Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 2
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 545
________________ नय ५३७ III नैगम आदि सात नय निर्देश यथा बभूव भवति भविष्यति सुमेरुरित्यादयो भिन्नकाला शब्दा भिन्नमेव अर्थमभिदर्धात भिन्नकालशब्दत्वात् तादृसिद्धान्यशब्दवत् इत्यादि काल आदिके भेदसे शब्द और अर्थको सर्वथा अलग माननेको शब्दनयाभास कहते है। जैसे-सुमेरु था, सुमेरु है, और सुमेरु होना आदि भिन्न भिन्न काल के शब्द, भिन्न कालवाची होनेसे, अन्य भिन्नकालवाची शब्दोकी भॉति ही, भिन्न भिन्न अर्थों का ही प्रतिपादन करते है। न. च. वृ/२१३ जो वहणं ण मण्णइ एयत्थे भिण्ण लिंग आईणं । सो सहणओ भणिओ ओ साइआण जहा ।२१३। जो भिन्न लिंग आदिवाले शब्दोंकी एक अर्थ में वृत्ति नहीं मानता बह शब्दनय है, जसे पुरुष, स्त्री आदि। न. च./श्रुत/पृ. १७ शब्दप्रयोगस्याथ जानामीति कृत्वा तत्र एकार्थ मेक शब्देन ज्ञाने सति पर्यायशब्दस्य अर्थक्रमो यथेति चेत् पुष्यतारका नक्षत्रमित्येकार्थो भवति । अथवा दारा कलत्रं भार्या इति एकार्थी भवतीति कारणेन लिङ्गसंख्यासाधनादिव्यभिचार मुक्त्वा शब्दानुसारार्थ स्वीकर्तव्यमिति शब्दनयः । उक्तं च-लक्षणस्य प्रवृत्तौ वा स्वभावाविष्टालिङ्गतः । शब्दो लिङ्ग स्वसंख्यां च न परित्यज्य वर्तते । ='शब्दप्रयोगके अर्थको मैं जानता हूँ' इस प्रकारके अभिप्रायको घारण करके एक शब्दके द्वारा एक अर्थ के जान लेनेपर पर्यायवाची शब्दोंके अर्थक्रमको (भी भली भाँति जान लेता है। जैसे पुष्य तारका और नक्षत्र, भिन्न लिंगवाले तीन शब्द ( यद्यपि ) एकार्थबाची हैं' अथवा दारा कलत्र भार्या ये तीनों भी ( यद्यपि ) एकार्थवाची है। परन्तु कारेणवशात् लिंग संख्या साधन वगैरह व्यचिचारको छोड़कर शब्दके अनुसार अर्थ का स्वीकार करना चाहिए इस प्रकार शब्दनय है। कहा भी है-लक्षण की प्रवृत्तिमे या स्वभावसे आविष्ट-युक्त लिंगसे शब्दनय, लिंग और स्वसंरव्याको न छोड़ते हुए रहता है। इस प्रकार शब्दनय बतलाया गया है। भावार्थ-(यद्यपि 'भिन्न लिंग आदि वाले शब्द भी व्यवहारमें एकार्थवाची समझे जाते है, ऐसा यह नय जानता है, और मानता भी है। परन्तु वाक्यमें उनका प्रयोग करते समय उनमें लिंगादिका व्यभिचार आने नहीं देता। अभिप्रायमें उन्हे एकार्थवाची समझते हुए भी वाक्यमें प्रयोग करते समय कारणवशात लिंगादिके अनुसार ही उनमें अर्थभेद स्वीकार करता है। ) (आ. प./२) । स्या, म./२८/३१३/३० यथा चाय पर्यायशब्दानामेकमर्थमभिप्रैति तथा तटस्तटी तटस् इति विरुद्ध लिङ्गलक्षणधर्माभिसंबन्धाद वस्तुनो भेद चाभिधत्ते। न हि विरुद्धधर्मकृत भेदमनुभवतो वस्तुनो विरुद्धधर्मायोगो युक्तः । एवं संख्याकालकारकपुरुषादिभेदाद अपि भेदोऽभ्युपगन्तव्यः। स्या. म./२/३१६ पर उदधृत श्लोक नं.५ विरोधिलिङ्गसंख्यादिभेदाद भिन्नस्वभावताम् । तस्यैव मन्यमानोऽयं शब्दः प्रत्यवतिष्ठत ।। जैसे इन्द्र शक पुरन्दर ये तीनों समान लिगी शब्द एक अर्थको द्यो तित करते हैं। वैसे तटः, तटो, तटम् इन शब्दोंसे विरुद्ध लिंगरूप धर्मसे सम्बन्ध होनेके कारण, वस्तुका भेद भी समझा जाता है । विरुद्ध धर्मकृत भेदका अनुभव करनेवाली वस्तुमें विरुद्ध धर्मका सम्बन्ध न मानना भी युक्त नहीं है । इस प्रकार संख्या काल कारक पुरुष आदिके भेदसे पर्यायवाची शब्दोंके अर्थ में भेद भी समझना चाहिए। ध.१/१,१.१/गा.७/१३ मूलणिमेणं पज्जवणयस्स उजुसुदवयणविच्छेदो। तस्स दु सद्दादीया साह पसाहा मुहमभेया।-ऋजुसूत्र वचनका विच्छेदरूप वर्तमानकाल ही पर्यायार्थिक नयका मूल आधार है, और शब्दादि नय शाखा उपशाखा रूप उसके उत्तरोत्तर सूक्ष्म भेद हैं। श्लो. वा.