Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 2
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 486
________________ धर्मध्यान ४७८ १. धर्मध्यान व उसके भेदोंका सामान्य निर्देश १. धर्मध्यान व उसके भेदोंका सामान्य निर्देश १. धर्मध्यान सामान्यका लक्षण १. धर्मसे युक्त ध्यान भ आ./म् /१७०६/१५४१ धम्मस्स लक्वर्गसे अज्जालगत्तमवोबसमा। उवदेसणा य सुत्ते णिसग्गजाओ रुचीओ दे ।१७०६। -जिससे धर्मका परिज्ञान होता है वह धर्मध्यानका लक्षण समझना चाहिए। आर्जव, लघुत्व, मार्दव और उपदेश ये इसके लक्षण है। (मू. आ./ ६७६) । स. सि./8/२८/४४५/११ धर्मो व्याख्यातः । धर्मादनपेत धर्म्यम् । धर्मका व्याख्यान पहले कर आये हैं (उत्तम क्षमादि लक्षणवाला धर्म है) जो धर्मसे युक्त होता है वह धर्म्य है। (स.सि./६/३६/४५०/४); (रा. वा./8/२८/३/६२७/३०); (रा.वा./६/३६/११/६३२/११); (म. पु./२२१ १३३ ); (त.अनु /५४); ( भा. पा./टी./७८/२२६/१७ ) । नोट-यहाँ धर्मके अनेकों लक्षणों के लिए देखो धर्म/१) उन सभी प्रकार के धर्मोसे युक्त प्रवृत्तिका नाम धर्मध्यान है, ऐसा समझना चाहिए। इस लक्षणकी सिद्धिके लिए-दे० (धर्मध्यान/४/३/२) । २. शास्त्र, स्वाध्याय व तत्व चिन्तवन र. सा./मू./१७ पावारंभणिवित्ती पुण्णारं भपउत्तिकरणं पि । णाण धम्मज्झाणं जिणभणियं सबजीवाणं ।१७। पाप कार्यकी निवृत्ति और पुण्य कार्योंमे प्रवृत्तिका मूलकारण एक सम्यग्ज्ञान है, इसलिए मुमुश्च जीवोके लिए सम्यग्ज्ञान ( जिनागमाभ्यास-गा.१८) ही धर्म ध्यान श्री जिनेन्द्रदेवने कहा है। भ. आ./ मू./१७१० आलं बणं च वायण पुच्छण परिवट्टणाणुपेहाओ। धम्मस्स तेण अधिसुद्धाओ सव्वाणुपेहाओ।१७१०।८ वाचना, पृच्छना, अनुप्रेक्षा, आम्नाय और परिवर्तन ये स्वाध्यायके भेद है। ये भेद धर्मध्यानके आधार भी हैं। इस धर्मध्यानके साथ अनुप्रेक्षाओंका अविरोध है। (भ, आ././१८७५/१६८०); (घ. १३४५,४,२६/गा. २१/६७); ( त. अनु ८१)। ज्ञा. सा./१७ जोवादयो ये पदार्था ध्यातव्या' ते यथास्थिता' चैव । धर्मध्यानं भणितं रागद्वेषौ प्रमुच्य११७ रागद्वेष को त्यागकर अर्थात साम्यभावसे जीवादि पदार्थोंका, वे जैसे-जैसे अपने स्वरूपमे स्थित हैं, वैसे-वैसे ध्यान या चिन्तवन करना धर्मध्यान कहा गया है। ज्ञा./३/२६ पुण्याशयवशाज्जातं शुद्धलेश्यावलम्बनात। चिन्तनाद्वस्तुतत्वस्य प्रशस्तं ध्यानमुच्यते ।२।। = पुण्यरूप आशयके वशसे तथाशुद्धलेश्याके अबलम्बनसे और वस्तुके यथार्थ स्वरूप चिन्तवनसे उत्पन्न हुआ ध्यान प्रशस्त कहलाता है। (ज्ञा./२५/१८ )। ३ रत्नत्रय व संयम आदिमें चित्तको लगाना मू. आ./६७८-६८० ईसणणाणचरित्ते उवओगे संजमे 'बिउस्सगो। पच करवाणे करणे पणिधाणे तह य समिदीसु ६७८॥ विज्जाचरणमवदसमाधिगुण भचेरछक्काए। खमणिग्गह अज्जवमद्दवमुत्ती विणए च सहहणे ।६७४। एवं गुणो महत्थो मणसंकप्पो पसत्थ वीसत्थो। संकप्पोत्ति वियाणह जिणसासणसम्मदं सब ६८० -दर्शन ज्ञान चारित्रमें, उपयोगमें, संयममें, कायोत्सर्गमें, शुभ योग, धर्मध्यानमें, समितिमें. द्वादशांगमें, भिक्षाशुद्धिसे, महावतोंमें, संन्यासमें, गुणमें, ब्रह्मचर्य में, पृथिवी आदि छह काय जीवोंकी रक्षामें, क्षमामें, इन्द्रियनिग्रहमें, आर्जवमें, मार्दवमें, सब परिग्रह त्यागमें, विनयमें, श्रद्धानमें; इन सबमें जो मनका परिणाम है, वह कर्मक्षयका कारण है, सबके विश्वास योग्य है। इस प्रकार जिनशासनमें माना गया सब संकल्प है। उसको तुम शुभ ध्यान जानो। ४. परमेष्ठी आदिकी भक्ति द्र.