Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 2
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

View full book text
Previous | Next

Page 524
________________ नय I नय सामान्य ध.५/१,६,१/३/११ तं पि कधं णव्वदे। संगहासंगह्वदिरित्ततविसयाणुवलं भादो । प्रश्न-यह कैसे जाना कि तीसरे प्रकारका कोई नय नहीं है ? उत्तर-क्योंकि संग्रह और असंग्रह अथवा सामान्य और विशेषको छोड़कर किसी अन्य नयका विषयभूत कोई पदार्थ नहीं पाया जाता। २. नय-प्रमाण सम्बन्ध प्रवृत्ति नहीं हो रही है, क्योंकि वे तीनों सम्पूर्ण देश व कालके अर्थोको विषय करनेको समर्थ नहीं है. ऐसा विशेषरूपसे निर्णीत हो चुका है। (और नयज्ञानकी प्रवृत्ति सम्पूर्ण देशकालवर्ती वस्तुका समीचीन ज्ञान होनेपर ही मानी गयी है-दे० नय/II/२)। उत्तर-आपकी बात युक्त है और वह हमें इष्ट है। प्रश्न-त्रिकालगोचर अशेष पदार्थोके अंशों में वृत्ति होनेके कारण केवलज्ञानको नयका मूल मान लें तो । उत्तर-यह कहना युक्त नहीं है, क्योंकि अपने विषयों की परोक्षरूपसे विकल्पना करते हुए ही नयकी प्रवृत्ति होती है, प्रत्यक्ष करते हुए नहीं। किन्तु केवलज्ञानका प्रतिभास तो स्पष्ट अर्थात् प्रत्यक्ष होता है। अतः परिशेष न्यायसे श्रुतज्ञानको मूल मानकर ही नयज्ञानोंकी प्रवृत्ति होना सिद्ध है। १. नय व प्रमाणमें कथंचित् अभेद ध.१/१,१,१/८०/६ कथं नयानां प्रामाण्यं । न प्रमाणकार्याणां नयानामुप चारत. प्रामाण्याविरोधात् । -प्रश्न-नयोंमे प्रमाणता कैसे सम्भव है। उत्तर-नहीं, क्योंकि नय प्रमाण के कार्य हैं (दे० नय/II/२), इसलिए उपचारसे नयों में प्रमाणताके मान लेनेमे कोई विरोध नहीं आता। स्या.म./२८/३०६/२१ मुख्यवृत्त्या च प्रमाणस्यैव प्रामाण्यम् । यच्च अत्र नयानां प्रमाणतुल्यकक्षतारख्यापनं तव तेषामनुयोगद्वारभूततया प्रज्ञापनाङ्गत्वज्ञापनार्थम् । -मुख्यतासे तो प्रमाणको ही प्रमाणता (सत्यपना है, परन्तु अनुयोगद्वारसे प्रज्ञापना तक पहुँचनेके लिए नयौंको प्रमाणके समान कहा गया है। ( अर्थात् सम्यग्ज्ञान की उत्पत्तिमें कारणभूत होनेसे नय भी उपचारसे प्रमाण है।) पं.ध./पू./६७६ ज्ञानविशेषो नय इति ज्ञानविशेष. प्रमाणमिति नियमात् । उभयोरन्तर्भेदो विषय विशेषान्न वस्तुतो। जिस प्रकार नय ज्ञानविशेष है उसी प्रकार प्रमाण भी ज्ञान विशेष है, अत' दोनोंमें वस्तुतः कोई भेद नहीं है। २. नय व प्रमाणमें कथचित् भेद ध,६/४,१,४५/१६३/४ प्रमाणमेव नयः इति केचिदाचक्षते, तन्न घटते; नयानामभावप्रसंगाव । अस्तु चेन्न नयाभावे एकान्तव्यवहारस्य दृश्यमानस्याभावप्रसङ्गात् । -प्रमाण ही नय है, ऐसा कितने ही आचार्य कहते हैं । परन्तु यह घटित नहीं होता, क्योंकि ऐसा माननेपर नयोंके अभावका प्रसंग आता है। यदि कहा जाये कि नयों का अभाव हो जाने दो, सो भी ठीक नहीं है, क्योंकि ऐसे देखे जानेवाले ( जगत्प्रसिद्ध) एकान्त व्यवहारके (एक धर्म द्वारा वस्तुका निरूपण करनेरूप व्यवहारके) लोपका प्रसंग आता है। दे० सप्तभंगी/२ (स्यात्कारयुक्त प्रमाणवाक्य होता है और उससे रहित नय-वाक्य )। पं.ध./पू./१०७,६७४ ज्ञानविकल्पो नय इति तत्रेयं प्रक्रियापि संयोज्या। ज्ञानं ज्ञानं न नयो नयोऽपि न ज्ञान मिह विकल्पत्वात ५०७१ उभयोरन्तर्भे दो विषयविशेषान्न वस्तुतः १६७६।-ज्ञानके विकल्पको नय कहते है, इसलिए ज्ञान ज्ञान है और नय नय है। ज्ञान नय नहीं और नय शान नहीं। ( इन दोनोंमें विषयकी विशेषतासे ही भेद हैं, वस्तुतः नहीं)। ३. श्रुत प्रमाणमें ही नय होती है अन्य ज्ञानों में नहीं श्लो.वा.२/१/६/श्लो,२४-२७/३६६ मतेरवधितोवापि मनःपर्ययतोपि वा। ज्ञातस्यार्थस्य नांशोऽस्ति नयानां वर्तन ननु ।२४। निःशेषदेशकाला गोचरत्वविनिश्चयात् । तस्येति भाषितं कैश्चिद्य क्तमेव तथेष्टितम् ॥