४/१/३३/६८/२६/१७ कालकारकलिड्गसंख्यासाधनोपग्रहभेदाद्भिन्नमर्थ शपतीति शब्दो नयः शब्दप्रधानत्वादुदाहृतः। यस्तु व्यवहारनयः कालादिभेदेऽप्यभिन्नमर्थमभिप्रेति । काल, कारक, लिंग, संख्या, साधन और उपग्रह आदिके भेदोंसे जो नय भिन्न अर्थको समझाता है वह नय शब्द प्रधान होनेसे शब्दनय कहा गया है, और इसके पूर्व जो व्यवहारनय कहा गया है वह तो (व्याकरण शास्त्रके अनुसार) काल आदिके भेद होनेपर भी अभिन्न अर्थको समझानेका अभिप्राय रखता है। (नय/III//७ तथा निक्षेप/9/9)। ५. शब्दनयाभासका लक्षण स्या: म./२/३१५/२६ तदभेदेन तस्य तमेव समर्थयमानस्तदाभासः।। ६. लिंगादि व्यभिचारका तात्पर्य नोट- यद्यपि व्याकरण शास्त्र भी शब्द प्रयोगके दोषोको स्वीकार नहीं करता, परन्तु कहो-कही अपव.दरूपसे भिन्न लिग आदि वाले शब्दोका भी सामानाधिकरण्य रूपसे प्रयोग कर देता है। तहाँ शब्दनय उन दोषोका भी निराकरण करता है। वे दोष निम्न प्रकार हैरा. वा./१/३३/६/६८/१४ तत्र लिङ्गव्यभिचारस्तावतस्त्रीलिङ्ग पुल्लिङ्गाभिधानं तारका स्वातिरिति। पंल्लिङ्ग स्थ्यभिधानम् अवगमो विद्ये ति । स्त्रीत्वे नपंसकाभिधानम् वीणा आतोद्यमिति । नसके स्त्यभिधानम् आयुध शक्तिरिति । पुंल्लिड्न नपंसकाभिधानं पटो वस्त्रमिति । नसके पुल्लिङ्गाभिधानं द्रव्यं परशुरिति । संख्याव्यभिचारः-एकत्वे द्विस्वम्-गोदौ ग्राम इति। द्वित्वे बहुत्वम्म पुनर्वसू पञ्चतारका इति। बहुत्वे एकत्वम्-आग्रा वनमिति । बहुत्वे द्वित्वम्-देवमनुषा उभौ राशी इति । साधनव्यभिचारः-एहि मन्थे रथेन यास्यसि, नहि यास्यसि यातस्ते पितेति । आदिशब्देन कालादिव्यभिचारो गृह्यते। विश्वदृश्वास्य पुत्रो जनिता, भावि कृत्यमासीदिति कालव्यभिचार' । संतिष्ठते प्रतिष्ठते विरमत्युपरमतीति उपग्रहव्यभिचार' ।-१. स्त्रीलिगके स्थानपर पंलिगका कथन करना और पलिगके स्थानपर स्खी लिगका कथन करना आदि लिंग व्यभिचार है। जैसे-(१)-'तारका स्वाति' स्वाति नक्षत्र तारका है। यहॉपर तारका शब्द स्त्रीलिंग और स्वाति शब्द लिंग है। इसलिए स्त्रीलिगके स्थानपर पुंलिंग कहनेसे लिग व्यभिचार है। (२) 'अवगमो विद्या' ज्ञान विद्या है। यहाँपर अवगम शब्द पुंलिग और विद्या शब्द स्त्रीलिग है। इसलिए पुंल्लिगके स्थानपर स्त्रीलिग कहनेसे लिंग व्यभिचार है। इसी प्रकार (३) 'बीणा आतोद्यम्' वीणा बाजा आतोद्य कहा जाता है। यहाँ पर वीणा शब्द स्त्रीलिंग और आतोद्य शब्द, नपुंसकलिग है। (४) 'आयुधं शक्तिः ' शक्ति आयुध है। यहॉपर आयुध शब्द नपुंसकलिग और शक्ति शब्द स्त्रीलिग है। (५) 'पटो वस्त्रम्' पट वस्त्र है। यहॉपर पट शब्द पंल्लिग और वस्त्र शब्द नपुंसकलिग है। (६) 'आयुधं परशुः' फरसा आयुध है। यहाँ पर आयुध शब्द नपुंसकलिग और परशु शब्द पुंलिग है। २. एकवचनकी जगह द्विवचन आदिका क्थन करना संख्या व्यभिचार है। जैसे (१) 'नक्षत्रं पुनर्वसू' पुनर्वसू नक्षत्र है। यहाँपर नक्षत्र शब्द एकवचनान्त और पुनर्वसू शब्द द्विवचनान्त है। इसलिए एकवचनके स्थानपर द्विवचमका कथन करनेसे संख्या व्यभिचार है। इसी प्रकार-(२) 'नक्षत्रं शतभिषजः' शतभिषज नक्षत्र है। यहाँ पर नक्षत्र शब्द एकवचनान्त और शतभिषज् शब्द बहुवचनान्त है। (३) 'गोदौ ग्रामः' गायों को देनेवाला ग्राम है। यहाँपर गोद शब्द द्विवचनान्त और ग्राम शब्द एकवचनान्त है । (४) 'पुनर्वसू पञ्चतारकाः' पुनर्वसू पाँच तारे है। यहाँपर पुनर्वसू द्विवचनान्त और पंचतारका शब्द बहुवचनान्त है । (१) 'आयाः बनम्' आमोंके वृक्ष वन हैं। यहाँपर आन शब्द बहुवचनान्त और वन शब्द एकवचनान्त है। (4) 'देवमनुष्या उभौ राशी' देव और मनुष्य ये दो राशि है। यहाँपर देवमनुष्य शब्द बहुवचनान्त और राशि शब्द द्विवचनान्त है। ३. भविष्यत आदि कालके स्थानपर भूत आदि जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश भा०२-६८ Jain Education 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