सं./टी./४८/२०५/३ पञ्चपरमेष्ठिभस्यादितदनुक्लशुभानुष्ठानं पुनर्ब हिरड्गधर्मध्यानं भवति ।-पंच परमेष्ठोकी भक्ति आदि तथा उसके अनुकूल शुभानुष्ठान (पूजा, दान, अभ्युत्थान, विनय आदि ) बहिरंग धर्मध्यान होता है । (पं. का./ता. वृ./१५०/२१७/१६ )। २. धमध्यानके चिह्न ध. १३/५,४,२६/गा. ५४-५५/७६ आगमउवदेसाणा णिसग्गदो जंजिणप्पणीयाणं । भावाणं सद्दहणं धम्मज्भाणस्स तल्लिगं ॥५४॥ जिणसाहु-गुणक्वित्तण-पसंसणा-विणय-दाणसंपण्णा । सुद सीलसंजमरदा धम्मज्माणे मुणेयव्वा ।-आगम, उपदेश और जिनाज्ञाके अनुसार निसर्ग से जो जिन भगवानके द्वारा कहे गये पदार्थों का श्रद्धान. होता है वह धर्मध्यानका लिग है ।५४। जिन और साधुके गुणोंका कीर्तन करना, प्रशंसा करना, विनय-दानसम्पन्नता, श्रुत, शील और संयममें रत होना, ये सब बातें धर्मध्यानमें होती है । ।५५। म. सु./२१/१५६-१६१ प्रसन्नचित्तता धर्मसंबेग शुभयोगता सुश्रुतत्वं समाधानं आज्ञाधिगमजाः रुचिः ११५६। भवन्त्येतानि लिङ्गानि धर्म्यस्यान्तर्गतानि वै । सानुप्रेक्षाश्च पूर्वोक्ता विविधाः शुभभावनाः ।१६०। बाह्य च लिङ्गमगानां संनिवेशः पुरोदितः । प्रसन्नवक्त्रता सौम्या दृष्टिश्चेत्यादि लक्ष्यताम् ।१६।-प्रसन्नचित्त रहना, धर्मसे प्रेम करना, शुभ योग रखना, उत्तम शास्त्रोंका अभ्यास करना, चित्त स्थिर रखना और शास्त्राज्ञा तथा स्वकीय ज्ञानसे एक प्रकारकी विशेष रुचि (प्रतीति अथवा श्रद्धा) उत्पन्न होना, ये धर्मध्यानके बाह्य चिह्न हैं. और अनुप्रेक्षाएँ तथा पहले कही हुई अनेक प्रकारकी शुभ भावनाएँ उसके अन्तरंग चिह्न है ।१५९-१६०। पहले कहा हुआ अंगोंका सन्निवेश होना, अर्थात् पहले जिन पर्यकादि आसनोंका वर्णन कर चुके हैं (दे० 'कृतिकर्म') उन आसनोंको धारण करना, मुखकी प्रसन्नता होना, और दृष्टिका सौम्य होना आदि सब भी धर्मध्यानके बाह्य चिह्न समझने चाहिए। ज्ञा./११/१५.१ में उद्धन्द -अलौल्यमारोग्यमनिष्ठुरत्वं गन्ध' शुभो मूत्रपुरीषमतपम्। .न्ति प्रसाद' स्वरसौम्यता च योगप्रवृत्ते प्रथम हि चिह्नम् ।१३ -निमय लम्पटताका न होना शरीर नीरोग होना निष्ठरताका न होना, शरीरमेंसे शुभ गन्ध आना, मलमूत्रका अल्प होना, शरीरकी कान्ति शक्तिहीन न होना, 'चित्तकी प्रसन्नता, शन्दोंका उच्चारण सौम्य होना-ये चिह्न योगकी प्रवृत्ति करनेवालेके अर्थात् ध्यान करनेवालेके प्रारम्भ दशामें होते हैं। (विशेष दे० ध्याता)। ३. धमध्यान योग्य सामग्री द. सं./टी./५७/२२६/३ में उद्धृत-'तथा चोक्तं- 'वैराग्यं तत्त्वविज्ञान नैनथ्यं समचित्तता। परीषहजयश्चेति पञ्चैते ध्यानहेतवः । = सो ही कहा है कि-वैराग्य, तत्त्वों का ज्ञान, परिग्रहत्याग, साम्यभाव और परीषहजय ये पाँच ध्यानके कारण हैं। त. अनु./७५, २१८ संगत्याग' कषायाणां निग्रहो व्रत-पर० । मनोडक्षाणां जयश्चेति सामग्रीध्यानजन्मनि १७ ध्यानस्य च पुनर्मूख्यो हेतुरेतच्चतुष्टयम् । गुरूपदेशः श्रद्धानं सदाभ्यासः स्थिरं मनः ।२१८॥ - परिग्रह त्याग, कषायनिग्रह, व्रतधारण, इन्द्रिय व मनोविजय, ये सब ध्यान की उत्पत्तिमें सहायभूत सामग्री हैं ।७५। गुरूपदेश, श्रद्धान, निरन्तर अभ्यास और मनकी स्थिरता, ये चार ध्यानकी सिद्धिके मुख्य कारण हैं । ( ज्ञा./३/१५-२५) । दे. ध्यान/३ (धर्मध्यानके योग्य उत्कृष्ट मध्यम व जघन्य द्रव्यक्षेत्रकालभावरूप सामग्री विशेष )। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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