Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 2
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 555
________________ नय ५४७ IV द्रव्याथिक व पर्यायार्थिक हैं, द्रव्य नामकी कोई वस्तु नहीं है। (ध.६/४,१,४५/१७४/७); (क. पा. १९१३-१४/०१/२२६/५) दे० आगे शीर्षक नं.८ अजुसत्र नयकी दृष्टि में विशेष्य-विशेषण, शेयज्ञायक; वाच्य-वाचक, बन्ध्य-बन्धक आदि किसी प्रकारका भी सम्बन्ध सम्भव नहीं है। ३. काक कृष्ण नहीं हो सकता रा. वा./२/३३/७/१७/१७न कृष्णः काकः उभयोरपि स्वात्मकत्वात्कृष्णः कृष्णात्मको न काकात्मकः । यदि काकात्मकः स्यात; भ्रमरादीनामपि काकत्वप्रसङ्गः । काकश्च काकात्मको न कृष्णात्मक.; यदि कृष्णात्मकः, शुक्लकाकाभावः स्यात्। पञ्चवर्णत्वाच्च, पित्तास्थिरुधिरादोना पीतशुक्लादिवर्णत्वाव, तदन्यतिरेकेण काकाभावाच्च । -इसकी दृष्टि में काक कृष्ण नहीं होता, दोनों अपने-अपने स्वभावरूप हैं। जो कृष्ण है वह कृष्णात्मक ही है काकात्मक नहीं; क्योंकि. ऐसा माननेपर भ्रमर आदिकोंके भी काक होनेका प्रसंग आता है। इसी प्रकार काक भी काकात्मक ही है कृष्णात्मक नहीं, क्योंकि ऐसा माननेपर सफेद काकके अभावका प्रसंग आता है। तथा उसके पित्त अस्थि व रुधिर आदिको भी कृष्णताका प्रसंग आता है, परन्तु वे तो पीत शुक्ल व रक्त वर्ण वाले हैं और उनसे अतिरिक्त काक नहीं। (घ. ४/४,१,४५/१७४/३); (क. पा.१/१३-१४/६१८८/२२६/२) ४. सभी पदार्थ एक संख्यासे युक्त हैं प. ख. १२/४,२,६/सू. १४/३०० सदुजुमुदाणं णाणावरणीययणा जीवस्स ॥१४॥ ध.१२/४,२,६,१४/३००/१० किमळं जीव-वेयणाणं सद्दुजुमुदा बहुवयण णेच्छति । ण एस दोसो, महत्ताभावादो। तं जहासव्वं पि बत्थु एगसंखाविसिट्ट, अण्णहा तस्साभावप्पसंगादो। ण च एगत्तपडिग्गहिए वत्थुम्हि दुभावादीणं संभवो अस्थि, सीदुण्हाण व तेसु सहाणबट्ठाणलक्वणविरोहदंसणादो। -शब्द और जुसूत्र नयकी अपेक्षा ज्ञानावरणीयकी वेदना जीवके होती है ।१४। प्रश्न-ये नय बहुवचनको क्यों नहीं स्वीकार करते ! उत्तर-यह कोई दोष नहीं; क्योंकि, यहाँ बहुत्वकी सम्भावना नहीं है। वह इस प्रकार कि-सभी वस्तु एक संख्यासे संयुक्त हैं। क्योंकि. इसके बिना उसके अभावका प्रसंग आता है। एकत्वको स्वीकार करनेवाली वस्तुमें द्वित्वादिकी सम्भावना भी नहीं है, क्योंकि उनमें शीत व उष्णके समान सहानवस्थानरूप विरोध देखा जाता है । ( और भी देखो आगे शीर्षक नं.४/२ तथा ६)। घ.१/४,१५६/२६६/६ उजुसुदे किमिदि अणेयसंखा णत्थि । एयसहस्स एयपमाणस्स य एगरथं मोत्तूण अणेगस्थेसु एक्ककाले पवृत्तिविरोहादो। ण च सह-पमाणाणि बहुसत्तिजुत्ताणि अस्थि, एक्कम्हि विरुद्धाणेयसत्तीणं संभवविरोहादो एयसंख मोत्तण अणेयसंखाभावादो वा ।प्रश्न-ऋजुसूत्रनयमें अनेक संख्या क्यों संभव नहीं। उत्तर-चू कि इस नयको अपेक्षा एक शब्द और एक प्रमाणको एक अर्थको छोड़कर अनेक अर्थों में एक कालमें प्रवृत्तिका विरोध है, अत. उसमें एक संख्या संभव नहीं है। और शब्द व प्रमाण बहुत शक्तियोंसे युक्त हैं नहीं क्योंकि, एकमें विरुद्ध अनेक शक्तियोंके होनेका विरोध है। अथवा एक संख्याको छोड़कर अनेक संख्याओंका वहाँ ( इन नयोंमें) अभाव है (क.पा. ११३-१४/२७७/३१३/१, ३१५/१)। १. क्षेत्रकी अपेक्षा विषयकी एकत्वता १. प्रत्येक पदार्थका अवस्थान अपनेमें ही है स.