Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 2
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 484
________________ धर्मकथा ४७६ धर्मध्यान ८. दशधर्म निर्देश १. धर्मका लक्षण उत्तम क्षमादि ज्ञा./२-१०/२ दशलक्ष्मयुत सोऽयं जिनैर्धर्म प्रकीर्तित.। -जिनेन्द्र भगवान्ने धर्मको दश लक्षण युक्त कहा है (पं.वि./१/७); (का.अ./ ४७८); (द्र.सं./टी./३५/१०१/८); (द्र.सं./टी./३/१४५/३): (द.पा.टी./ ६/८/४) २.दशधमौके साथ 'उत्तम' विशेषणकी सार्थकता स.सि./६/६/४१३/५ दृष्टप्रयोजनपरिवर्जनार्थमुत्तमविशेषणम् । -दृष्ट प्रयोजनकी निवृत्तिके अर्थ इनके साथ 'उत्तम' विशेषण दिया है। (रा वा/४/६/२६/५६८/२६)। चा.सा /१८/१ उत्तमग्रहणं ख्यातिपूजादिनिवृत्त्यर्थ । - ख्याति व पूजादि की भावनाको निवृत्तिके अर्थ उत्तम विशेषण दिया है। अर्थात् ख्याति पूजा आदिके अभिप्रायसे धारी गयी क्षमा आदि उत्तम नहीं है। ३. ये दशधर्म साधुओंके लिए कहे गये हैं मा.अनु./६८ एयारस दसभेयं धम्म सम्मत्तं पुवयं भणियं । सागारणगाराणं उत्तम सुहसंपजुत्तेहिं ।६८ =उत्तम सुखसंयुक्त जिनेन्द्रदेवने सागर धर्मके ग्यारह भेद और अनगार धर्मके दश भेद कहे हैं। (का.अ/मू-३०४ ); (चा.सा./२८/१)। ४. परन्तु यथासम्भव मुनि व श्रावक दोनोंको ही होते हैं पं.वि /६/५६ आद्योत्तमक्षमा यत्र सो धर्मो दशभेदभाक । श्रावकैरपि मेव्योऽसौ यथाशक्ति यथागमम् ।। -उत्तम क्षमा है आदिमें जिसके तथा जो दश भेदोंसे युक्त है, उस धर्मका श्रावकोंको भी अपनी शक्ति और आगमके अनुसार सेवन करना चाहिए। रा.वा/हिं/8/६/६६८ ये धर्म अविरत सम्यग्दृष्टि आदिके जैसे क्रोधादिकी निवृत्ति होय तैसे यथा सम्भव होय है, अर मुनिनिके प्रधानपने धर्मचक्र-(म.पु /२२/२१२-२६३) तां पीठिकामलं चक्रु : अष्टमङ्गलसंपदः । धर्मचक्राणि चोढानि प्रांशुभिर्यक्षमूर्धभिः ।२६२। सहस्राणि तान्युद्यद्रत्नरश्मीनि रेजिरे । भानुबिम्बानिवोद्यन्ति पीठिकोदयपर्वतात् ।२६३। -उस ( समवशरण स्थित) पीठिकाको अष्टमंगलरूपी सम्पदाएँ और यक्षों के ऊँचे-ऊँचे मस्तकोंपर रखे हुए धर्मचक्र अलंकृत कर रहे थे ।२६। जिनमें लगे हुए रत्नोंकी किरण ऊपर की ओर उठ रही हैं ऐसे, हज़ार-हजार आरोंवाले वे धर्मचक्र ऐसे सुशोभित हो रहे थे मानो पीठिकारूपी उदयाचलसे उदय होते हुए सूर्यके बिम्ब ही हों ।२६३।। धमंचक्रवत-इस व्रतकी तीन प्रकार विधि है-बृहद,मध्यम व लघु १. बृहद् विधि-धर्मचक्रके १००० आरोकी अपेक्षा एक उपवास एक पारणाके क्रमसे १००० उपवास करे। आदि अन्तमें एक एक बेला पृथक् करे । इस प्रकार कुछ २००४ दिनों में (५१ वर्ष में ) यह व्रत पूरा होता है। त्रिकाल नमस्कार मन्त्रका जाप्य करे। (ह.पु./३४/ १२४), २. मध्यम विधि-१०१० दिन तक प्रतिदिन एकाशना करे। त्रिकाल नमस्कार मन्त्रका जाप्य करे। (बतविधान संग्रह। पृ.