Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 2
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 528
________________ नय ५२० J नय सामान्य ४. शब्द, अर्थ व ज्ञाननय निर्देश क. पा १/१३-१४/६ १७४/२०६/७ प्रमाणादिव नयवाक्यावस्त्ववगममव- लोक्य प्रमाणनयैर्वस्त्वधिगमः इति प्रतिपादितत्वात्। -जिस प्रकार प्रमाणसे वस्तुका बोध होता है, उसी प्रकार नयसे भी वस्तुका बोध होता है, यह देखकर तत्त्वार्थ सूत्र में प्रमाण और नयोसे वस्तुका बोध होता है, इस प्रकार प्रतिपादन किया है। न.च.व./गा.नं. जम्हा णयेण ण विणा होइ णरस्स सियवायपडिबत्ती। तम्हा सो णायव्वो एयन्तं हतुकामेण 1१७५॥ माणस्स भावणाविय ण हु सो आराहओ हवे णियमा। जो ण विजाणइ वत्थं पमाणणयणिच्छयं किना ।१७णिक्खेव णयपमाणं णादणं भावयंति ते तच्चं । ते तस्थतच्चमग्गेलहंति लग्गा हु तत्थयं तच्चं ।२८। =क्यो कि नय ज्ञानके बिना स्याद्वादको प्रतिपत्ति नहीं होती, इसलिए एकान्त बुद्रिका विनाश करनेकी इच्छा रखनेवालोंको नय सिद्धान्त अवश्य जानना चाहिए ।१७५॥ जो प्रमाण व नय द्वारा निश्चय करके वस्तुको नहीं जानता, वह ध्यानकी भावनासे भी आराधक कदापि नहीं हो सकता ।१७। जो निक्षेप नय और प्रमाणको जानकर तत्त्वको भाते हैं, वे तथ्य तत्त्वमार्गमे तत्थतत्त्व अर्थात शुद्धात्मतत्त्वको प्राप्त करते है ।१८१॥ न, च /श्रुत /३६/१० परस्परविरुद्धधर्माणामेकवस्तुन्यविरोधसिद्धयर्थ नय । एक वस्तुके परस्पर विरोधी अनेक धर्मोंमे अविरोध सिद्ध करनेके लिए नय होता है। ८. सम्यक् नय ही कार्यकारी है, मिथ्या नहीं न. च./श्रुत /प.६३/११ दुर्नयैकान्तमारूढा भावा न स्वार्थिकाहिता'। स्वार्थिकास्तविपर्यस्ता निःकलङ्कास्तथा यतः ।१।-दुर्न यरूप एकान्तमें आरूढ भाव स्वार्थ क्रियाकारी नहीं है। उससे विपरीत अर्थात् सुनयके आश्रित निष्कलंक तथा शुद्धभाव ही कार्यकारी है। का.अ./मू /२६६ सयलववहारसिद्धि सुणयादो होदि। =सुनयसे ही समस्त संव्यवहारोंकी सिद्धि होती है। (विशेषके लिए दे० ध.६/४, १,४७/२३६/४)। १. शब्द अर्थ व ज्ञानरूप तीन प्रकारके पदार्थ हैं श्लो. वा./२/१/५/६८/२७८/३३ में उधृत समन्तभद्र स्वामीका वाक्य-बुद्धिशब्दार्थसंज्ञास्तास्तिस्रो बुद्धयादिवाचकाः । - जगतके व्यवहार में कोई भी पदार्थ बुद्धि ( ज्ञान ) शब्द और अर्थ इन तीन भागोमें विभक्त हो सकता है। रा. वा./४/१२/१५/२५६/२५ जीवार्थो जीवशब्दो जीवप्रत्ययः इत्येतस्त्रितयं लोके अविचारसिद्धम् । जीव नामक पदार्थ, 'जीव' यह शब्द और जीव विषयक ज्ञान ये तीन इस लोकमें अविचार सिद्ध हैं अर्थात इन्हें सिद्ध करनेके लिए कोई विचार विशेष करनेको आवश्यकता नहीं। (श्लो.वा.२/१/५/६८/२७८/१६) । पं.का./ता.वृ./३/६/२४ शब्दज्ञानार्थरूपेण त्रिधाभिधेयतां समयशब्दस्य...-शब्द, ज्ञान व अर्थ ऐसे तीन प्रकारसे भेदको प्राप्त समय अर्थात् आत्मा नामका अभिधेय या वाच्य है। ९. निरपेक्ष नय मी कथंचित् कार्यकारी है स.