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नय
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III नैगम आदि सात नय निर्देश
कारक लिंग आदि वाले पर्यायवाची शब्दोंका वह एक ही अर्थ मानता है। वह केवल कारक आदिका भेद हो जानेसे ही पर्यायवाची शब्दोंमें अर्थ भेद मानता है, परन्तु कारकादिका भेद न होनेपर अर्थात समान कारकादिवाले पर्यायवाची शब्दोंमें अभिन्न अर्थ स्वीकार करता है। किन्तु समभिरूढ नय तो पर्यायभेद होनेपर भी उन शब्दोंमें अर्थभेद मानता है। जैसे-कि इन्द्र, पुरन्दर व शक इत्यादि पर्यायवाची शब्द उसी प्रकार भिन्नार्थ गोचर है, जैसे कि बाजी (घोड़ा) व वारण (हाथी) ये शब्द ।
५. सममिरूढ नयामासका लक्षण स्या.म./२/३१८/३० पर्यायध्वनीनामभिधेयनानात्वमेव कुक्षीकुर्वाणस्तदाभास'। यथेन्द्रः शक्रः पुरन्दर इत्यादयः शब्दाः भिन्नाभिधेया एव भिन्नशब्दत्वात करिकुरतुरङ्गशब्दवद् इत्यादिः। -पर्यायवाची शब्दोंके वाच्यमें सर्वथा नानापना मानना समभिरूढाभास है। जैसे कि इन्द्र, शक्र, पुरन्दर इत्यादि शब्दोंका अर्थ, भिन्न शब्द होनेके कारण उसी प्रकारसे भिन्न मानना जैसे कि हाथी, हिरण, घोड़ा इन शब्दोंका अर्थ।
३. परन्तु यहाँ पर्यायवाची शब्द नहीं हो सकते स. सि./२/३३/१४४/६ तत्रैकस्यार्थस्येकेन गतार्थत्वात्पर्यायशब्दप्रयोगोऽनर्थकः । शब्दभेदश्चेदस्ति अर्थभेदेनाप्यवश्यं भवितव्यमिति ।-जब एक अर्थ का एक शब्दसे ज्ञान हो जाता है तो पर्यायवाची शब्दोंका प्रयोग करना निष्फल है। यदि शब्दों में भेद है तो अर्थभेद अवश्य
होना चाहिए। (रा.वा./१/३३/१०/६/३०)। क. पा.१/१३-१४/६२००/२४०/१ अस्मिन्नये न सन्ति पर्यायशब्दाः प्रतिपदमर्थभेदाभ्युपगमाव। नच द्वौ शब्दावेकस्मिन्नर्थे वर्तेतेः भिन्नयोरेकार्थवृत्तिविरोधात् । न च समानशक्तित्वात्तत्र वर्तते; समानशक्त्योः शब्दयोरेकत्वापत्तेः। ततो वाचकभेदादवश्यं वाच्यभेदेन भाव्यमिति। - इस नयमें पर्यायवाची शब्द नहीं पाये जाते हैं, क्योंकि यह नय प्रत्येक पदका भिन्न अर्थ स्वीकार करता है। दो शब्द एक अर्थ में रहते हैं, ऐसा मानना भी ठीक नहीं है, क्योंकि भिन्न दो शब्दोंका एक अर्थमें सद्भाव माननेमें विरोध आता है । यदि कहा जाये कि उन दोनों शब्दोंमें समान शक्ति पायी जाती है, इसलिए वे एक अर्थ में रहते हैं, सो ऐसा कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि दो शब्दोंमें सर्वथा समान शक्ति माननेसे वे वास्तवमें दो न रहकर एक हो जायेंगे। इसलिए जब वाचक शब्दोंमें भेद पाया जाता है तो उनके वाच्यभूत अर्थ में भी भेद होना ही चाहिए । (ध.१/१,१,१॥
८६/५)। घ.६/४,१,४५/१८०/१ न स्वतो व्यतिरिक्ताशेषार्थव्यवच्छेदकः शब्दः अयोग्यत्वात् । योग्यः शब्दो योग्यार्थस्य व्यवच्छेदक इति"न च शब्दद्वयोद्वैविध्ये तत्सामर्थ्ययोरेकरवं न्यायम, भिन्नकालोत्पन्नद्रव्योपादानभिन्नाधारयोरेकत्वविरोधात। न च सादृश्यमपि तयोरेकत्वापत्तेः। ततो वाचकभेदादवश्य वाच्यभेदेनापि भवितव्यमिति। -शब्द अपनेसे भिन्न समस्त पदार्थों का व्यवच्छेदक नहीं हो सकता, क्योंकि उसमें बैसी योग्यता नहीं है, किन्तु योग्य शब्द योग्य अर्थका व्यवच्छेदक होता है। दूसरे, शब्दोंके दो प्रकार होनेपर उनकी शक्तियोंको एक मानना भी उचित नहीं है, क्योंकि भिन्न कालमें उत्पन्न व उपादान एवं भिन्न आधारवाली शब्दशक्तियोंके अभिन्न होनेका विरोध है। इनमें सादृश्य भी नहीं हो सकता, क्योंकि ऐसा होनेपर एकताकी आपत्ति आती है। इस कारण वाचकके भेदसे वाच्य
