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नय
iv द्रव्याथिक व पर्यायार्थिक
4. एवंभूतनयामासका लक्षण स्या. म./२८/३११/३ क्रियानाविष्टं वस्तु शब्दवाच्यतया प्रतिक्षिपस्तु तदाभास.। यथा विशिष्टचेष्टाशून्यं घटारव्यं वस्तु न घटशब्दवाच्यम्, घटशब्दप्रवृत्तिनिमित्त क्रियाश्चन्यरवा पटवद्ध इत्यादि। -क्रियापरिणतिके समयसे अतिरिक्त अन्य समयमें पदार्थको उस शब्दका वाच्य सर्वथा न समझना एवंभूतनयाभास है। जैसे-जल लाने आदिकी क्रियारहित खाली रखा हुआ घड़ा बिलकुल भी 'घट' नहीं कहा जा सकता, क्योंकि पटकी भाँति वह भी घटन क्रियासे शून्य है।
IV द्रव्याथिक व पर्यायार्थिक १. द्रव्यार्थिकनय सामान्य निर्देश १. द्रव्यार्थिकनयका लक्षण १. द्रव्य ही प्रयोजन जिसका स. सि./२/६/२९/१ द्रव्यमर्थ प्रयोजनमस्येत्यसौ द्रव्याथिकः (= द्रव्य जिसका प्रयोजन है, सो द्रव्याथिक है। (रा.वा./१/३३/१/१५/८); (घ. १४१,१,११८३/१९) (ध. ६/४,१,४५/१७०/१) (क. पा, १/१३१४/१८०/२१६/६ ) (आ. प./९) (नि. सा./ता. वृ./१६)। २. पर्यायको गौण करके द्रव्यका ग्रहण श्लो. वा. २/१/६/श्लो. १६/३६१ ताशिन्यपि निःशेषधर्माणा गुणतागतौ। द्रव्याथिकनयस्यैव व्यापारान्मुख्यरूपतः १ - जब सब अंशोंको गौणरूपसे तथा अंशीको मुख्यरूपसे जानना इष्ट हो, तब द्रव्याथिकनयका व्यापार होता है। न.च. वृ./११० पज्जयगउणं किच्चा दव्बंपि य जो हु गिहणए लोए ।
सो दबत्थिय भणिो "१०-पर्यायको गौण करके जो इस लोकमें द्रव्यको ग्रहण करता है, उसे द्रव्यार्थिकनय कहते हैं। स. सा./आ./१३ द्रव्यपर्यायात्मके वस्तुनि द्रव्यं मुख्यतयानुभावयतीति द्रव्यार्थिक' | द्रव्य पर्यायात्मक वस्तुमें जो द्रव्यको मुख्यरूपसे
अनुभव करावे सो द्रव्याथिकनय है। म. दी./३/१२/१२५ तत्र द्रव्याथिकनयः द्रव्यपर्यायरूपमेकानेकात्मकमनेकान्तं प्रमाणप्रतिपन्नमर्थ विभज्य पर्यायाथिकनयविषयस्य भेदस्योपसर्जनभावेनावस्थानमात्रमध्यनजानव स्वविषय द्रव्यमभेदमेव व्यवहारयति, नयान्तरविषयसापेक्षः सन्नयः इत्यभिधानात् । यथा सुवर्ण मानयेति। अत्र द्रव्यार्थिकनयाभिप्रायेण सुवर्ण दव्यानयनचोदनायां कटकं कुण्डलं केयूरं चोपनयन्नुपनेता कृती भवति, सुवर्णरूपेण कटकादीनां भेदाभावात् । -द्रव्यार्थिकनय प्रमाणके विलयभूत द्रव्यपर्यायात्मक तथा एकानेकात्मक अनेकान्तस्वरूप अर्थका विभाग करके पर्यायाथिकनयके विषयभूत भेदको गौण करता हुआ, उसकी स्थितिमात्रको स्वीकार कर अपने विषयभूत द्रव्यको अभेदरूप व्यवहार कराता है, अन्य नयके विषयका निषेध नहीं करता। इसलिए दूसरे नयके विषयकी अपेक्षा रखनेवाले नयको सद्भनय कहा है। जैसे---यह कहना कि 'सोना लाओं। यहाँ द्रव्यार्थिकनयके अभिप्रायसे 'सोना लाओ' के कहनेपर लानेवाला कड़ा, कुण्डल, केयूर (या सोनेकी डली) इनमेंसे किसीको भी ले आनेसे कृतार्थ हो जाता है, क्योंकि सोनारूपसे कड़ा आदिमें कोई भेद नहीं है। २. द्रव्यार्थिकनय वस्तुके सामान्यांशको अद्वैतरूप विषय करता है स. सि./२/३३/१४०/९ द्रव्यं सामान्यमुत्सर्गः अनुवृत्तिरियर्थः । तद्विषयो द्रव्यार्थिकः। द्रव्यका अर्थ सामान्य, उत्सर्ग और अनुवृत्ति