१६३); (नवलसाह कृत बर्द्धमान पुराण) ३. लघु विधि-क्रमशः १२,३,४,५,१ इस प्रकार कुल १६ उपवास करे। बीचके स्थानों में सर्वत्र एक-एक पारणा करे। त्रिकाल नमस्कार मन्त्रका जाप्य करे । (व्रतविधान संग्रह/पृष्ठ १६३), (किशन सिह क्रियाकोश)। धर्मतीर्थ-धर्मतीर्थ की उत्पत्ति-दे० महावीर/२ धर्मदत्तचरित्र-आ. दयासागर सूरि (ई. १४२६) कृत एक चरित्र ग्रन्थ। धर्मद्रव्य-दे० धर्माधर्म। धर्मधर-१. नागकुमार चरित तथा श्रीपाल चरित के रचयिता। मूल संघ सरस्वती गच्छ । महादेव के प्रपुत्र, आशपाल के पुत्र । समय-वि० १५११ । (ती०४/५७) । धर्मध्यान-मनको एकाग्र करना ध्यान है। वैसे तो किसी न किसी विषयमें हर समय ही मन अटका रहनेके कारण व्यक्तिको कोई न कोई ध्यान बना ही रहता है, परन्तु राग-द्वेषमूलक होनेसे श्रेयोमार्गमें वे सब अनिष्ट हैं। साधक साम्यताका अभ्यास करनेके लिए जिस घ्यानको ध्याता है, वह धर्मध्यान है। अभ्यास दशा समाप्त हो जाने पर पूर्ण ज्ञाताद्रष्टा भावरूप शुक्लध्यान हो जाता है। इसलिए किसी अपेक्षा धर्म व शुक्ल दोनों ध्यान समान है। धर्मध्यान दो प्रकारका है-बाह्य व आध्यात्मिक । वचन व कायपरसे सर्व प्रत्यक्ष होने वाला बाह्य और मानसिक चिन्तवनरूप आध्यात्मिक है। वह आध्यात्मिक भी आज्ञा. अपाय आदिके चिन्तवनके भेदसे दस भेदरूप है। ये दसों भेद जैसा कि उनके लक्षणोंपरसे प्रगट है, आज्ञा, अपाय विपाक व संस्थान इन चारमें गर्भित हो जाते हैं-उपाय विचय तो अपायमें समा जाता है और जीव, अजीव, भव, विराग व हेतु विचय-संस्थान विषयमें समा जाते हैं। तहाँ इन सबको भी दोमें गर्भित किया जा सकता है-व्यवहार व निश्चय । आज्ञा, अपाय व विपाक तो परावलम्ब ही होनेसे व्यवहार ही है पर संस्थानविचय चार भेदरूप है-पिंडस्थ (शरीराकृतिका चिन्तवन): पदस्थ (मन्त्राक्षरोंका चिन्तवन), रूपस्थ (पुरुषाकार आत्माका चिन्तवन) और रूपातीत अर्थात् मात्र ज्ञाता द्रष्टाभाव । यहाँ पहले तीन धर्मध्यानरूप है और अन्तिम शुक्लध्यानरूप। पहले तीनोंमें 'पिण्डस्थ' व 'पदस्थ' तो परावलम्बी होनेसे व्यवहार है और 'रूपस्थ' स्वावलम्बी होनेसे निश्चय है । निश्चयध्यान ही वास्तविक है पर व्यवहार भी उसका साधन होनेसे कसी विषय न बना ही रसाधक सामन ५. इन दोंको धर्म कहने में हेतु रा.वा//६/२४१५६८/२२ तेषां संवरणधारणसामाद्धर्म इत्येषा संज्ञा अन्वर्थे ति । - इन धमों में चूकि संवरको धारण करनेकी सामर्थ्य है, इसलिए धारण करनेसे धर्म' इस सार्थक संज्ञाको प्राप्त होते हैं। धर्मकथा-दे० कथा। घमकाति-१. त्रिमलय देशमें उत्पन्न एक प्रकाण्ड बौद्ध नैयायिक थे। आप नालन्दा विश्वविद्यालयके आचार्य धर्मपालके शिष्य तथा प्रज्ञागुप्तके गुरु थे। आपके पिताका नाम कोरुनन्द था। आपकी निम्न कृतियाँ न्यायक्षेत्रमें अतिप्रसिद्ध हैं-१. प्रमाण बार्तिक, २, प्रमाणविनिश्चय, ३. न्यायबिन्दु, ४. सन्तानान्तर सिद्धि, १. सम्बन्ध परीक्षा, . ६. वादन्याय, ७. हेतु-बिन्दु। समय-ई. ६२५-१५०1 (./२/३३१) । २. पद्मपुराण व हरिवश पुराण के रचयिता बलात्कार गणीय भट्टारक । गुरु परम्परा-विभुवन कीर्ति, पद्यनन्दि. यश कीति, ललितकीति, धर्मकीति। समय-वि.y १६८२ । ती०/३/४ ३३)। धर्मचंद्र-बाप रत्नकीर्तिभट्टारकके गुरु थे। तदनुसार आपका समय वि. १२७१ (ई. १२१४) आता है। (माहुमलिचरित्र/प्र.स उदयताल) जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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