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नय
न पर्याय है, और न वह किसी अन्य विकल्पके द्वारा व्यक्त की जा सकती है, यह शुद्ध द्रव्यार्थिक नयका मत है । युक्तिके वशसे जो सत् द्रव्यगुण व पर्यायोंके नामसे अनेकरूपसे भेदा जाता है, वही सद अंशरहित होनेसे अभेद्य एक है, इस प्रकार प्रमाणका पक्ष है । ७५५
५. मावी नैगम नय निश्चित अर्थ में ही लागू होता है दे. अपूर्वकरण /४ ( क्योंकि मरण यदि न हो तो अपूर्वकरण गुणस्थानवर्ती साधु निश्चितरूपमें कर्मोंका उपशम अथवा क्षय करता हैं, इसलिए ही उसको उपशामक व क्षपक संज्ञा दी गयी है, अन्यथा अतिप्रसंग दोष प्राप्त हो जाता ) ।
६. शि/२ ( शरीरकी निष्पत्ति न होनेपर भी निवृत्यपर्याप्त जीवको नैगमनयसे पर्याप्त कहा जा सकता है। क्योंकि वह नियमसे शरीरको निष्पत्ति करनेवाला है ) ।
. दर्शन/७/२ (पर्याजीमा
दर्शन नहीं माना जा सकता. क्योंकि उनमें उसकी निष्पत्ति सम्भव नहीं, परन्तु निर्यात जीवो वह अवश्य माना गया है, क्योंकि उत्तरकाल में उसकी समुश्पत्ति वहाँ निश्चित है। प्र.सं./टी./१४/४०/९ मिध्यादृष्टिभव्यजीवे बहिरात्माव्यक्तिरूपेण अन्त रात्मपरमात्मद्वयं शक्तिरूपेणैव भाविनै गमनयापेक्षया व्यक्तिरूपेण च | अभव्यजीवे पुनर्बहिरात्मा व्यक्तिरूपेण अन्तरात्मपरमात्मद्वयं शक्तिरूपेशेव न च व्यक्तिरूपेण भाविने गमनयेनेति । मिध्यादृष्टि भव्यजीव महिरात्मा तो व्यक्तिरूपसे रहता है और अन्तरारमा तथा परमात्मा ये दोनों शक्तिरूपसे रहते हैं. एवं भावि नेगम नयकी अपेक्षा व्यक्तिरूपसे भी रहते हैं। मिध्यादृष्टि अभव्य जीवने बहिरामा व्यक्तिरूपसे और अन्तरात्मा तथा परमात्मा ये दोनों शक्ति रूपसे ही रहते हैं। वहाँ भाविनै गमनयकी अपेक्षा भी ये व्यक्तिरूपमें नहीं रहते ।
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पं. ध. / ५ / ६२३ भाविने गमनयायत्तो भूष्णुस्तद्वानिवेष्यते । अवश्यभावतो व्याप्ते सद्भावासिद्धिसाधना भाविनगमनयकी अपेक्षा होनेवाला हो चुके हुए के समान माना जाता है, क्योंकि ऐसा कहना अवश्यम्भावी व्याधि पाये जानेसे युक्तियुक्त है ।
६. कल्पनामात्र होते हुए भी भावीनैगम व्यर्थ नहीं है रा. बा. १/२३/३/१०/२१ स्यादेतय ने गमनयन ये उपकारो नोपलभ्यते, भाविज्ञाविषये तु राजादायुपलभ्यते ततो नार्थ युक्त इति तन्त्र, किं कारणम् अनतिज्ञानात् नैतदस्माभिः प्रतिज्ञातस्- 'उपकारे सति भवितव्यम्' इति । किं तर्हि । अस्य नयस्य विषयः प्रदर्श्यते । अपि च, उपकार प्रत्यभिमुखत्वादुपकारवानेव । प्रश्न - भाविसंज्ञामें तो यह आशा है कि आगे उपकार आदि हो सकते हैं, पर नैगमनय में तो केवल कल्पना ही कल्पना है, इसके वक्तव्यमें किसी भी उपकारकी उपलब्धि नहीं होती अतः यह संव्यवहारके योग्य नहीं उत्तर - नयोंके विषयके प्रकरण में यह आवश्यक नहीं हैं कि उपकार या उपयोगिताका बिचार किया जाये। यहाँ तो केवल उनका विषय बताना है। इस नयसे सर्वथा कोई उपकार न हो ऐसा भी तो नहीं है, क्योंकि संकल्प के अनुसार निष्पन्न वस्तुसे, आगे जाकर उपकारादिककी भी सम्भावना है ही ।
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रतो. वा.४/९/२३/ श्लो ११-२०/२३१ नये भाविनीं संज्ञां समारियोपचर्यते अवस्थाविषु तद्धावस्तण्डुलेप्योदनादि ९६हिरर्थेषु तथानध्यवसानता स्ववेद्यमान करपे सत्येवास्य प्रवृत्तितः 1201 - प्रश्न - भावी संज्ञाका आश्रय कर वर्तमान में भविष्यका उपचार करना नैगमनय माना गया है। प्रस्थादिके न होनेपर भी काठके टुकडेने प्रस्थकी अथवा भातके न होनेपर भी पायलों में भातकी कल्पना मात्र कर ली गयी है ? उत्तर-- वास्तवमें बाह्य पदार्थोंमें उस
