Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 2
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 530
________________ नय ५२२ क्योंकि जो योगभूतानियकी है। पूर्वभावज्ञापनकी अपेक्षा उपशान्त कषाय आदि गुणस्थानोंमें भी शुक्लेश्याको ओदयिकी कहा है, प्रवृत्ति कषायके उदयसे अनुरंजित थी वही यह है अपेक्षा जन्मले १५ कर्मभूमियोंमें और संहरणको अपेक्षा सर्व मनुष्यक्षेत्र से सिद्धि होती है। वर्तमानग्राही नवकी अपेक्षा एक समयने सिद्ध होता है। भूत प्रज्ञापन नयकी अपेक्षा जन्मसे सामान्यतः उत्सर्पिणी और अवसर्पिणीने सिद्ध होता है, विशेषकी अपेक्षा मामा अन्तिम भागमें और संहरणकी अपेक्षा सब कालोंमें सिद्ध होता है । भूतपूर्व की अपेक्षासे क्षेत्रसिद्ध दो प्रकार है- जन्मसे व संहरथसे । ( रा.वा./ १० / १ ); (त.सा./८/४२) । रा.वा./१०/१/वार्तिक/पृष्ठ/पंक्ति (उपरोक्त नयोंका हो कुछ अन्य प्रकार निर्देश किया है वर्तमान विषय नम (२/६४६/३२) अतीतगोचरनय (५/६४६/३३); भूत विषय नय ( ५ / ६४७ / १ ) प्रत्युत्पन्न भावप्रज्ञापन नय (९४/६४८/२३).... क.पा.१/१२-१४/१२१७/२००/१ हृदपुब्बगईए आगमन सुवतीदो - जिसका आगमजनित संस्कार नष्ट हो गया है ऐसे जीव में भी भूतपूर्व प्रज्ञापन नयकी अपेक्षा आगम संज्ञा मन जाती है। गोजी./५/१३३/१२१ अटुकलाये लेस्या उच्चदि सा पुल्वगदिणाया । -उपशान्त कषाय आदिक गुणस्थानोंमें पूर्वन्याय लेश्या कही गयी है। प्र.सं./टी./१४/४८/१० अन्तरात्मावस्थायां तु महिरात्मा भूतपूर्वन्यायेन घृतपटवत्। परमात्मस्वरूप तु शक्तिरूपेण भाविने गमनयेन व्यक्तिरूपेण च अन्तरात्माकी अवस्थामे अन्तरात्मा भूतपूर्व न्यायसे घृतके घटके समान और परमात्माका स्वरूप शक्तिरूपसे तथा भावनैगम नयकी अपेक्षा व्यक्तिरूपसे भी जानना चाहिए। । नोट- कालकी अपेक्षा करनेपर नय तीन प्रकारकी है- भूतग्राही, वर्तमानग्राही और भाभीकालग्राही उपरोक्त निर्देशों में इनका विभिन्न नामोंमें प्रयोग किया गया है । यथा - १. पूर्वभाव प्रज्ञापन नय, भूतग्राही नय, भूत प्रज्ञापन नय. भूतपूर्व नय, अतीतगोचर नय, भूतविषय नय, भूतपूर्व प्रज्ञापननय, भूतपूर्व न्याय आदि । २. उत्तर ज्ञापन, भाविने गमनाय २. प्रत्युत्पन्न या वर्तमानग्राहीनय वर्तमाननिय प्रापन भान प्रज्ञापन नय, इत्यादि । तहाँ ये तीनो का विषयक नवें द्रव्यार्थिक व पर्यायार्थिक नयों में गर्भित हो जाती है-भूत व भावि नये तो द्रव्याधिनयमे तथा वर्तमाननय पर्यायार्थिक अथवा नगमादि सात नयोंमें गर्भित हो जाती है-भूत व भावी नयें तो नैगमादि तीन नयों में और वर्तमान नय ऋजुत्रादि चार नयों में अपना नेगमम इन दो में गति हो जाती है-भूत व भावि नये तो गमनयने और वर्तमानमय ऋजुत्र श्लोक बार्तिकमें कहा भी है = श्लो. बा.४/९/३३/३ अजुनयः शब्दभेदाश्च त्रय. प्रत्युत्पन्नविषयग्राहिणः । शेषा नया उभयभावविषया' । - ऋजुसूत्र नयको तथा तीन शब्दनयोंको प्रत्युत्पन्ननय कहते हैं। शेष दोन नयाँको प्रत्युत्पन्न भी कहते हैं और प्रज्ञापननय भी । - (भूत व भावि प्रज्ञापन नयें तो स्पष्ट ही भूत भावी नैगम नय हैं। वर्तमानादो प्रकार की है एक अर्ध निष्पन्न निष्पन्नका उपचार करनेवाली और दूसरी साक्षात् शुद्ध वर्तमानके एक समयमात्र को सबसे अंग कार करनेवाली वहाँ पहली तो वर्तमान नेगम नय है और दूसरी सूक्ष्म सूत्र विशेषके लिए देखो आगे न / III में नैगमादि नयोके लक्षण भेद व उदाहरण ) । Jain Education International २. अस्तित्वादि सप्तभंगी नयका निर्देश प्र.