सि./२/३३/१४६/६ अथ तन्त्वादिषु पटादिकार्य शक्त्यपेक्षया अस्तीत्युच्यते। नयेष्वपि निरपेक्षेषु बद्धयभिधानरूपेषु कारणवशात्सम्यग्दर्शनहेतुत्व विपरिणतिसभावात् शक्त्यात्मनास्तित्वमिति साम्पमेवोपन्यासस्य । -(परस्पर सापेक्ष रहकर ही नयज्ञान सम्यक है, निरपेक्ष नहीं. जिस प्रकार परस्पर सापेक्ष रहकर ही तन्तु आदिक पटरूप कार्यका उत्पादन करते हैं। ऐसा दृष्टान्त दिया जानेपर शंकाकार कहता है।) प्रश्न -निरपेक्ष रहकर भी तन्तु आदिकमें तो शक्तिकी अपेक्षा पटादि कार्य विद्यमान है (पर निरपेक्ष नयमे ऐसा नहीं है; अतः दृष्टान्त विषम है)। उत्तर-यही बात ज्ञान व शब्दरूप नयोंके विषयमें भी जानना चाहिए। उनमें भी ऐसी शक्ति पायी जाती है, जिससे वे कारणवश सम्यग्दर्शनके हेतु रूपसे परिणमन करने में समर्थ हैं। इसलिए दृष्टान्तका दान्तिके साथ साम्य ही है। (रा.बा./१/३३/१२/६६/२६) २. शब्दादि नय निर्देश व लक्षण रा. वा./१/६/४/३३/११ अधिगमहेतुर्द्विविधः स्वाधिगमहेतुः पराधिगमहेतुश्च । स्वाधिगमहेतुञ्जनात्मक' प्रमाणनयविकल्पः, पराधिगमहेतुः धचनात्मक' ।-पदार्थोंका ग्रहण दो प्रकारसे होता है-स्वाधिगम द्वारा और पराधिगम द्वारा। तहाँ स्वाधिगम हेतुरूप प्रमाण व नय तो ज्ञानात्मक है और पराधिगम हेतुरूप बचनात्मक है। रा. वा./१/३३/८/६८/१० शपत्यर्थमायाति प्रत्यायतीति शब्दः ।। उच्चरित' शब्द' कृतसंगीतेः पुरुषस्य स्वाभिधेये प्रत्ययमादधाति इति शब्द इत्युच्यते । - जो पदार्थ को बुलाता है अर्थात् उसे कहता है या उसका निश्चय कराता है, उसे शब्दनय कहते हैं। जिस व्यक्तिने संकेत ग्रहण किया है उसे अर्थबोध करानेवाला शब्द होता है। (स्या. म./२८/३१३/२६ )। ध. १/१,१,१/०६/६ शब्दपृष्ठतोऽर्थग्रहणप्रवणः शब्द नयः । - शब्दको ग्रहण करनेके बाद अर्थ के ग्रहण करनेमें समर्थ शब्दनय है। ध.१/१,९,१/०६/१ तत्रार्थव्यवजन पर्याय विभिन्नलिङ्गसंख्याकालकारकपुरुषोपग्रहभेदैरभिन्नं वर्तमानमात्रं वस्त्वध्यवस्यन्तोऽर्थ नयाः, न शब्दभेदनार्थ भेद इत्यर्थः । व्यञ्जनभेदेन वस्तुभेदाध्यबसायिनो व्यञ्जननयाः । - अर्थपर्याय और व्यंजनपर्यायसे भेदरूप और लिंग, संख्या, काल, कारक और उपग्रहके भेदसे अभेदरूप केवल वर्तमान समयवर्ती वस्तुके निश्चय करनेवाले नयोंको अर्थनय कहते है, यहॉपर शब्दोंके भेदसे अर्थ में भेदकी विवक्षा नहीं होती। व्यंजनके भेदसे वस्तुमें भेदका निश्चय करनेवाले नयको व्यंजन नय कहते हैं। नोट-(शब्दनय सम्बन्धी विशेष-दे. नय /III/६-८)। क. प्रा. १/१३-१४/६१८४/२२२/३ वस्तुनः स्वरूप स्वधर्मभेदेन भिन्दानो अर्थ नयः, अभेदको वा । अभेदरूपेण सर्व वस्तु इयति एति गच्छति इत्यर्थ नयः । ..वाचकभेदेन भेदको व्यञ्जननयः । = वस्तुके स्वरूप में वस्तुगत धर्मोके भेदसे भेद करनेवाला अथवा अभेद रूपसे ( उस अनन्त धर्मात्मक ) वस्तुको ग्रहण करनेवाला अर्थनय है तथा वाचक शब्दके भेदसे भेद करनेवाला व्यंजननय है। १० नय पक्षको हेयोपादेयताका समन्वय पं.ध./पू./५०८ उन्मज्जति नयपक्षो भवति विकल्पो हि यदा। न विवक्षितो विकल्प स्वयं निमज्जति तदा हि नयपक्ष:। -- जिस समय विकल्प विवक्षित होता है, उस समय नयपक्ष उदयको प्राप्त होता है और जिस समय विकल्प विवक्षित नहीं होता उस समय वह (नय पक्ष ) स्वयं अस्तको प्राप्त हो जाता है। और भी दे. नय/I/३/६ प्रत्यक्षानुभूतिके समय नय विकल्प नहीं होते। न, च, वृ./२१४ अहवा सिधे सद्दे कीरइ जं किंपि अत्थववहरणं । सो खलु सद्दे विसओ देवो सददेण जह देवो ।२१४।- व्याकरण आदि द्वारा सिद्ध किये गये शब्दसे जो अर्थ का ग्रहण करता है सो शब्दनय है, जसे-'देव' शब्द कहनेपर देवका ग्रहण करना। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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