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III नैगम आदि सात नय निर्देश
प्रकार भावी संज्ञाका अध्यवसाय नहीं किया जा रहा है, परन्तु अपने द्वारा जाने गये संकल्पके होनेपर हो इस नयकी प्रवृत्ति मानी गयी है अर्थात् इस नयमें अर्थ की नहीं ज्ञानकी प्रधानता है, और इसलिए यह नयज्ञान नय मानी गयी है ।)
४. संग्रहनय निर्देश
१. संग्रह नयका लक्षण
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स.सि./१/१३/१४१/- वजारमविरोधेनैकत्वमुपानीय पर्यायानाक्रान्तभेदानविशेषेण समस्तग्रहणात्संग्रहः भेद सहित सब पर्यायों या विशेषोंको अपनी जातिके अविरोध द्वारा एक मानकर सामान्यसे सबको ग्रहण करनेवाला नय संग्रहनय है । (रा. वा. १ / ३३/५/१५/२६); (रलो. बा./४/१/२३/१लो. ४१/२४०): (ह.पु./२/४४): (न.च./त/पृ. १२) (त.सा./१/४५)।
श्लो, मा./२/१/११/रलो. ५०/२४० सममेकीमामसम्यक्त्वे वर्तमानो हि गृह्यते। निरुक्त्या लक्षवं तस्य तथा सति विभाव्यते सम्पूर्ण पदार्थोंका एकीकरण और समीचीनपन इन दो अर्थोंमें 'सम' शब्द वर्तता है । उसपर से ही 'संग्रह' शब्दका निरुक्त्यर्थ विचारा जाता है, कि समस्त पदार्थोंको सम्यक् प्रकार एकीकरण करके जो अभेद रूपसे ग्रहण करता है, वह संग्रहनय है । .१/४१,४२/१००/५ सत्तादिना या सर्वस्य पर्यायकभावेन अतमध्यवस्येति शुद्धद्रव्यार्थिकः सः संग्रहः । =जो सत्ता आदिकी अपेक्षासे पर्यायरूप कलंकका अभाव होनेके कारण सबकी एकताको विषय करता है वह शुद्ध द्रव्याधिक संग्रह है (क.पा. १/१३-१४/४१०२ / २१६/१) ।
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प. १२/५.२.७/११/२ व्यवहारमनपेश्य सप्तादिरूपेण सकलवस्तुसंग्राहक संग्रहनयः । उपवहारकी अपेक्षा न करके जो सत्तादिरूपसे सकत पदार्थोंका संग्रह करता है यह संग्रहनय है (प. १/१.१.१/०४/३) । आ.प./६ अभेदरूपतया वस्तुजातं संगृह्णातीति संग्रह. । अभेद रूपसे समस्त वस्तुओंको जो संग्रह करके, जो कथन करता है, वह संग्रह नय है । का.अ./मू./२०२ जो संगदि राज्य दे ना विविदा अपु गमलिंगविसि सो विमजो संगहो होदि । २०२॥ जो नय समस्त वस्तुका अथवा उसके देशका अनेक द्रव्यपर्यायसहित अन्वयगि विशिष्ट संग्रह करता है, उसे संग्रहनय कहते हैं।
स्या. म. / २८/३११/७ संग्रहस्तु अशेषविशेषतिरोधानद्वारेण सामान्यरूपतया । विश्वमुपादते - विशेषों की अपेक्षा न करके वस्तुको सामान्यसे जाननेको संग्रह नय कहते हैं। (स्वा.म./१८/३१७/६) । २. संग्रह नयके उदाहरण
स.सि./१/३३/१४९/१ सद् ग्रव्यं घट इत्यादि । सदित्युक्ते सदिति वाग्वज्ञानानुप्रवृत्तिलिङ्गानुमितसत्ताधारभूतानामविशेषेण सर्वेषां
संग्रहः । द्रव्यमित्युक्तेऽपि द्रवति गच्छति तास्तान्पर्यायानित्युपलक्षितानां जीवाजीवभेदमभेदानां संग्रह तथा 'घट' इत्युक्तेऽचि
कुध्यभिधानानुगमलिकानुमिसकलार्थ संग्रह एवं प्रकारोऽन्योSपि संग्रहनयस्य विषयः । यथा-सत्, द्रव्य और घट आदि । 'सत्' ऐसा कहनेपर'' इस प्रकारके वचन और विज्ञानको अनुवृत्तिरूप सिंगसे अनुमित सताके आधारभूत सम पदार्थोंका सामान्यरूपसे संग्रह हो जाता है । 'द्रव्य' ऐसा कहनेपर भी 'उन उन पर्यायोंको इनता है अर्थात् प्राप्त होता है इस प्रकार इस व्यक्ति जीव अजीव और उनके सब भेद-प्रभेदों का संग्रह हो जाता है। तथा 'घट' ऐसा कहनेपर भी 'घट' इस प्रकारकी बुद्धि और 'वट' इस प्रकारके शब्दकी अनुवृत्तिरूप लिंगसे अनुमित ( मृद्घट सुवर्णघट आदि ) सब घट पदार्थोंका संग्रह हो जाता है। इस प्रकार अन्य भी संग्रहनयका विषय समझ लेना (रा.वा./९/२३/२/१५/१०) ।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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