Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 2
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 532
________________ नय ५२४ II सम्यक् व मिथ्या नय भी द्रव्य गुण पर्याय तीनों सामान्यरूपसे एक सत हैं, इसलिए किसी एकके कहनेपर शेष अनुक्तका ग्रहण हो जाता है। यह एकनय है। १७५३। ३६. परिणमन होते हुए पूर्व पूर्व परिणमनका विनाश होनेपर भी यह कोई अपूर्व भाव नहीं है, इस प्रकारका जो कथन है वह पर्यायार्थिक विशेषण विशिष्ट भावनय है ७६॥ ४०. तथा नवीन पर्याय उत्पन्न होनेपर जो उसे अपूर्वभाव कहता ऐसा पर्यायाथिक नय रूप अभाव नय है ।७६४० ४१. अस्तित्वगुणके कारण द्रव्य सत है, ऐसा कहनेवाला अस्तित्व नय है ।।६३॥ ४२. जीवका वैभाविक गुण ही उसका कर्तृत्वगुण है। इसलिए जीवको कतृत्व गुणवाला कहना सो कतृ त्व नय है ।५६४। मार्गको देखनेवाले आपने ही नय और प्रमाणमार्ग के द्वारा दुर्नयवादका निराकरण किया है (२८जिसके द्वारा पदार्थोके एक अंशका ज्ञान हो उसे नय (सम्यक् नय) कहते हैं। खोटे नयोंको या दुर्नीतियोंको दुर्नय कहते हैं। (स्या.म./२७/३०५/२८)। और भी दे० (नय/I/१/१), (पहिले जो नय सामान्यका लक्षण किया गया वह सम्यक् नयका है।) और भी दे० अगले शीर्षक-(सम्यक् व मिथ्या नयके विशेष लक्षण अगले शीर्षकोंमें स्पष्ट किये गये हैं)। ५. अनन्तों नय होनी सम्भव हैं ध.१/१,१,१/गा.६०/८० जाव दिया क्यण-वहा तावदिया चेव होति णयवादा । जितने भी वचनमार्ग हैं, उतने ही नयवाद अर्थात नयके भेद हैं। (ध.१/४,१,४५/गा.६२/१८१). (क. पा.१/१३-१४/६२०२/गा. ६३/२४५), (ध.१/१,१,६/गा.१०५/१६२). (ह.पु./५८/५२), (गो.क./मू./८६४/१०७३), (प्र. सा./त. प्र./परि. में उद्धृत); (स्या. म./२८/३१०/१३ में उद्धृत)। स.सि./१/३३/१४५/७ द्रव्यस्यानन्तशक्ते प्रतिशक्ति विभिद्यमानाः बहुविकल्पा जायन्ते । -द्रव्यकी अनन्त शक्ति है। इसलिए प्रत्येक शक्तिकी अपेक्षा भेदको प्राप्त होकर ये नय अनेक ( अनन्त) विकल्प रूप हो जाते हैं । (रा. वा/१/३३/१२/६/१८), (प्र. सा./त. प्र./परि. का अन्त), (स्या.म./२८/३१०/११); (पं.घ./पू./५८६,५६५)। रलो.वा.४/१/३३/श्लो, ३-४/२१५ संक्षेपावौ विशेषेण द्रव्यपर्यायगोचरी ।३। विस्तरेणेति सप्तैते विज्ञेया नैगमादयः । तथातिविस्तरेणोक्ततदभेदाः संख्यातविग्रहाः।४। =संक्षेपसे नय दो प्रकार हैं-द्रव्यार्थिक और पर्यायाथिक ।३। विस्तारसे नै गमादि सात प्रकार हैं और अति विस्तारसे संख्यात शरीरवाले इन नयोके भेद हो जाते हैं। (स.म./ २८/३१७/१)। म.१/१,१.१/६१/१ एवमेते संक्षेपेण नया' सप्तविधाः। अवान्तरभेदेन पुनरसंख्येयाः। = इस तरह संक्षेपसे नय सात प्रकार के हैं और अवान्तर भेदोंसे असंख्यात प्रकारके समझना चाहिए। 1. अन्य पक्षका निषेध न करे तो कोई भी नय मिथ्या नहीं होता क.पा.१/१३-१४/६२०६/२५७/१ त चैकान्तेन नयाः मिथ्यादृष्टयः एव; परपक्षानिकरिष्णूनां सपक्षसत्त्वावधारणे व्यापूतानां स्यात्सम्यग्दृष्टिस्वदर्शनात् । उक्तं च-णिययवयणिनसच्चा सव्वणया परवियालणे मोहा। ते उण ण दिठ्ठसमओ विभयइ सच्चे व अलिए वा ।११७॥ -द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नय सर्वथा मिध्यादृष्टि ही हैं, ऐसा कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि जो नय परपक्षका निराकरण नहीं करते हुए (विशेष दे० आगे नय/II/४) ही अपने पक्षका निश्चय करने में व्यापार करते हैं उनमें कथंचित समीचीनता पायी जाती है। कहा भी है-ये सभी नय अपने विषयके कथन करनेमें समीचीन हैं, और दूसरे नयोंके निराकरण करनेमें मूढ़ हैं। अनेकान्त रूप समयके ज्ञाता पुरुष 'यह नय सच्चा है और यह नय झूठा है' इस प्रकारका विभाग नहीं करते हैं ।११७ न.च.व./२९२ ण दु णयपक्खो मिच्छा तं पिय यंतदव्वसिद्धियरा। सियसहसमारूढ़ जिणचयणविगिरगयं सुद्ध। -नयपक्ष मिथ्या नहीं होता, क्योंकि वह अनेकान्त द्रव्यकी सिद्धि करता है। इसलिए 'स्यात्' शब्दसे चिह्नित तथा जिनेन्द्र भगवान द्वारा उपदिष्ट नय शुद्ध हैं। II. सम्यक् व मिथ्या नय १. नय सम्यक् भी है और मिथ्या मी न.च.व /१८१ एयंतो एयणयो होइ अणेयंतमस्स सम्मूहो। त खलु णाणवियप्पं सम्म मिच्छं च णायव्वं १८२ =एक नेय तो एकान्त है और उसका समूह अनेकान्त है। वह ज्ञानका विकल्प सम्यक् भी होता है और मिथ्या भी। ऐसा जानना चाहिए। (पं.घ./पू./ १. अन्य पक्षका निषेध करनेसे ही मिथ्या हो जाता है ध.६/४,१,४५/१८२/१ त एव दुरवधीरता मिथ्यादृष्टय प्रतिपक्षनिराकरणमुखेन प्रवृत्तत्वात । -ये (नय ) ही जब दुराग्रहपूर्वक वस्तुस्वरूपका अवधारण करनेवाले होते हैं, तब मिथ्या नय कहे जाते हैं, क्योंकि प्रतिपक्षका निराकरण करनेकी मुख्यतासे प्रवृत्त होते हैं। (विशेष दे०/एकान्त/१/२), (ध.६/४,१,४५/१८३/१०), (क.पा.३/२२/६५१३/ २१२/२)। प्रमाणनयतत्त्वालंकार/७/१/ (स्या. म./२८/३१६/२६ पर उधृत) स्वाभिप्रेताद अंशाद् इतरांशापलापी पुनर्नयाभासः । अपने अभीष्ट धर्मके अतिरिक्त वस्तुके अन्य धर्मों के निषेध करनेको नयाभास कहते हैं। स्या.म./२८/३०८/१ अस्त्येव घटः' इति । अयं वस्तुनि एकान्तास्तित्वमेव अभ्युपगच्छन् इतरधर्माणी तिरस्कारेण स्वाभिप्रेतमेव धर्म व्यवस्थापयति । =किसी वस्तुमें अन्य धर्मोंका निषेध करके अपने अभीष्ट एकान्त अस्तित्वको सिद्ध करनेको दुर्नय कहते हैं, जैसे 'यह घट ही है। ५. अन्य पक्षका संग्रह करनेपर वही नय सम्यक् हो पलापी निध करनेको वस्तुनि एकान्त धर्म जाते हैं २. सम्यक व मिथ्या नयों के लक्षण स्या.म./७४/४ सम्यगेकान्तो नयः मिथ्येकान्तो नयाभासः। सम्यगेकान्तको नय कहते हैं और मिथ्या एकान्तको नयाभास या मिथ्या नय । (दे० एकान्त/१), (विशेष दे० अगले शीर्षक)। स्या. म./म् व टोका/२८/३०७,१० सदेव सव स्यात्सदिति विधार्थो मीयते दुर्नीतिनयप्रमाणैः । यथार्थदर्शी तु नयप्रमाणपथेन दुर्नीतिपथं त्वमास्थः ।२८।...नीयते परिच्छिद्यते एकदेश विशिष्टोऽर्थ आभिरिति नीतयो नयाः । दुष्टा नीतयो दुर्नीतयो दुर्नया इत्यर्थः । - पदार्थ 'सर्वथा सत् है', 'सत है' और 'कथंचित् सत् है इस प्रकार क्रमसे दुर्नय, नय और प्रमाणसे पदार्थों का ज्ञान होता है। यथार्थ सं.स्तो./६२ यथैकशः कारकमर्थसिद्धये, समीक्ष्य शेष स्वसहायकार कम् । तथैव सामान्यविशेषमातृका नयास्तवेष्टा गुणमुख्यकल्पतः ।६। -जिस प्रकार एक-एक कारक शेष अन्यको अपना सहायकरूप कारक अपेक्षित करके अर्थकी सिद्धिके लिए समर्थ होता है, उसी प्रकार आपके मतमें सामान्य और विशेषसे उत्पन्न होनेवाले जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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