Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 2
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 537
________________ नय २. 'नैकं गमो' अर्थात् द्वैतग्राही 1 श्लो. वा/४/१/३३ / श्लो. २१/२३२ यद्वा नैकं गमो योऽत्र सतां नैगमो मतः । धर्मयोधर्मिणोर्वा विमला धर्मधर्मिणो जो एकको विषय नहीं करता उसे ने गमनय कहते है अर्थात जो गुन्य गौणरूपसे दो धर्मोंको, दो धर्मियोंको अथवा धर्म व धर्मी दोनोको विषय करता है वह नेगम नय है (.६/४.१.४५/११/२) (ध.१३/२. ५.७/१६६/१): (स्या. म. / २८/- ३११/३,३१७/२) स्पा.म./२८/३९६/१४ में उधृत अन्यदेव हि सामान्यमभिज्ञानकार णम् । विशेषोऽप्यन्य एवेति मन्यते नैगमो नयः । - अभिन्न ज्ञानका कारण जो सामान्य है, वह अन्य है और विशेष अन्य है, ऐसा मन मानता है । दे० आगे नय / III/३/२ (संग्रह व व्यवहार दोनोंको विषय करता है । ) २. 'संकल्पग्राही' लक्षण विषयक उदाहरण स.सि./१/२३/१४१/२ कश्चित्पुरुषं परिगृहीतपरशुं गच्छन्तमवलोक्य कश्चित्पृच्छति किमी स आह प्रथमानेतुमिति नासो तथा पस्थपर्याय संनिहित तदभिनित संकल्पमात्रे प्रस्थव्यवहार | तथा एधोदकाद्याहरणे व्याप्रियमाणं कश्चिवृति कि करोति भवानिति स आह ओवन पथामीति । न तदौपर्यायः संनिहित तदर्थे व्यापारे स प्रयुज्यते एवं प्रकारो संव्यवहारोऽअनभिनिवृत्तार्थ संकल्पमात्रविषयो नैगमस्य गोचरः । = १. हाथ में फरसा लिये जाते हुए किसी पुरुषको देखकर कोई अन्य पुरुष पूछता है. 'आप किस कामके लिए जा रहे हैं।' वह कहता है कि प्रस्थ लेनेके लिए जा रहा हूँ । उस समय वह प्रस्थ पर्याय सन्निहित नहीं है केवल उसके मनाने का संकल्प होनेसे उसमें (जिस काठको लेने जा रहा है उस काठमे ) प्रस्थ-व्यवहार किया गया है। २. इसी प्रकार ईधन और जल जादिके लाने लगे किसी पुरुषसे कोई पूछता है, कि 'आप क्या कर रहे है । हुए उसने कहा, भात पका रहा हूँ। उस समय भात पर्याय सन्निहित नहीं है, केवल भात के लिए किये गये व्यापार में भावका प्रयोग किया गया है । इस प्रकारका जितना लोकव्यवहार है वह अनिष्पन्न अर्थ के आलम्बनसे संकल्पमात्रको विषय करता है, वह सब नैगमनयका विषय है। (रा. ना/१/११/२/१५/१३): (श्लो.मा/४/२/२३/१८/२३०) मा० २-६७ १ Jain Education International = ३. 'देवमाही' लक्षण विषयक उदाहरण प.सं./१२/४.११/२/२६५ १. पगमवनहाराणां बाणावरणीय नेणा सिया जीवस्स वा ॥ २॥ नैगम और व्यवहार नयकी अपेक्षा ज्ञानावरणीयकी वेदना कथंचित् जीवके होती है। (यहाँ जीव तथा उसका कर्मायुभन दोनोंका प्रण किया है। बेदना प्रधान है और जीव गौग) | १०/४.२.३/९/१३ २. णेगमववहाराणं णाणावरणीयवेयणा सणावरणीय देणीवेया... नैगम व व्यवहारनयसे वेदना ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनोय... ( आदि आठ भेदरूप है ) । ( यहाँ वेदना सामान्य गौण और ज्ञानावरणीय आदि भेद प्रधानऐसे दोनोंका ग्रहण किया है ।) क. पा. १/१३-१४/६२५० / २१०/१३ म पङ्गच्च कोही समुप्पणी सो तो दो संतोक कोहो हॉत ऐसो दोस्रो जधि संगहादिगया अभिदा, किन्तु मङ्गमणी अवसहाइरिएण वैणावसंविदो तेण ण एस दोसो । तत्थ कधं ण दोसो । कारणम्मि णिलोणकज्जभुभगमादो प्रश्न- जिस मनुष्य के निमितो है, वह मनुष्य उस क्रोधसे अलग होता हुआ भी क्रोध कैसे कहला सकता है ? उत्तर-- यदि यहाँ पर संग्रह आदि नयोंका अवलम्बन = हुआ ५२९ - III नैगम आदि सात नय निर्देश लिया होता, तो ऐसा होता अर्थात संग्रह आदि नयकी अपेक्षा क्रोधसे भिन्न मनुष्य आदिक क्रोध नहीं कहलाये जा सकते है। किन्तु तिषाचार्य चूँकि यहाँ गमनयका अवलम्बन लिया है. इस लिए यह कोई दोष नहीं है। प्रश्न-दोष कैसे नही है ? उत्तरक्योंकि नैगमनयको अपेक्षा area कार्यका सद्भाव स्वीकार किया गया है। ( और भी दे० - उपचार /५/३ ) २४.