Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 2
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 495
________________ धर्मनाथ ४८७ धर्माधर्म जानता है ।८६२। अत' केवल निजात्मोपयोगी अथवा परपदार्थोपयोगी ही न होकर निश्चयसे वह उभयविषयोपयोगी है ।८६३। उस सम्यग्दृष्टिको स्वमें उपयुक्त होनेसे कुछ उत्कर्ष (विशेष सवर निर्जरा) और परमें उपयुक्त होनेसे कुछ अपकर्ष (बन्ध ) होता हो, ऐसा नहीं है।८६४। इसलिए परपदार्थोके साथ अभिन्नता देखकर तुम दुखी मत होओ। प्रयोजनभूत अर्थको समझो। और भी दे, ध्यान/४/५ (अहंतका ध्यान वास्तवमे तद्गुणपूर्ण आत्माका ध्यान ही है)। धर्मनाथ-(म. पु./६१/श्लोक )-पूर्वभव नं०२ में पूर्व धातकी खण्डके पूर्व विदेहके बत्सदेशकी सुसीमा नगरीके राजा दशरथ थे। (२-३) । पूर्वभव नं०१ में सर्वार्थ सिद्धि देव थे। (8)। वर्तमानभव में १५ वें तीर्थकर हुए ।१३-५॥ (विशेष दे० तीर्थकर/५)। धर्मपत्नी-दे० स्त्री। धर्मपरीक्षा-१.आ.अमितगति द्वारा वि०१०७० में रचित संस्कृत श्लोक बद्ध एक कथानक जिसमें वैदिक मान्यताओं का उपहास किया गया है ।।ती./२/३६३), (जै. /१/३८१) । २. कवि वृत्ति विलास (ई. श १२ पूर्वार्ध)कृत उपर्युक्त विषयक कन्नड रचना । ३. श्रुतकीर्ति (वि श. १६) कृत १७६ अपभ्रश कडबक प्रमाण उपर्युक्त विषयक रचना। (ती./३/४३२) । धमपाल-नालन्दा विश्वविद्यालयके आचार्य एक बौद्ध नैयायिक थे। समय-ई० ६००-६४२ । ( सि. वि./प्र. २५/पं. महेन्द्र )। धर्मभूषण-१. इनके आदेशसे ही ब्र० केशव वर्णीने गोमट्टसारपर कर्णाटक भाषामें वृत्ति लिखी थी। समय-वि० १४१६ (ई० १३५४) । २. न्याय दीपिका के रचयिता नन्दि संघीय भट्टारक । गुरु परम्परा देवेन्द्र कीर्ति, विशाल कीर्ति,शुभ कीति, धर्म भूषण प्र०, अमरकीति, धर्मभूषण द्वि०, धर्मभूषण तृ०। समय-प्रथम का शक १२२०-१२४५ द्वि. का शक १२७०-१२६५: तृ.का सायण (शक १३१२) के समकालीन (ई १३५८-१४१८)। (तो./३/३५५-३५७) -दे० मूढता। धर्मरत्नाकर-आ० जयसेन ( ई० ६६ ) कृत सप्ततत्व निरूपक एक संस्कृत श्लोकबद्ध श्रावकाचार (जै./२/३७५) । धर्म विलास-पंद्यानत राय (ई०१७३३) द्वारा रचित एक पदसंग्रह। धर्मशर्माभ्युदय-१ कवि असग (ई. १८८) कृत २१ सर्ग प्रमाण धर्मनाथ तीर्थंकर चरित (ती./४/२०)1 २. कवि हरिचन्द (ई १० का मध्य) कृत उपर्युक्त विषयक १७५४ श्लोक प्रमाण संस्कृत काव्य। धर्मसंग्रहश्रावकाचार- १० अधिकारो में बद्ध कवि मेधावी (वि. १५४१) को रचना ती./४/६८)। धर्मसूरि-महेन्द्रसुरिके शिष्य थे। हिन्दी भाषामें 'जम्बूस्वामी' सरना' नामक ग्रन्थकी रचना की। समय-वि० १२६६ (ई० १२०६)। (हिन्दी जैन साहित्यका इतिहास/पृ. ५५ । कामताप्रसाद )। धर्मसेन-१.श्रतावतारके अनुसार आप भद्रबाहु प्रथमके पश्चात् ११३ एकादशांग पूर्वधारी थे। समय-बी०नि० ३२६-३४५ ( ई०पू० २६८१८२) दृष्टि नं.३ को अपेक्षावी.नि.३८१-४०५ -दे० इतिहास/४/४। २. श्रवणवेलगोलाके शिलालेख नं०७ के अनुसार आप श्रीबालचन्द्रके गुरु थे। समय-वि. ७३२ (ई.६७५) (भ. आ/प्र. १६/प्रेमीजी)। ३. लाडबागड़ सघकी गुर्वावलीके अनुसार आप श्रीशान्तिसेनके गुरु । थ। समय-वि.