है। और इसको विषय करनेवाला नय द्रव्याथिकनय है। (त. सा./ १/३६)। क. पा. १/१३-१४/गा, १०७/२०/२५२ पज्जवणयवाक्कत' बत्थूत्थं] द्रव्ववियस्स वयणिज्ज । जाव दवियोपजोगो अपच्छिमवियप्पणिव्ययणो ।१०७१ = जिस के पश्चात विकल्पज्ञान व वचन व्यवहार नहीं है ऐसा द्रव्योपयोग अर्थात् सामान्यज्ञान जहाँ तक होता है, वहाँ तक वह वस्तु द्रव्यार्थिकनयका विषय है। तथा वह पर्यायार्थिकनयसे आक्रान्त है । अथवा जो वस्तु पर्यायाथिकनयके द्वारा ग्रहण करके छोड़ दी गयी है, वह द्रव्यार्थिकनयका विषय है। (स.सि./१/६/ २०/१०); (ह. पु./५८/४२)। श्लो. वा. ४/१/३३/३/२१५/१० द्रव्यविषयो द्रव्यार्थः।द्रव्यको विषय
करनेवाला द्रव्यार्थ है। (न.च. वृ./१८६)। क. पा.१/१३-१४/१८०/२१६/७ तद्भावलक्षणसामान्येनाभिन्नं सादृश्यलक्षणसामान्येन भिन्नमभिन्नं च वस्त्वभ्युपगच्छन् द्रव्यार्थिक इति यावत् । तदभावलक्षणवाले सामान्यसे अर्थात् पूर्वोत्तर पर्यायोंमें रहनेवाले ऊर्ध्वता सामान्यसे जो अभिन्न है, और सादृश्य लक्षण सामान्यसे अर्थात अनेक समान जातीय पदार्थों में पाये जानेवाले तिर्यग्सामान्यसे जो कथंचिद् अभिन्न है, ऐसी वस्तुको स्वीकार
करनेवाला द्रव्यार्थिकनय है। (ध.१/४,१,४५/१६७/११)। प्र. सा./त. प्र./११४ पर्यायार्थिकमेकान्तनिमीलितं विधाय केबलोन्मी लितेन द्रव्याथिकेन यदावलोक्यते तदा नारकतिर्यड्मनुष्यदेवसिद्धत्वपर्यायात्मकेषु व्यवस्थितं जीवसामान्यमेकमवलोकयतामनक्लोकितविशेषाणां तत्सर्वजीवद्रव्यमिति प्रतिभाति । -पर्यायार्थिक चक्षुको सर्वथा अन्द करके जब मात्र खुली हुई द्रव्यार्थिक चक्षुके द्वारा देखा जाता है तब नारकत्व, तिर्यक्त्व, मनुष्यत्व, देवत्व और सिद्धत्वपर्यायस्वरूप विशेषोंमें रहनेवाले एक जीव सामान्यको देखनेवाले
और विशेषों को न देखनेवाले जीवोको 'यह सब जीव द्रव्य है' ऐसा भासित होता है। का. अ./मू./२६६ जो साहदि सामण्णं अविणाभूदं रिसेसरूवेहि। जाणाजुत्तिबलादो दव्वत्थो सो णओ होदि ।जो नय वस्तुके विशेषरूपोंसे अविनाभूत सामान्यरूपको नाना युक्तियों के बलसे साधता है, वह द्रव्याथिकनय है। ३. द्रव्यकी अपेक्षा विषयकी अद्वैतता १. द्रव्यसे भिन्न पर्याय नामकी कोई वस्तु नहीं रा. वा./१/३३/१/६४/२५ द्रव्यमस्तीति मतिरस्य द्रव्यभवनमेव नातोऽन्ये भावविकाराः, नाप्यभावः तद्वय तिरेकेणानपलब्धेरिति द्रव्यास्तिकः । ...अथवा, द्रव्यमेवार्थोऽस्य न गुणकर्मणी तदवस्थारूपत्वादिति द्रव्यार्थिकः ।...1-व्यका होना ही द्रव्यका अस्तित्व है उससे अन्य भावविकार या पर्याय नहीं है, ऐसी जिसकी मान्यता है वह द्रव्यास्तिकनय है। अथवा द्रव्य ही जिसका अर्थ या विषय है, गुण व कर्म ( क्रिया या पर्याय) नहीं, क्योंकि वे भीतदवस्थारूप अर्थात् द्रव्यरूप ही हैं, ऐसी जिसकी मान्यता है वह द्रव्यार्थिक नय है। क. पा. १/१३-१४/१८०/२१६/१ द्रव्यात् पृथग्भूतपर्यायाणामसत्त्वात ।
न पर्यायस्तेभ्यः पृथगुत्पद्यते; सत्तादिव्यतिरिक्तपर्यायानुपलम्भाव । न चोत्पत्तिरप्यस्ति; असतः खरविषाणस्योत्पत्तिविरोधात् ।... एतद्रव्यमर्थः प्रयोजनमस्येति द्रव्यार्थिकः । द्रव्यसे सर्वथा पृथग्भूत पर्यायोंकी सत्ता नहीं पायी जाती है। पर्याय द्रव्यसे पृथक् उत्पन्न होती है, ऐसा मानना भी ठीक नहीं है, क्योंकि सत्तादिरूप द्रव्यसे पृथक् पर्यायें नहीं पायी जाती हैं। तथा सत्तादिरूप द्रव्यसे उनको पृथक् माननेपर वे असतरूप हो जाती हैं, अतः उनकी उत्पत्ति भी नहीं बन सकती है, क्योंकि खरविषाणकी तरह असतकी उत्पत्ति माननेमें विरोध आता है। ऐसा द्रव्य जिस नयका प्रयोजन है वह द्रव्याथिकनय है।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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