सा./त.प्र./परि० नय ०३-१ अस्तित्वनयेनायमवगुणकार्मुकान्तरालबर्तिसंहितावस्थलक्ष्योन्मुख विशिखवत् स्वद्रव्यक्षेत्र कालभावैरस्तिद || नास्तित्वनयेनानयोनानयोमयागुणकार्मुकान्तरासव सं हितावस्थालक्ष्योन्मुखप्रासनविशिख परद्रव्यक्षेत्र कालभायैर्नास्तिवत् ॥४॥ अस्तित्व नास्तित्वनयेन प्राक्तन विशिखवत् क्रमतः स्वपरइपरस्तिलमास्तित्वत् । अव सय्यन येनपातनविशिखवत् युगपत्स्वपरद्रव्यक्षेत्र कालभावव्यम् । अस्तित्वावक्तव्यनयेन... प्राक्तन विशिखवत अस्तित्ववदवक्तव्यम् ॥७॥ नास्तिवावक्तव्यनयेन ... प्राक्तनविशिखवत् नास्तित्ववदवक्तव्यम् || स्वास्तिवान सम्यनयेन प्राक्तनवि अस्तित्वनास्तिस्ववदवक्तव्यम् ।। १. आत्मद्रव्य अस्तित्वनयसे स्वद्रव्यक्षेत्र काल बभावसे अस्तित्वाला है जैसे कि इसकी अपेक्षा लोहमयी, क्षेत्रकी उपेण पंचा और धनुष के मध्य में निहित कालको अपेक्षा सम्धान 1 में रहे हुए और भावकी अपेक्षा लक्ष्योन्मुख भागका अस्तित्व है। इ (पं. ध. / पू. / ७५६) २. आत्मद्रव्य नास्तित्वनय से परद्रव्य क्षेत्र काल व भावसे नास्तित्ववाला है। जैसे कि द्रव्यकी अपेक्षा अलोहमयी, क्षेत्रकी अपेक्षा प्रत्यंचा और धनुष के बीच में अनिहित, कालकी अपेक्षा सन्धान दशामें न रहे हुए और भावकी अपेक्षा अलक्ष्योन्मुख पहलेवाले बाणका नास्तित्व है, अर्थात् ऐसे किसी बाणका अस्तित्व नहीं १.प./१०/०५७) ३. आत्मद्रव्य अस्तिखनाविनयसे पूर्व के बाकी भाँति ही क्रमशः स्व व पर द्रव्य क्षेत्र काल भावसे अस्तित्व नास्तित्वाला है ।५१ ४. आत्मद्रव्य अवक्तव्य नयसे पूर्व के वाण की भाँति हो युगपत् स्वव पर द्रव्य क्षेत्र काल और भाव से अवक्तव्य है ॥ ६ ॥ ५. आत्म द्रव्य अस्तित्व अवक्तव्य नयसे पूर्व के वाणकी भाँति ( पहले अस्तित्व रूप और पीछे अवक्तव्य रूप देखनेपर) अस्तित्ववाला तथा अवक्तव्य है ।७। ६. आत्मद्रव्य नास्तित्व अवक्तव्य नयसे पूर्व के बाणकी भाँति ही ( पहले नास्तित्वरूप और पीछे अवक्तव्यरूप देखनेपर) नास्तित्ववाला तथा अवक्तव्य है |८| ७ आत्मद्रव्य अस्तित्व नास्तित्य अस्य नयसे पूर्वके नामकी भाँति ही (क्रमसे तथा युगपत् देखनेपर) अस्तित्व व नास्तित्ववाला अवक्तव्य है | | ( विशेष दे० सप्तभंगी) । I नय सामान्य *** जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश For Private & Personal Use Only .. ३. नामादि निक्षेपरूप नयका निर्देश प्र. सा./त.प्र./परि/नय नं. १२-१५ नामनयेन तदात्मवत् शब्दब्रह्मामर्श |१२| स्थापनानयेन मूर्तित्व गलासम्म १३ व्य नयेन माणवकश्रेष्ठश्रमणपार्थिववदनागतातीतपर्यायोद्भासि । १४। भावनयेन पुरुषायितप्रवृत्तयोषिद्वत्तदात्व पर्यायोब्लासि । १५ = आत्मद्रव्य नाम नयसे, नामवाले ( किसी देवदत्त नामक व्यक्ति ) की भाँति शब्दको स्पर्श करनेवाला है; अर्थात पदार्थको शब्द द्वारा कहा जाता है | १२ | आस्थापनानय मूर्तिव्यकी भाँति सर्व प्रगत का अवलम्बन करनेवाला है, (अर्थात् आत्माकी मूर्ति या प्रतिमा काह पाषाण आदि में से बनायी जाती है) ।१३। आत्मद्रव्य द्रव्यनयसे बालक सेठकी भाँति और श्रमण राजाकी भाँति अनागत व अतीत पर्याय से प्रतिभासित होता है ( अर्थाद वर्तमान में भूस या भाषि पर्याया उपचार किया जा सकता है | १४ | आत्मद्रव्य भावनयसे पुरुषके समान प्रवर्तमान स्त्रीकी भाँति तत्कालको (वर्तमानकी) पर्याय रूपसे प्रकाशित होता है। १५२ विशेष दे० निक्षेप )। www.jainelibrary.org

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