भेद अवश्य होना चाहिए। नोट-शब्द व अर्थ में बाच्य-वाचक सम्बन्ध व उसकी सिद्धिके लिए
दे० आगम/४।
८. एवंभूतनय निर्देश
४. शब्द व सममिरूढ नयमें अन्तर श्लो. वा./४/१/३३/७६/२६३/२१ विश्वदृश्वा सर्वदृश्वेति पर्यायभेदेऽपि शब्दोऽभिन्नार्थमभिप्रेति भविता भविष्यतीति च-कालभेदाभिमननाव। क्रियते विधीयते करोति विदधाति पुष्यस्तिष्यः तारकोड: आपो वा अम्भः सलिलमित्यादिपर्यायभेदेऽपि चाभिन्नमर्थ शब्दो मन्यते कारकादिभेदादेवार्थभेदाभिमननाद । समभिरूढः पुनः पर्यायभेदेऽपि भिन्नार्थानामभिप्रेति । कथं-इन्द्रः पुरन्दरः शक्र इत्याद्याभिन्नगोचरः । यद्वा विभिन्नशब्दत्वाद्वाजिवारणशब्दबत् ७१ -जो विश्वको देख चुका है या जो सबको देख चुका है इन शब्दोंमें पर्यायभेद होनेपर भी शब्द नय इनके अर्थको अभिन्न मानता है। भविता (लुट् ) और भविष्यति (लट् ) इस प्रकार पर्यायभेद होनेपर भी, कालभेद न होनेके कारण शब्दनय दोनोंका एक अर्थ मानता है। तथा किया जाता है, विधान किया जाता है इन शब्दोंका तथा इसी प्रकारः पुष्य व तिष्य इन दोनों एल्लिगी शब्दोंका; तारका व उडका इन दोनों स्त्रोलिंगी शब्दोंका; स्त्रोलिंगी 'अप' व बार शब्दों का नपुंसकलिंगी अम्भस् और सलिल शब्दोंकाः इत्यादि समानकाल
१. तस्क्रियापरिणत द्रव्य ही शब्दका वाच्य है स. सि/१/३३/१४६/३ येनात्मना भूतस्तेनै वाध्यवसायतीति एवंभूतः । स्वाभिप्रेतक्रियापरिणतिक्षणे एव स शब्दो युक्तो नान्यथेति । यदैवेन्दति तदैवेन्द्रो नाभिषेचको न पूजक इति । यदैव गच्छति तदैव गौर्न स्थितो न शयित इति । जो वस्तु जिस पर्यायको प्राप्त हुई है उसी रूप निश्चय करनेवाले (नाम देनेवाले) नयको एवंभूत नय कहते हैं। आशय यह है कि जिस शब्दका जो वाच्य है उस रूप क्रियाके परिणमनके समय ही उस शब्दका प्रयोग करना युक्त है, अन्य समयोंमें नहीं। जैसे-जिस समय आज्ञा व ऐश्वर्यवान हो उस समय ही इन्द्र है. अभिषेक या पूजा करनेवाला नहीं। जब गमन करती हो तभी गाय है, बैठी या सोती हुई नहीं। (रा.वा./१/३३/११/६६/); (श्लो.वा.४/१/३३/श्लो.७८-७६/२६२); (ह.पु./५८/४६); (आ.प./५व); (न.च./श्रुत/पृ.१६पर उद्धृत श्लोक); (त सा /१/५०); (का-अ/मू./२७७), (स्या.म./२८/३११/३)। घ.१४१.१.१/१०/३ एवं भेदे भवनादेवंभूतः। -एवंभेद अर्थात् जिस
शब्दका जो वाच्य है वह तद्रूप क्रियासे परिणत समयमें ही पाया जाता है। उसे जो विषय करता है उसे एवंभूतनय कहते हैं। (क पा./ १३-१४/३२०१/२४२/१)। न.च.व./२१६ जंजं करेह कम्मं देही मणवयणकायदो । तं खु _णामजुत्तो एवंभूदो हवे सणओ ।२१६॥ न. च./श्रुत/पृ.१६ यः कश्चित्पुरुषः रागपरिणतो परिणमनकाले रागीति
भवति । द्वेषपरिणतो परिणमनकाले द्वेषीति कथ्यते ।..शेषकाले तथा न कथ्यते । इति तप्तायःपिण्डवत् तत्काले यदाकृतिस्तद्विशेष वस्तुपरिणमनं तदा काले 'तक्काले तम्मपत्तादो' इति वचनमस्तीति क्रियाविशेषाभिदानं स्वीकरोति अथवा अभिदानं न स्वीकरोतीति व्यवहरणमेवभूतनयो भवति। -१. यह जीव मन वचन कायसे जब जो-जो चेष्टा करता है, तम उस-उस नामसे युक्त हो जाता है, ऐसा एवंभूत नय कहता है। २. जैसे रागसे परिणत जीव रागपरिणतिके काल में ही रागी होता है और द्वेष परिणत जीव द्वेषपरिणतिके कालमें ही द्वेष्टा कहलाता है। अन्य समयोंमें वह वैसा नहीं कहा जाता। इस प्रकार अग्निसे तपे हुए लोहेके गोलेवद, उम-उस कालमें जिस-जिस आकृति विशेषमें वस्तुका परिणमन होता है, सस
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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