Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 2
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 544
________________ नय III नैगम आदि सात नय निर्देश लिये गये शब्दका यथा योग्य प्रयोग करना शब्दनय है। दे. नय/I/४/२ ( शब्द परसे अर्थका बोध करानेवाला शब्दनय है)। २. अनेक शब्दोंका एक वाच्य मानता है। रा, वा/४/४२/१०/२६१/१६ शब्दे अनेकपर्यायशब्दवाच्य. एकः । शब्दनयमे अनेक पर्यायवाची शब्दोंका वाच्य एक होता है। स्या. म./२८/३१३/२ शब्दस्तु रूढितो यावन्तो ध्वनय' कस्मिंश्चिदर्थे प्रवर्तन्ते यथा इन्द्रशक्रपुरन्दरादय' सुरपतौ तेषां सर्वेषामप्येकमर्थमभिप्रेति किल प्रतीतिवशाद् । रूढिसे सम्पूर्ण शब्दोके एक अर्थ में प्रयुक्त होनेको शब्दनय कहते है। जैसे इन्द्र शक्र पुरन्दर आदि शब्द एक अर्थ के द्योतक है। अगला शीर्षक), एवं अपने समस्त अवयवोंको प्राप्त है, अतः उसके द्रव्य होनेमे कोई विरोध नही है। अथवा विवक्षित पर्यायसे वर्तमानताको प्राप्त बस्तुको अविवक्षित पर्यायोमे द्रव्यका विरोध न होनेसे, ऋजुसूत्रके विषयमे द्रव्य सम्भव है ही। क.पा.१/१,१३-१४/६२१३/२६३/६ वंजणपज्जायविसयस्स उजुसुदस्स बहुकालावट्ठाणं होदि त्ति णासंकणिज्ज; अप्पिदवंजणपज्जायअवट्टाणकालस्स दव्वस्स वि वट्टमाणत्तणेण गहणादो। यदि कहा जाय कि व्यंजन पर्यापको विषय करनेवाला ऋजुसूत्रनय बहुत कालतक अवस्थित रहता है; इसलिए, वह अजुसूत्र नहीं हो सकता है: क्योकि उसका काल वर्तमानमात्र है। सो ऐसी आशंका करना भी ठीक नही है, क्योकि, विवक्षित पर्यायके अवस्थान कालरूप द्रव्यको भी ऋजुसूत्रनय वर्तमान रूपसे ही ग्रहण करता है। ७. सूक्ष्म व स्थूल ऋजुसूत्रकी अपेक्षा वतमान कालका प्रमाण दे० नय/III/१/२ वर्तमान वचनको ऋजुसूत्र वचन कहते है। ऋजुसूत्रके प्रतिपादक वचनोंके विच्छेद रूप समयसे लेकर एक समय पर्यन्त वस्तुकी स्थितिका निश्चय करनेवाले पर्यायार्थिक नय है। (अर्थात मुखद्वारसे पदार्थ का नामोच्चारण हो चुकनेके पश्चात्से लेकर एक समय पर्यन्त ही उस पदार्थको स्थितिका निश्चय करनेवाला पर्यायार्थिक नय है। ध./४,१,४५/१७२/१ कोऽत्र वर्तमानकाल । आरम्भारप्रभृत्या उपरमा देष वर्तमानकाल । एष चानेकप्रकार', अर्थव्यञ्जनपर्यायास्थितेरनेकविधत्वात् । ध.६/४,१,४६/२४४/२ तत्थ सुद्धो विसईकयअत्थपज्जाओ पडिक्रवणं विवट्टमाण...जो सो असुद्धो.. तेसिं कालो जहण्णेण अंतोमुहूत्तमुक्कस्सेण छम्मासा संखेज्जा वासाणि वा । कुदो। चक्विदियगेझवेजणपज्जायाणमप्पहाणीभूदव्वाणमेत्तियं कालभवट्ठाणुवलंभादो। जदि एरिसो वि पज्जवट्ठियणओ अस्थि तो-उपज्जति वियंति य भावा णियमेण पज्जवणयस्स । इच्चेण सम्मइसुत्तेण सह विरोहो होदि त्ति उत्ते ण होवि, असुद्ध उजुसुदेण विसईवयवे जणपज्जाए अप्पहाणीकयसेसपज्जाए पुब्बावरकोटीणमभावेण उप्पत्तिविणासे मोत्तूण उवट्ठाणमुवलं भादो । प्रश्न-यहाँ वर्तमानकालका क्या स्वरूप है ! उत्तर-विवक्षित पर्यायके प्रारम्भकालसे लेकर उसका अन्त होनेतक जो काल है वह वर्तमान काल है। अर्थ और व्यंजन पर्यायोंकी स्थितिके अनेक प्रकार होनेसे यह काल अनेक प्रकार है। तहाँ शुद्ध ऋजुमूत्र प्रत्येक क्षणमे परिणमन करनेवाले पदार्थाको विषय करता है ( अर्थात् शुद्ध ऋजुमूत्रनयकी अपेक्षा वर्तमानकालका प्रमाण एक समय मात्र है) और अशुद्ध ऋजुमूत्रके विषयभूत पदार्थोका काल जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्षसे छ मास अथवा संरख्यात वर्ष है. क्योकि, चक्षु इन्द्रियसे ग्राह्य व्यंजनपर्याये