Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 2
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 533
________________ नय ५२५ II सम्यक् व मिथ्या नय अथवा सामान्य और विशेषको विषय करनेवाले जो नय है वे मुख्य और गौणकी कल्पनासे इष्ट हैं। घ.६/४.१,४५१८२/१ ते सर्वेऽपि नयाः अनबधृतस्वरूपाः सम्यग्दृष्टय' प्रतिपक्षानिराकरणात । ध.१/४,१,४५/२३९/४ सुणया कधं सविसया। एयंतेण पडिवववणिसेहाकर णादो गुणपहाणभावेण ओसादिदपमाणबाहादो। - मे सभी नय वस्तुस्वरूपका अवधारण न करनेपर समीचीन नय होते हैं. क्योंकि वे प्रतिपक्ष धर्मका निराकरण नहीं करते। प्रश्न-सुनयोंके अपने विषयोंकी व्यवस्था कैसे सम्भव है। उत्तर-चू कि सुनय सर्वथा प्रतिपक्षभूत विषयों का निषेध नहीं करते, अतः उनके गौणता और प्रधानताकी अपेक्षा प्रमाणबाधाके दूर कर देनेसे उक्त विषय व्यवस्था भले प्रकार सम्भव है। स्या.म./२८/३०८/४ स हि 'अस्ति घटः' इति घटे स्वाभिमतमस्तित्वधर्म प्रसाधयन् शेषधर्मेषु गजनिमिलिकामालम्बते । न चास्य तुनंयावं धर्मान्तरातिरस्कारात् । -वस्तुमें इष्ट धर्मको सिद्ध करते हुए अन्य धर्मीमें उदासीन होकर वस्तुके विवेचन करनेको नय कहते हैं। जैसे 'यह घट है'! नयमें दुर्नयकी तरह एक धर्मके अतिरिक्त अन्य धर्मोंका निषेध नहीं किया जाता, इसलिए उसे दुर्न य नहीं कहा जा सकता। १.जो नय सर्वथाके कारण मिथ्या है वही कथंचित्के कारण सम्यक् है स्व. स्तो/१०१ सदेकनित्यवक्तव्यास्तद्विपक्षाश्च यो नयाः । सर्बथेति प्रदुष्यन्ति पुष्यन्ति स्यादितीह ते १०११-सव, एक, नित्य, वक्तव्य तथा असन, अनेक, अनित्य, व अवक्तव्य ये जो नय पक्ष हैं वे यहाँ सर्वथारूपमें तो अति दूषित हैं और स्यावरूपमें पुष्टिको प्राप्त होते हैं। गो. क./मू./८६४-८६५/१०७३ जावदिया णयवादा तावदिया चेव होंति परसमया ८६४। परसमयाणं क्यणं मिच्छं खलु होइ सव्वहा षयणा। जेणाणं पुण बयणं सम्मं सु कहचिव वयणादो ।६५।जितने नयवाद है उतने ही परसमय हैं। परसमयवालोंके वचन 'सर्वथा' शब्द सहित होनेसे मिथ्या होते हैं और जैनोंके बही वचन 'कथंचित' शब्द सहित होनेसे सम्यक होते हैं । (देनय//५ में ध.१) न.च.वृ/२१२ ण दु णयपक्रवो मिच्छा तं पिय यंतदबसिद्धियरा। सियसहसमारूढं जिणवयणविणिग्गय सुद्ध'।-अनेकान्त द्रव्यकी सिद्धि करनेके कारण नयपक्ष मिथ्या नहीं होता । स्यात् पदसे अलंकृत होकर वह जिनत्रचनके अन्तर्गत आनेसे शुद्ध अर्थात् समीचीन हो जाता है। (न.च.व./२४६ ) स्या.म /३०/३३६/१३ ननु प्रत्येकं नयानो विरुद्धत्वे कथं समुदिताना निविरोधिता। उच्यते । यथा हि समीचीन मध्यस्थं न्यायनिर्णतारमासाद्य परस्परं विवादमाना अपि वादिनो विवादाइ विरमन्ति एवं नया अन्योऽन्यं वैरायमाणा अपि सर्वज्ञशासनमुपेत्य स्याच्छन्दप्रयोगोपशमितविप्रतिपत्तयः सन्तः परस्परमत्यन्तं सुहृदभूयावतिष्ठन्ते । प्रश्न-यदि प्रत्येक नय परस्पर विरुद्ध हैं, तो उन नयोंके एकत्र मिलानेसे उनका विरोध किस प्रकार नष्ट होता है ? उत्तर-जैसे परस्पर विवाद करते हुए वादी लोग किसी मध्यस्थ न्यायी के द्वारा न्याय किये जानेपर विवाद करना बन्द करके आपसमें मिल जाते हैं, वैसे ही परस्पर विरुद्ध नय सर्वज्ञ भगवानके शासनकी शरण लेकर 'स्यात्' शब्दसे विरोधके शान्त हो जानेपर परस्पर मैत्री भावसे एकत्र रहने लगते हैं। पं.ध./पू./३३६-३३७ ननु किं नित्यमनित्यं किमयोभयमनुभयं च तत्त्वं स्यात् । व्यस्त किमथ समस्तं क्रमतः किमथाक्रमादेतत् ।३३६॥ सत्यं स्वपरनिहत्य सर्व किल सर्वथेति पदपूर्वम्। स्वपरोपकृतिनिमित्तं सर्व स्यारस्यात्पदाङ्कितं तु पदम् ।