२५॥ त्रिकालगोचराशेषपदार्थाशेषु वृत्तित' । केवलज्ञानमूलत्वमपि तेषां न युज्यते ।२६। परोक्षाकारतावृत्तेः स्पष्टत्वात् केवलस्य तु। श्रुतमूला नयाः सिद्धा वक्ष्यमाणा' प्रमाणवत ।२७) प्रश्न(नय I/१/१/४ में ऐसा कहा गया है कि प्रमाणसे जान ली गयी वस्तुके अंशोंमें नय ज्ञान प्रवर्तता है ) किन्तु मति, अवधि व मनःपर्यय इन तीन ज्ञानोंसे जान लिये गये अर्थ के अंशोमें तो नयोंकी ४. प्रमाण व नयमें कथंचित् प्रधान व अप्रधानपना स सि.//६/२०१६ अभ्यहितत्वात्प्रमाणस्य पूर्वनिपातः । ... कुतोऽभ्यहितत्वम् । नयप्ररूपणप्रभवयोनित्वाद। -सूत्रमें 'प्रमाण' शब्द पूज्य होनेके कारण पहले रखा गया है। नय प्ररूपणाका योनिभूत होनेके कारण प्रमाण श्रेष्ठ है । (रा.वा/१/६/१/३३/४) न.च./श्रुत/३२ न ह्येवं, व्यवहारस्य पूज्यतरत्वान्निश्चयस्य तु पूज्यतमस्वात् । ननु प्रमाणलक्षणो योऽसौ व्यवहारः स व्यवहारनिश्चयमनुभयं च गृहन्नप्यधिकविषयत्वात्कथं न पूज्यतमो। नैवं नयपक्षातीतमान कर्तुमशक्यत्वात् । तद्यथा। निश्चयं गृह्णन्नपि अन्ययोगव्यवच्छेदनं न करोतीत्यन्ययोगव्यवच्छेदाभावे व्यवहारलक्षणभाव क्रिया निरोद्धुमशक्त' । अत एव ज्ञानचैतन्ये स्थापयितुमशक्य एवात्मानमिति । - व्यवहारनय पूज्यतर है और निश्चयनय पूज्यतम है। (दोनों नयोंकी अपेक्षा प्रमाण पूज्य नहीं है ) । प्रश्न-प्रमाण ज्ञान व्यवहारको, निश्चयको, उभयको तथा अनुभयको विषय करनेके कारण अधिक विषय वाला है। फिर भी उसको पूज्यतम क्यों नहीं कहते । उत्तर-नहीं, क्योंकि इसके द्वारा आत्माको नयपक्षसे अतीत नहीं किया जा सकता वह ऐसे कि-निश्चयको ग्रहण करते हुए भी वह अन्यके मतका निषेध नहीं करता है, और अन्यमत निराकरण न करनेपर वह व्यवहारलक्षण भाव व क्रियाको रोकने में असमर्थ होता है, इसीलिए यह आत्माको चैतन्यमें स्थापित करनेके लिए असमर्थ रहता है। ५. प्रमाणका विषय सामान्य विशेष दोनों हैप. मु./४/१,२ सामान्य विशेषात्मा तदर्थो विषयः ।१। अनुवृत्तव्यावृत्तप्रत्ययगोचरत्वात्पूर्वोत्तराकारापरिहारावाप्तिस्थितिलक्षणपरिणामेनार्थक्रियोपपत्तेश्च ।। = सामान्य विशेषस्वरूप अर्थात द्रव्य और पर्यायस्वरूप पदार्थ प्रमाणका विषय है, क्योंकि प्रत्येक पदार्थ में अनुवृत्तप्रत्यय ( सामान्य ) और व्यावृत्तप्रत्यय (विशेष ) होते है। तथा पूर्व आकारका त्याग, उत्तर आकारकी प्राप्ति और स्वरूपकी स्थितिरूप परिणामोंसे अर्थक्रिया होती है। ६. प्रमाण अनेकान्तग्राही है और नय एकान्तग्राही स्व, स्तो./१०३ अनेकान्तोऽप्यनेकान्तः प्रमाणनयसाधनः। अनेकान्तः प्रमाणान्त तदेकान्तोऽपितान्नयात ॥१८-आपके मतमें अनेकान्त भी प्रमाण और नय साधनोंको लिये हुए अनेकान्त स्वरूप है। प्रमाणकी दृष्टिसे अनेकान्त रूप सिद्ध होता है और विवक्षित नयकी अपेक्षासे एकान्तरूप सिद्ध होता है। रा. वा./१६/७/३४/२८ सम्यगेकान्तो नय इत्युच्यते । सभ्यगनेकान्तः प्रमाणम् । नयार्पणादेकान्तो भवति एकनिश्चयप्रवणत्वात, प्रमाणापणादनेकान्तो भवति अनेकनिश्चयाधिकरणत्वात्। - सम्यगेकान्त जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 522 523 524 525 526 527 528 529 530 531 532 533 534 535 536 537 538 539 540 541 542 543 544 545 546 547 548 549 550 551 552 553 554 555 556 557 558 559 560 561 562 563 564 565 566 567 568 569 570 571 572 573 574 575 576 577 578 579 580 581 582 583 584 585 586 587 588 589 590 591 592 593 594 595 596 597 598 599 600 601 602 603 604 605 606 607 608 609 610 611 612 613 614 615 616 617 618 619 620 621 622 623 624 625 626 627 628 629 630 631 632 633 634 635 636 637 638 639 640 641 642 643 644 645 646 647 648