्पन्नकी उत्पत्ति माननेमें विरोध आता है। इसलिए विनाश निर्हेतुक है यह सिद्ध होता है । ( ध. ६/४, १० ४५/१७५/२) ।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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