Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 2
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 534
________________ नय III नैगम आदि सात नय निर्देश पं.ध./पू /१६६ अथ सन्ति नयाभासा यथोपचारात्यहेतुदृष्टान्ता। अत्रोच्यन्ते केचिद्धेयतया वा नयादिशुद्वयर्थम् । उपचारके अनुकूल सज्ञा हेतु और दृष्टान्तवाली जो नयाभास है, उनमे से कुछका कथन यहाँ त्याज्यपनेसे अथवा नय आदिकी शुद्धिके लिए कहते है। ९. सम्यग्दृष्टिकी नय सम्यक है और मिथ्याष्टिकी मिथ्या प का/ता.वृ./४३ की प्रक्षेषक गाथा नं. ६/८७ मिच्छत्ता अण्णाणं अविरदिभावो य भाव आवरणा। णेयं पडुच्चकाले तह दुण्णं दुप्पमाणं च ।६। जिस प्रकार मिथ्यात्वके उदयसे ज्ञान अज्ञान हो जाता है, अविरतिभाव उदित होते है, और सम्यक्त्वरूप भाव ढक जाता है, वैसे ही सुनय दुर्नय हो जाती है और प्रमाण दु प्रमाण हो जाता है। न, च.व./२३७ भेदुवयारं णिच्छय मिच्छादिट्ठीण मिच्छरूव खु । सम्मे सम्मा भणिया तेहि दुबंधोब मोक्खो वा.२३७ । - मिथ्यादृष्टियों के भेद या उपचारका ज्ञान नियमसे मिथ्या होता है। और सम्यक्त्व हो जाने पर वही सम्यक् कहा गया है। तहाँ उस मिथ्यारूप ज्ञानसे बन्ध और सम्यकरूप ज्ञानसे मोक्ष होता है। II नैगम आदि सात नय निर्देश १. सातों नयोंका समुदित सामान्य निर्देश १. सातों में द्रव्यार्थिक व पर्यायार्थिक विभाग स. सि./१/३३/१४०/८ स द्वेधा द्रव्यार्थिकः पर्यायार्थिकश्चेति ।... तयोर्भेदा नेगमादयः। -नयके दो भेद हैं-द्रव्यार्थिक और पर्यायाथिक । इन दोनों नयोके उत्तर भेद नैगमादि हैं। (रा.वा./२/ ३३/१/१४/२५) (दे० नय/I/१/४) ध.६/४,१,४५/पृष्ठ/पंक्ति-स, एव विधो नयो द्विविधः, द्रव्यार्थिकः पर्यायाथिकश्चेति ।(१६७/१०)। तत्र योऽसौ द्रव्यार्थिकनयः स त्रिविधो नैगमसंग्रहव्यवहारभेदेन (१६८/४)। पर्यायार्थिको नयश्चतुविध' ऋजुमूत्रशब्द-समभिरूदैवं भूतभेदेन । (१७१/७) । इस प्रकारकी वह नय दो प्रकार है-द्रव्यार्थिक व पर्यायाथिक। तहाँ जो द्रव्याथिकनय है वह तीन प्रकार है-नै गम, संग्रह व व्यवहार। पर्यायाथिकनय च र प्रकार है-ऋजुमूत्र, शब्द, समभिरूढ व एवंभूत (ध.१/१,१,१/ गा. ५-७/१२-१३), (क.पा.१/१३-१४/६१८१-१८२/गा. ८७-८६/२१८२२०), (श्लो.वा ४/१/३३/श्लो.३/२१५) (ह.पु./५८/४२), (ध.१/१,१,१ -८३/१०+८४/२+८५/२+८६/३+८६/६); (क. पा.१/१३-१४६१७७/२११/४+ १८२/२१६/१+१८४/२२२/१ + ६१६७/२३५/१); (न.च वृ/श्रुत/२१७) (न.च./पृ.२०) (त.सा./२/४१-४२/३६); (स्या. म, /८२/३१७/१+३१८/२२)। । १०. प्रमाण ज्ञान होनेके पश्चात् ही नय प्रवृत्ति सम्यक होती है, उसके बिना नहीं स. सि./१६/२०१५ कुतोऽभ्यहितत्त्वम् । नयप्ररूपणप्रभवयोनित्वात। एवं युक्तं 'प्रगृह्य प्रमाणत परिणतिविशेषादविधारणं नय' इति । प्रश्न-प्रमाण श्रेष्ठ क्यों है । उत्तर-क्योकि प्रमाणसे ही नय प्ररूपणाकी उत्पत्ति हुई है, अतः प्रमाण श्रेष्ठ है। आगममे ऐसा कहा है कि वस्तुको प्रमाणसे जानकर अनन्तर किसी एक अवस्था द्वारा पदार्थ का निश्चय करना नय है। दे० नय/I/१/१/४ (प्रमाण गृहीत वस्तुके एक देशको जानना नयका लक्षण है।) रा. वा./१/६/२/३३/६ यतः प्रमाणप्रकाशितेष्वर्थेषु नयप्रवृत्तिर्व्यवहारहेतुर्भवति नान्येषु अतोऽस्याम्यहितस्त्रम् । क्योंकि प्रमाणसे प्रकाशित पदार्थों में ही नयको प्रवृत्तिका व्यवहार होता है, अन्य पदार्थों में नहीं, इसलिए प्रमाणको श्रेष्ठपना प्राप्त है । श्लो.