६५५ (ई. ८८)-दे० इतिहास/७/१० धर्मसेन-(वराग चरित/सर्ग/श्लोक)। उत्तमपुरके भोजवंशीय राजा थे । (१/४६) । वरांगकुमारके पिता थे । (२/२) । वरांगको युव राजपद दे दिया तब दूसरे पुत्रने छलपूर्वक वरांगको वहाँसे गायब कर दिया। इसपर आप बहुत दुःखी हुए।(२०/७) । धर्माकरदत्त-अर्चट कविका अपर नाम । -दे० अनुकम्पा । ना-दे० अनुप्रेक्षा। धमाधम-लोकमें छह द्रव्य स्वीकार किये गये हैं ( दे० द्रव्य )। तहाँ धर्म व अधर्म नामके दो द्रव्य है। दोनों लोकाकाशप्रमाण व्यापक असंख्यात प्रदेशी अमूर्त द्रव्य है। ये जीव व पुद्गलके गमन व स्थितिमें उदासीन रूपसे सहकारी हैं, यही कारण है कि जीव व पुदगल स्वयं समर्थ होते हुए भी इनकी सीमासे बाहर नहीं जाते, जैसे मछली स्वयं चलनेमे समर्थ होते हुए भी जलसे बाहर नहीं जा सकती। इस प्रकार इन दोनोके द्वारा ही एक अखण्ड आकाश लोक व अलोक रूप दो विभाग उत्पन्न हो गये हैं। १. धर्माधर्म द्रव्योंका लोक व्यापक रूप ..दोनों अमूर्तीक अजीव द्रव्य हैं गला' ।१। द्रव्याणि ।। त.सू./१/१,२,४ अजीवकाया धर्माधर्माकाशपुद्गला ११॥ द्रव्याणि ।। नित्यावस्थितान्यरूपाणि ।। -धर्म, अधर्म, आकाश और पुद्गल ये चारों अजीबकाय हैं ।। चारों ही द्रव्य है ।२। और नित्य अवस्थित व अरूपी है।४। (नि.सा /मू /३७), (गो.जी /पू./५८३,५९२) पं.का./मू./८३ धम्मत्थिकायमरसं अवण्ण गंधं असद्दमफासं। -धर्मास्तिकाय अस्पर्श, अरस, अगन्ध, अवर्ण और अशब्द है। २. दोनों असंख्यात प्रदेशी हैं। त.सू.// असंख्येयाः प्रदेशाधर्माधर्मकजीबाना -धर्म, अधर्म. और एक जीव इन तीनों के असंख्यात प्रदेश है। (प्र. सा./मू./१३५), (नि.सा./मू./३५), (पं.का./मू./८३), (प.प्र./मू./२/२४); (द्र.सं./म्./२५), (गो.जी./मू./५६१/१०२६) * द्रव्यों में प्रदेश कल्पना व युक्ति-दे० द्रव्य/४ । * दोनों एक-एक व निष्क्रिय हैं-दे. द्रव्य/३ । * दोनों अस्तिकाय हैं-दे० अस्तिकाय। * दोनोंकी संख्या-दे० द्रव्य २। ३. दोनों एक एक व अखण्ड हैं त.सू./१६ आ आकाशादेकद्रव्याणि ।६। =धर्म, अधर्म और आकाश ये तीनों एक-एक द्रव्य हैं । (गो.जी./मू./५८८/१०२७) गो.जी/जी.प्र./५८८/१०२७/१८ धर्माधर्माकाशा' एकैक एव अखण्डद्रव्यत्वात् । -धर्म, अधर्म और आकाश एक-एक है, क्योंकि अखण्ड हैं। (पं.का./त.प्र/८३) ४. दोनों लोकमें व्यापकर स्थित हैं त. सू /५/१२,१३ लोकाकाशेऽवगाह' ।१२। धर्माधर्मयो' कृत्स्ने ॥१३॥ __ = इन धर्मादिक द्रव्योका अवगाह लोकाकाशमें है ।१२। धर्म और अधर्म द्रव्य सम्पूर्ण लोकाकाशमें व्याप्त है ।१३। (पं.का./मू./८३), (प्र. सा/म्./१३६) स.सि./२/८-१८/मू. पृष्ठ-पंक्ति-धर्माधर्मों निष्क्रियौ लोकाकाशं व्याप्य स्थितौ । (८/२७४/)। उक्तानां धर्मादीनां द्रव्याणी लोकाकाशेऽवगाहो न बहिरित्यर्थः। (१२/२७७/१) । कृत्स्नवचनमशेषव्याप्तिप्रदर्शनार्थम् । अगारे यथा घट इति यथा तथा धर्माधर्मयोर्लोकाकाशेऽवगाहो न भवति । किं तहि। कृत्स्ने तिलेषु तैलवदिति । (१३/२७८/ १०)। धर्माधर्मावपि अवगाहक्रियाभावेऽपि सर्वत्रव्याप्तिदर्शनादवगाहिनावित्युपचर्यते। (१८/२८४/६)। -धर्म और अधर्म द्रव्य जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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