द्रव्यकी प्रधानतासे रहित होती हुई इतने कालतक अवस्थित पायी जाती हैं। प्रश्न-यदि ऐसा भी पर्यायाथिकनय है तो-पर्यायाथिकनयकी अपेक्षा पदार्थ नियमसे उत्पन्न होते है और नष्ट होते है, इस सन्मतिसूत्रके साथ विरोध होगा। उत्तर-नहीं होगा; क्योकि, अशुद्ध ऋजुसूत्रके द्वारा व्यंजन पर्यायें हो विषय की जाती है. और शेष पर्याये अप्रधान हैं। (किन्तु प्रस्तुत सूत्रमे शुद्रऋजुसूत्र की विवक्षा होनेसे ) पूर्वापर कोटियोंका अभाव होनेके कारण उत्पत्ति व विनाशको छोड़कर अवस्थान पाया ही नहीं जाता। ६. शब्दनय निर्देश १. शब्दनयका सामान्य लक्षण आ.प./६ शब्दाइ व्याकरणात प्रकृतिप्रत्ययद्वारेण सिद्धः शब्द. शब्दनयः। -शब्द अर्थात् व्याकरणसे प्रकृति व प्रत्यय आदिके द्वारा सिद्ध कर ३. पर्यायवाची शब्दों में अभेद मानता है रा. वा./४/४२/१७/२६१/११ शब्दे पर्यायशब्दान्तरप्रयोगेऽपि तस्यैवार्थस्याभिधानादभेद। - शब्दनयमें पर्यायवाची विभिन्न शब्दोंका प्रयोग होनेपर भी, उसी अर्थका कथन होता है, अत अभेद है। स्या. म./२८/३१३/२६ न च इन्द्रशक्रपुरन्दरादय. पर्यायशब्दा विभि नार्थवाचितया कदाचन प्रतीयन्ते । तेभ्यः सर्वदा एकाकारपरामर्शोत्पत्तेरस्वलितवृत्तितया तथैव व्यवहारदर्शनात । तस्मादेक एव पर्यायशब्दानामर्थ इति । शब्द्यते आहूयतेऽनेनाभिप्रायेणार्थः इति निरुक्तात् एकार्थप्रतिपादनाभिप्रायेणैव पर्यायध्वनीना प्रयोगात् । - इन्द्र, शक्र और पुरन्दर आदि पर्यायवाची शब्द कभी भिन्न अर्थका प्रतिपादन नहीं करते, क्योंकि, उनसे सर्वदा अस्खलित वृत्तिसे एक ही अर्थ के ज्ञान होनेका व्यवहार देखा जाता है। अतः पर्यायवाची शब्दोका एक ही अर्थ है। 'जिस अभिप्रायसे शब्द कहा जाय या बुलाया जाय उसे शब्द कहते है', इस निरुक्ति परसे भी उपरोक्त ही बात सिद्ध होती है, क्योंकि एकार्थ प्रतिपादनके अभिप्रायसे ही पर्यायवाची शब्द कहे जाते है। दे. नय/III/9/४ (परन्तु यह एकार्थता समान काल व लिंग आदिवाले शब्दोमे ही है, सब पर्यायवाचियोमे नही)। ४. पर्यायवाची शब्दोंके प्रयोगमें लिंग आदिका व्यमि चार स्वीकार नहीं करता स, सि./१/३३/१४३/४ लिङ्गसंख्यासाधनादिव्यभिचारनिवृत्तिपरः शब्दनय' । लिग, संख्या, साधन आदि (पृरुष, काल व उपग्रह) के व्यभिचारकी निवृत्ति करनेवाला शब्दनय है। (रा.वा./१/३३/ ६/१८/१२); (ह. पु/५८/४७): (ध. १/१,१,१/८/१);(ध.६/४,१, ४५/१७६/५): ( क. पा. १/१३-१४/९ १६७/२३५); (त, सा./१/४८)। रा. वा./१/३३/४/८/२३ एवमादयो व्यभिचारा अयुक्ताः। कुतः। अन्यार्थस्याऽज्यार्थन संबन्धाभावाद । यदि स्यात् घटः पटो भवतु पटो वा प्रासाद इति । तस्माद्यथालिङ्ग यथासंख्यं यथासाधनादि च न्याय्यमभिधानम् । = इत्यादि व्यभिचार (दे० आगे) अयुक्त हैं, क्योकि अन्य अर्थका अन्य अर्थसे कोई सम्बन्ध नहीं है। अन्यथा घट पट हो जायेगा और पट मकान बन बैठेगा । अत. यथालिंग यथावचन और यथासाधन प्रयोग करना चाहिए । (स.सि./१/२३/१४४ १) (श्लो. वा. ४/१/३३/श्लो. ७२/२५६ ) (घ. १/१,१,१/८६/१) (ध, १/४,१,४५/१७८/३); (क. पा. १/१३-१४/११७/२३७/३)। श्लो. वा. ४/१/३३/श्लो.६८/२५५ कालादिभेदतोऽर्थस्य भेदं यः प्रतिपादयेत । सोऽत्र शब्दनयः शब्दप्रधानवादुदाहृतः। -जो नम काल कारक आदिकें भेदसे अर्थ के भेदको समझता है, वह शब्द प्रधान होनेके कारण शब्दनय कहा जाता है। (प्रमेय कमल मार्तण्ड/प. २०६) (का.अ./मू.२७५)। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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