वा./२/१/६/श्लो,२३/३६५ नाशेषवस्तुनिीत प्रमाणादेव कस्यचित् । तादृक् सामर्थ्यशून्यत्वात सन्नयस्यापि सर्वदा १२३- किसी भी वस्तुका सम्पूर्ण रूपसे निर्णय करना प्रमाण ज्ञानसे ही सम्भव है। समीचीनसे भी समीचीन किसी नयकी तिस प्रकार बस्तुका निर्णय करलेनेकी सर्वदा सामर्थ्य नही है। घ.६/४,१,४७/२४०/२ पमाणादो णयाणमुप्पत्ती, अणवगयढे गुणप्पहाण भावाहिप्पायाणुप्पत्तीदो। = प्रमाणसे नयोकी उत्पत्ति होती है, क्योंकि, वस्तुके अज्ञात होनेपर, उसमे गौणता और प्रधानताका अभिप्राय नहीं बनता है। आ.प.//गा.१० नानास्वभावसंयुक्त द्रव्यं ज्ञात्वा प्रमाणतः। तच्च सापेक्षसिद्ध्यर्थ स्यान्नयमिश्रितं कुरु ।१०। == प्रमाणके द्वारा नानास्वभावसयुक्त द्रव्यको जानकर, उन स्वभावों में परस्परसापेक्षताको सिद्धिके अर्थ ( अथवा उनमें परस्पर निरपेक्षतारूप एकान्तके विनाशाथ) (न.च.बृ./१७३ ), उस ज्ञानको नयोसे मिश्रित करना चाहिए। (न.च../१७३)। २. इनमें द्रव्यार्थिक व पर्यायार्थिक विमागका कारण ध.१/१.१,१/८४,७ एते त्रयोऽपि नया. नित्यवादिनः स्वविषये पर्यायाभावत' सामान्यविशेषकालयोरभावात्। द्रव्याथिकपर्यायाथिकनययो. किकृतो भेदश्चेदुच्यते अजुसूत्रवचन विच्छेदो मूलाधारो येषां नयानां ते पर्यायाथिकाः । विच्छिद्यतेऽस्मिन्काल इति विच्छेद' । ऋजुसूत्रवचनं नाम वर्तमानवचनं, तस्य बिच्छेदः ऋजुसूत्रवचनविच्छेदः । स कालो मूलाधारो येषां नयानां ते पर्यायार्थिका.। अजुसूत्रवचनबिच्छेदादारभ्य आ एक समयाद्व स्तुस्थित्यध्यवसायिन पर्यायाथिका इति यावत् । -ये तीनों ही (नैगम, संग्रह और व्यवहार) नय नित्यवादी हैं, क्योंकि इन तीनो ही नयोका विषय पर्याय न होनेके कारण इन तीनों नयोंके विषयमे सामान्य और विशेषकालका अभाब है। (अर्थात इन तीनों नयो में काल की विवक्षा नहीं होती।) प्रश्न-द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिकमें किस प्रकार भेद है। उत्तर-अजुसूत्रके प्रतिपादक वचनोका विच्छेद जिस कालमे होता है, वह ( काल ) जिन नयोंका मुल आधार है, वे पर्यायार्थिक नय हैं। विच्छेद अथवा अन्त जिसकाल में होता है, उस कालको विच्छेद कहते हैं। वर्तमान वचनको ऋजुसुत्रवचन कहते हैं और उसके विच्छेदको ऋजसूत्रवचनविच्छेद कहते है। वह अजुसूत्रके प्रतिपादक वचनोंका विच्छेदरूप काल जिन नयोंका मूल आधार है उन्हें पर्यायाथिकनय कहते हैं। अर्थात ऋजुसूत्रके प्रतिपादक वचनोके विच्छेदरूप समयसे लेकर एकसमय पर्यन्त वस्तुकी स्थितिका निश्चय करनेवाले पर्यायार्थिक नय हैं। (भावार्थ-'देवदत्त' इस शब्द का अन्तिम अक्षर 'त' मुखसे निकल चुकनेके पश्चात्से लेकर एक समय आगे तक हो देवदत्त नामका व्यक्ति है, दूसरे समय में वह कोई अन्य हो गया है। ऐसा पर्यायार्थिकनयका मन्तव्य है । (क.पा.१/१३-१४/१८५/२२३/३) ३. सातों में अर्थ शब्द व ज्ञाननय विभाग रा.वा./४/४२/१७/३६१/२ संग्रहव्यवहारर्जुसूत्रा अर्थनयाः। शेषा' शब्दनया' । - संग्रह, व्यवहार, व अजुसूत्र ये अर्थनय हैं और शेष जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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