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III नैगम आदि सात नय निर्देश
कहना शुद्धद्रव्यनै गमाभास है।३८१६.पर्याय व पर्यायवान में सर्वथा भेद मानना अशुद्ध-द्रव्य नै गमाभास है । क्योंकि घट पट आदि बहिरंग पदार्थोमे तथा आत्मा ज्ञान आदि अन्तरंग पदार्थोंमें इस प्रकारका भेद प्रत्यक्षादि प्रमाणोसे विरुद्ध है।४०१७ सुखस्वरूप अर्थपर्यायसे सत्त्वस्वरूप शुद्धद्रव्यको सर्वथा भिन्न मानना शुद्धद्रव्यार्थपर्याय नै गमाभास है। क्योकि इस प्रकारका भेद अनेक बाधाओ सहित है ।४२॥ ८. सुख और जीवको सर्वथा भेदरूपसे कहना अशुद्धद्रव्यार्थपर्याय नैगमाभास है । क्योंकि गुण व गुणी में सर्वथा भेद प्रमाणोसे बाधित है ।४४। ६. सत व चेतन्यके सर्वथा भेद या अभेदका अभिप्राय रखना शुद्ध द्रव्य व्यब्जनपर्याय-नै गमाभास है ।४७। १०. मनुष्य व गुणीका सर्वथा भेद या अभेद मानना अशुद्ध द्रव्य व्यब्जनपर्याय नैगमाभास है।४७
विषयत्वात् । इस प्रकार वस्तुके उत्तरोत्तर भेदोंको ग्रहण करनेवाला होनेसे इस व्यवहारनयको नैगमपना प्राप्त नहीं हो जाता; क्योंकि, व्यवहारनय तो संग्रह गृहीत पदार्थका व्यवहारोपयोगी विभाग करने में तत्पर है, और नैगमनय सर्वदा गौण प्रधानरूपसे दोनोंको विषय करता है। क. पा. १/२१/१३५४-३५५/३७६/८ ऐसो णेगमो संगमो मंगहिओ असंगहिओ चेदि जइ दुविहो तो णत्थि णेगमो; विसयाभावादो।... ण च संगह विसेसेहितो वदिरित्तो विसओ अस्थि, जेण णेगमणयस्स अत्थित्तं होज्ज । एत्थ परिहारो वुच्चदे-संगह-ववहारणयविसएम अक्कमेण वट्टमाणो णेगमो।'ण च एगविसएहि दुविसओ सरिसो; विरोहादो। तो क्खहिं 'दुविहो णेगमो' त्ति ण घटदे, ण; एयम्मि वट्टमाणअहिप्पायस्स आलंबणभेरण दुब्भावं गयस्स आधारजीवस्स दुभावत्ताविरोहादो। प्रश्न-यह नैगमनय संग्राहिक और असंग्राहिकके भेदसे यदि दो प्रकारका है, तो नैगमनय कोई स्वतन्त्र नय नहीं रहता है। क्योंकि, संग्रहनयके विषयभूत सामान्य और व्यवहारनयके विषयभूत विशेषसे अतिरिक्त कोई विषय नहीं पाया जाता, जिसको विषय करनेके कारण नैगमनयका अस्तित्व सिद्ध होवे। उत्तर-अब इस शंकाका समाधान कहते है-नैगमनय संग्रहनय और व्यवहारनयके विषयमें एक साथ प्रवृत्ति करता है, अतः वह उन दोनोंमें अन्तर्भूत नहीं होता है। केवल एक-एकको विषय करनेवाले उन नयोंके साथ दोनोंको (युगपत् ) विषय करनेवाले इस नयकी समानता नहीं हो सकती है, क्योंकि ऐसा माननेपर विरोध आता है। (श्लो. वा/४/१/३३/श्लो २४/२३३) । प्रश्न-यदि ऐसा है, तो संग्रह और असंग्रहरूप दो प्रकारका नैगमनय नहीं बन सकता ! उत्तर-नहीं, क्योंकि एक जीवमें विद्यमान अभिप्राय आलम्बनके भेदसे दो प्रकारका हो जाता है, और उससे उसका आधारभूत जीव तथा यह नैगमनय भी दो प्रकारका हो जाता है।
३. नैगमनय निर्देश
१. नैगम नय अशुद्ध द्रव्यार्थिक नय है श्लो.वा.४/१/३३/श्लो. १७/२३० तत्र संकल्पमात्रो ग्राहको नैगमो नयः। सोपाधिरित्यशुद्धस्य द्रव्यार्थिकस्याभिधानात् ।१७। -संकल्पमात्र ग्राहो नैगमनय अशुद्ध द्रव्यका कथन करनेसे सोपाधि है । (क्योकि सत्त्व प्रस्थादि उपाधियाँ अशुद्धद्रव्यमे ही सम्भव है और अभेदमे भेद विवक्षा करनेसे भो उसमें अशुद्धता आती है।) ( और भी दे० नय/III/२/१-२)। २. शुद्ध व अशुद्ध सभी नय नेगमके पेटमें समा जाते हैं घ. १/१.१,१/८४/६ यदस्ति न तद् द्वयमतिलड्ध्य वर्तत इति नै कगमो नैगमः, संग्रहासंग्रहस्वरूपद्रव्यार्थिको नैगम इति यावत । - जो है वह उक्त दोनों ( संग्रह और व्यवहार नय) को छोडकर नहीं रहता है। इस तरह जो एकको ही प्राप्त नहीं होता है, अर्थात अनेकको प्राप्त होता है उसे नैगपनय कहते हैं। अर्थात् संग्रह और असंग्रहरूप जो द्रव्याथिकनय है वही नैगम नय है । ( क. पा. १/२१/१३५३/३७६/