१.४५/१०१/२४. परस्पर विभिनोभयविषयासम्तो नैगमतयः शब्द-शीत-कर्म कार्य कारणाधाराधेयभाव-भविष्यद्वर्तमानमेयोन्यादिकमाश्रित्य स्थितोपचारप्रभव इति यावत् । भिन्न ( भेदाभेद ) दो विषयोका अवलम्बन करनेवाला नैगमनय है । अभिप्राय यह कि जो शब्द, शील, कर्म, कार्य, कारण, आधार, आधेय भूत, भविष्य, वर्तमान मेव व उन्मेयादिका आश्रमकर स्थित उपचारसे उत्पन्न होनेवाला है, वह नैगमनय कहा जाता है (क.पा./९/१३-१४/११-३/२२१/१) । परस्पर . घ. १३/५,३,१२/१३/१५. धम्मदव्वं धम्मदव्वेण पुस्सज्जदि, असंगहियगमणयम सिण लोगागासपदेसमेत धम्मदव्यपदेसाणं पुध-पुध लद्वदव्वववएसाणमण्णोष्णं पासुवलं भादो | अधम्मदव्व मधम्मदवे पुसिज्मविदेस-पदेस परमाणुन मसंग योग मग एका दव्वेण - परमाणूणमसंगहियणेगमणएण पदव्यभावाणमेतसाद -धर्मव्य धर्मद्रव्य के द्वारा स्पर्शको प्राप्त होता है, क्योंकि असंग्राहिक गममयको अपेक्षा लोकाकाश के प्रदेशप्रमाण और पृथक-पृथक द्रव्य संज्ञाको हुए धर्मइपके प्रदेशोंका परस्पर स्पर्श देखा जाता है। अजय अधर्मद्रव्यके द्वारा स्पर्शको प्राप्त होता है, क्योंकि असंग्राहिक नैगमनयकी अपेक्षा द्रव्यभावको प्राप्त हुए अधर्मद्रव्यके स्कन्ध, देश, प्रदेश, और परमाणुओंका एकत्व देखा जाता है। स्पा. म. /२०/३१७/२ ६. धर्मयोनिनो धर्म प्रधानोपसर्जनभावेन यद्विवक्षण स नैकगमो नैगम । सतु चैतन्यमात्मनीति धर्मयोः । वस्तुपर्यायवद्रव्यमिति धर्मिणो । क्षण मेकं सुखी विषयासक्तजीव इति धर्मधर्मिणोः । =दो धर्म और दो धर्म अथवा एक धर्म और एक धर्ममें प्रधानता और गोमताकी विवक्षाको नैगमनय कहते है। जैसे (१) सत् और चैतन्य दोनों आत्मा धर्म है। यहाँ त और चैतन्य धर्मोपेतन्य विशेष्य होनेसे प्रधान धर्म है और सद विशेषण होनेसे गोम धर्म है (२) पर्यायवाद व्यको मस्तु कहते हैं। यहाँ और वस्तु दो धर्मियों में इव्य मुख्य और मस्तु मौन है अथवा पर्यायवाद वस्तुको द्रव्य कहते हैं, यहाँ वस्तु मुख्य और द्रव्य गौण है। (३) विषयासजीव क्षण भरके लिए सुखी हो जाता है। यहाँ विषयास जीवरूप धर्मी मुल्य और सुखरूप धर्म गौण है। स्वा.म. / १० / ३११/३ त्र गमः सत्तात महासामान्य, अनान्तरसामान्यानि च द्रव्यत्वगुणश्वकर्मत्वादीनि तथान्त्यान् विशेषान् सकलासाधारण रूपलक्षणान् अवान्तर विशेषांश्चापेक्षया पररूपव्यावृत्तनक्षमात् सामान्यान् अत्यन्त स्वरूपानभिप्रेति । - नैगमन सत्तारूप महासामान्यको अवान्तरसामान्यको द्रव्यल. गुणत्व, कर्मत्व आदिको सकल असाधारणरूप अन्त्य विशेषको तथा पररूपसे व्यावृत और सामान्यसे भिन्न अवान्तर विशेषोंको, अत्यन्त एकमेकरूपसे रहनेशन सर्व धर्मोको (मुख्य गौण करके) जानता है । ४. नैगमन के भेद श्लो. वा./४/९/३३/४/२२६/१८ त्रिविधस्तावन्नैगमः । पर्यायने गमः द्रव्य गमः, द्रव्यपर्याय गमश्चेति तत्र प्रथमस्प्रेधा अर्थ पर्यायगम व्यञ्जनपर्याय नमोऽव्यञ्जनंगमस्य इति द्वितीयो द्विधा शुद्धद्रव्यनैगमः अव्यमे गमश्चेति तृतीयश्चतुर्धा जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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