३३-प्रश्न-तत्त्व नित्य है या अनित्य, उभय या अनुभय, व्यस्त या समस्त, क्रमसे या अक्रमसे : उत्तर-'सर्वथा इस पद पूर्वक सब ही कथन स्वपर घातके लिए हैं, किन्तु स्यात् पदके द्वारा युक्त सब ही पद स्वपर उपकारके लिए हैं। ७. सापेक्षनय सम्यक् और निरपेक्षनय मिथ्या होती है आ.मी./१०८ निरपेक्षया नयाः मिथ्या सापेक्षा वस्तुतोऽर्थकत ।-निरपेक्षनय मिथ्या है और सापेक्ष नय वस्तुस्वरूप है। (श्लो.वा.४/९/ ३३/श्लो,८०/२६८) । स्व. स्तो./६१ य एव नित्यक्षणिकादयो नयाः, मिथोऽनपेक्षा स्व-परप्रणाशिनः । त एव तत्त्वं विमलस्य ते मुने, परस्परेक्षाः स्वपरोपकारिण' ६१-जो ये नित्य व क्षणिकादि नय है वे परस्पर निरपेक्ष होनेसे स्वपर प्रणाशी हैं। हे प्रत्यक्षज्ञानी विमलजिन ! आपके मतमें वे ही सब नय परस्पर सापेक्ष होनेसे स्व व परके उपकारके लिए हैं। क. पा./१/१३-१४/१२०५/गा, १०२/२४६ तम्हा मिच्छादिट्ठी सव्वे वि णया सपक्रवपडिबद्धा। अण्णोण्णणिस्सिया उण लहंति सम्मत्तसब्भाव १०२ - केवल अपने-अपने पक्षसे प्रतिबद्ध ये सभी नय मिथ्यादृष्टि हैं। परन्तु यदि परस्पर सापेक्ष हों तो सभी नय समीचीनपनेको प्राप्त होते हैं, अर्थात् सम्यग्दृष्टि होते हैं। स.सि./२/३३/१४५/१ ते एते गुणप्रधानतया परस्परतन्त्राः सम्यग्दर्शनहेतवः पुरुषार्थक्रियासाधनसामर्थ्यात्तन्वादय इव यथोपाय विनिवेश्यमाना' पटादिसंज्ञाः स्वतन्त्राश्चासमर्थाः । ये सब नय गौण-मुख्यरूपसे एक दूसरेकी अपेक्षा करके ही सम्यग्दर्शनके हेतु हैं। जिस प्रकार पुरुषकी अर्थक्रिया और साधनोंकी सामर्थ्यवश यथायोग्य निवेशित किये गये तन्तु आदिक पर संज्ञाको प्राप्त होते हैं । ( तथा पटरूपमें अर्थ क्रिया करनेको समर्थ होते हैं। और स्वतन्त्र रहनेपर ( पटरूपमें ) कार्यकारी नहीं होते, वैसे हो ये नय भी समझने चाहिए। (त. सा./१/५१)। सि. वि./मू./१०/२७/६६१ सापेक्षा नया सिद्धा; दुर्नया अपि लोकत' । स्यावादिना व्यवहारात् कुक्कुटग्रामवासितम्। लोकमें प्रयोग की जानेवाली जो दुर्नय हैं वे भी स्याद्वादियोंके ही सापेक्ष हो जानेसे सुनय बन जाती हैं। यह बात आगमसे सिद्ध है । जैसे कि एक किसी घरमें रहनेवाले अनेक गृहवासी परस्पर मैत्री पूर्वक रहते हैं। लघीयस्त्रय/३० भेदाभेदात्मके ज्ञेये भेदाभेदाभिसन्धयः । ये तेऽपेक्षानपेक्षाभ्यां लक्ष्यन्ते नयदुर्नया' १३० =भेदाभेदात्मक ज्ञेयमें भेदव अभेदपनेकी अभिसन्धि होनेके कारण, उनको बतलानेवाले नय भी सापेक्ष होनेसे नय और निरपेक्ष होनेसे दुर्नय कहलाते हैं। (.घ./ पू./५१०)। न.च./२४६ सियसावेक्खा सम्मा मिच्छारूवा हु तेहि णिरवेक्खा । तम्हा सियसद्दादो विसयं दोण्हं पि णायव्वं । क्योंकि सापेक्ष नय सम्यक् और निरपेक्ष नय मिथ्या होते हैं, इसलिए प्रमाण व नय दोनों प्रकारके वाक्योंके साथ स्यात् शब्द युक्त करना चाहिए। का.अ./मू./२६६ ते सावेवरवा सुणया णिरवेक्वा ते वि दुण्णया होति । सयलववहारसिद्धी सुणयादो होदि णियमेण । =ये नय सापेक्ष हों तो सुनय होते हैं और निरपेक्ष हों तो दुय होते हैं। सुनयसे ही समस्त व्यवहारों की सिद्धि होती है। ८. मिथ्या नय निर्देशका कारण व प्रयोजन स्या.म./२७/३०६/१ यद् व्यसनम् अत्यासक्तिः औचित्यनिरपेक्षा प्रवृत्तिरिति यावद् दुर्नीतिवादव्यसनम् । = दुर्न यवाद एक व्यसन है । व्यसनका अर्थ यहाँ अति आसक्ति अर्थात अपने पक्षकी हठ है, जिसके कारण उचित और अनुचितके विचारसे निरपेक्ष प्रवृत्ति होती है। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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