३) । (और भी दे० नय /III/३/३)।। ध/४,१,४५/१७१/४ यदस्ति न तद् द्वयमतिलध्य वर्तते इति संग्रह व्यवहारयोः परस्परविभिन्नोभयविषयावलम्बनो नैगमनयः जो है वह भेद व अभेद दोनोंको उल्लंघन कर नहीं रहता, इस प्रकार संग्रह
और व्यवहार नयोंके परस्पर भिन्न (भेदाभेद ) दो विषयोंका अवलम्बन करनेवाला नैगमनय है। (ध.१२/४,२,१०,२/३०३/१); (के. पा/१/१३-१४/६१८३/२३१/१); (और भी दे० नय /III/२/३) । ध. १३/५.५,७/१६६/१ नै कगमो नैगम', द्रव्यपर्यायद्वयं मिथो विभिन्नमिच्छन् नैगम इति यावत् । जो एकको नहीं प्राप्त होता अर्थात अनेकको प्राप्त होता है वह नैगमनय है। जो द्रव्य और पर्याय इन दोनोंको आपसमे अलग-अलग स्वीकार करता है वह नैगम नय है,
यह उक्त कथनका तात्पर्य है। ध. १३/५,३,७/४/६ णेगमणयस्स असंगहियस्स एदे तेरसविफासा होति
त्ति बोद्धब्बा, परिग्गहिदसबणयविसयत्तादो।- असंग्राहिक नै गमनयके ये तेरहके तेरह स्पर्श विषय होते है, ऐसा यहाँ जानना चाहिए: क्योकि, यह नय सब नयोंके विषयोको स्वीकार करता है)। दे. निक्षेप/३ ( यह नय सब निक्षेपोको स्वीकार करता है।)
३. नैगम तथा संग्रह व व्यवहार नयमें अन्तर श्लो. बा. ४/१/३३/६०/२४५/१७ न चैवं व्यवहारस्य नैगमत्वप्रसक्ति'
संग्रहविषयप्रविभागपरत्वात, सर्वस्य नैगमस्य तु गुणप्रधानोभय
४. नैगमनय व प्रमाणमें अन्तर श्लो.वा.४/१/३३/श्लो. २२-२३/२३२ प्रमाणात्मक एवायमुभयग्राहकत्वतः इत्ययुक्त इव ज्ञप्ते प्रधानगुणभावतः ।२। प्राधान्येनोभयात्मानमथ गृह णद्धि वेदनम् । प्रमाणं नान्यदित्येतत्प्रपञ्चेन निवेदितम् ।२३। -प्रश्न-धर्म व धर्मी दोनोंका ( अक्रमरूपसे ) ग्राहक होनेके कारण नैगमनय प्रमाणात्मक है । उत्तर-ऐसा कहना युक्त नहीं है। क्योकि, यहाँ गौण मुख्य भावसे दोनोंकी ज्ञप्ति की जाती है। और धर्म व धर्मी दोनोको प्रधानरूपसे ग्रहण करते हुए उभयात्मक वस्तुके जाननेको प्रमाण कहते हैं। अन्य ज्ञान अर्थात केवल धर्मीरूप सामान्यको जाननेवाला संग्रहनय या केवल धर्मरूप विशेषको जाननेवाला व्यवहारनय, या दोनोंको गौणमुख्यरूपसे ग्रहण करनेवाला नैगमनय, प्रमाणज्ञानरूप नहीं हो सकते। श्लो. बा.२/१/६/श्लो.१६-२०/३६१ तत्रांशिन्यापि निःशेषधर्माणां गुण
तागतौ। द्रव्याथिकनयस्यैव व्यापारान्मुख्यरूपतः ॥११॥ धर्मिधर्मसमुहस्य प्राधान्यार्पणया विदः । प्रमाणत्वेन निर्णीतेः प्रमाणादपरो नयः ।२०।- जब सम्पूर्ण अंशोंको गौण रूपसे और अंशीको प्रधानरूपसे जानना इष्ट होता है, तब मुख्यरूपसे द्रव्यार्थिकनयका व्यापार होता है, प्रमाणका नहीं ।१६। और जब धर्म व धर्मी दोनोंके समूहको ( उनके अखण्ड व निर्विकल्प एकरसात्मक रूपको) प्रधानपनेकी विवक्षासे जानना अभीष्ट हो, तब उस ज्ञानको प्रमाणपनेसे निर्णय किया जाता है ।२०। जैसे-( देखो अगला उद्धरण )। प.ध./पू./७५४-७५५ न द्रव्यं नापि गुणो न च पर्यायो निरंशदेशत्वात् । व्यक्तं न विकल्पादपि शुद्धद्रव्यार्थिकस्य मतमेतत् १७५४। द्रव्यगुणपर्यायाख्यैर्यदनेकं सद्विभिद्यते हेतोः। तदभेद्यमनं शत्वादेकं सदिति प्रमाणमतमेतत् ।७५॥ अखण्डरूप होनेसे वस्तु न द्रव्य है, न गुण है,
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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