सि./१/३३/१४४/९ अथवा यो यत्राभिरूढ़ः स तत्र समेत्याभिमुख्येना रोहणात्समभिरूडः। यथा क्व भवानास्ते। आरमनीति । कुतः। वस्वन्तरे वृत्त्यभावात् । यद्यन्यस्यान्यत्र वृत्तिः स्याद, ज्ञानादीनां रूपादीनां चाकाशे वृत्तिः स्यात् । अथवा जो जहाँ अभिरूत है वह वहाँ सम अर्थात् प्राप्त होकर प्रमुखतासे रूढ़ होनेके कारण समभिरूढनय कहलाता है ! यथा-माप कहाँ रहते हैं। अपनेमें, क्योंकि अन्य वस्तुकी अन्य वस्तुमै वृत्ति नहीं हो सकती। यदि अन्यकी अन्यमें वृत्ति मानी जाये तो ज्ञानादि व रूपादिकी भी आकाशमे वृत्ति होने लगे। (रा.वा./१/३३/१०/१/२)। रा. वा./१/३३/७/80/१६ यमेवाकाशदेशमवगाई समर्थ आत्मपरिणाम वा तत्रैवास्य वसतिः । - जितने आकाश प्रदेशोंमें कोई ठहरा है, उतने ही प्रदेशों में उसका निवास है अथवा स्वात्मामें; अतः ग्रामनिवास गृहनिवास आदि व्यवहार नहीं हो सकते। (ध.१/४,१,४५/१७४/२); ( क. पा. १/१३-१४/१८७/२२६/१) । २. वस्तु अखण्ड व निरवयव होती है ध.१२/४,२,६,१५/३०१/१ ण च एगत्तविसिट्ट वत्थु अस्थि जेण अगत्तस्स तदाहारो होज्ज। एक्कम्मि खंभम्मि मूलग्गमज्मभेएण अगेयत्तं दिस्सदि त्ति भणिदे ण तत्थ एयत्तं मोत्तूण अणेयत्तस्स अणुवलंभादो। ण ताव थंभगयमणेयत्तं, तत्थ एयत्तुवलंभादो। ण मूलगयमग्गगयं मझगयं वा, तत्थ वि एयत्तं मोत्तूण अणेयत्ताणुवसंभादी। ण तिण्णिमेगेगवत्थूणं समूहो अणेयत्तस्स आहारो, तव्व दिरेगेण तस्समूहाणुवलंभादो। तम्हा णत्थि बहुत्तं । = एकत्वसे अतिरिक्त वस्तु है भी नहीं, जिससे कि वह अनेकत्वका आधार हो सके। प्रश्न-एक खम्भेमें मूल अग्र व मध्यके भेदसे अनेकता देखी जाती है। उत्तरनहीं, क्योंकि, उसमें एकत्वको छोड़कर अनेकत्व पाया नहीं जाता। कारण कि स्तम्भमें तो अनेकत्वकी सम्भावना है नहीं, क्योंकि उसमें एकता पायी जाती है। मुलगत, अग्रगत अथवा मध्यगत अनेकता भी सम्भव नहीं है, क्योंकि उनमें भी एकत्वको छोड़कर अनेकता नहीं पायी जाती। यदि कहा जाय कि तीन एक-एक वस्तुओका समूह अनेकताका आधार है, सो यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि उससे भिन्न उनका समूह पाया नहीं जाता। इस कारण इन नयोंकी अपेक्षा बहुत्व सम्भव नहीं है। ( स्तम्भादि स्कन्धोंका ज्ञान भ्रान्त है। वास्तव में शुद्ध परमाणु ही सद है (दे० आगे शीर्षक नं.८/२)। क. पा. १/१३-१४/१६३/२३०/४ ते च परमाणवो निरवयवाः ऊधिो मध्यभागाद्यवयवेषु सत्सु अनवस्थापत्तेः, परमाणोर्वापरमाणुत्वप्रसङ्गाच्च । - ( इस ऋजुसूत्र नयकी दृष्टि में सजातीय और विजातीय उपाधियोंसे रहित ) वे परमाणु निरवयव है, क्योंकि उनके ऊर्ध्वभाग, अधोभाग और मध्यभाग आदि अवयवोंके माननेपर अनवस्था दोषकी आपत्ति प्राप्त होती है, और परमाणुको अपरमाणुपनेका प्रसंग प्राप्त होता है। (और भी दे० नय/IV//७ में स. म.)। ३. पलालदाह सम्भव नहीं श.वा./१/३३/७/80/२६ न पलालादिदाहाभाव:-.... यत्पलालं तरहतीति चेवः न; सावशेषात् । ...अवयवानेकरवे यद्यवयवदाहात सर्वत्र दाहोऽवयवान्तरादाहाद ननु सर्वदाहाभावः। अथ दाहः सर्वत्र कस्मान्नादाहः । अतोन दाहः । एवं पानभोजनादिव्यवहाराभावः । - इस ऋजुसूत्र नयकी दृष्टिमें पलालका दाह नहीं हो सकता। जो पलाल है वह जलता है यह भी नहीं कह सकते; क्योंकि, बहुत पलाल 'बिना जला भी शेष है। यदि अनेक अवयव होनेसे कुछ अवयवोंमें दाहकी अपेक्षा लेकर सर्वत्र दाह माना जाता है, तो कुछ अवयवोंमें अदाहकी अपेक्षा लेकर सर्वत्र अदाह क्यों नहीं माना जायेगा ! अतः पान-भोजनादि व्यवहारका अभाव है। ध.६/४,१,४५/१७५/हन पलालावयवी दह्यते, तस्यासस्वात्। नावयवा दह्यन्ते, निरवयवत्वतस्तेषामप्यसत्त्वाच । सपलाल अवयवीका दाह नहीं होता, क्योंकि, अवयवीकी (इस नयमें सत्ता ही नहीं है। न जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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