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नमस्कार मन्त्र
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नय
स्वात्मनस्तथाभूतानां परमात्मनां च नित्यमेव तदेकपरायणत्वलक्षणो नमिनाथ
नमिनाथ-(म.प्र./६६/श्लोक)-पूर्वभव नं.२ में कौशाम्बी नगरीके भावनमस्कारः।
राजा पार्थिवके पुत्र सिद्धार्थ थे।२-४। पूर्वभव नं. १ में अपराजित प्र.सा./त.प्र./२७४ मोक्षसाधनतत्त्वस्य शुद्धस्य परस्परमजाकिभावपरि
विमानमें अहमिन्द्र हुए।१६। वर्तमान भवमें २१वें तीर्थकर हुए। णतभाव्यभावकभावत्वात्प्रत्यस्तमितस्वपरविभागो भावनमस्कारोs
(युगपत सर्वभव दे० म.पू./६९/७१)। इनका विशेष परिषय-दे० स्तु । -इस प्रकार दर्शनविशुद्धि जिसका मूल है ऐसी, सम्यग्ज्ञान
तीर्थकर/५। में उपयुक्तताके कारण अत्यन्त अव्यायाध ( निर्विघ्न व निश्चल) लीनता होनेसे, साधु होनेपर भी साक्षात सिद्धभूत निज आत्माको नमिष-विजयार्घकी उत्तर श्रेणीका एक नगर-दे० विद्याधर । तथा सिद्धभूत परमात्माओंको, उसीमें एकपरायणता जिसका लक्षण है ऐसा भाव नमस्कार सदा ही स्वयमेव हो। अथवा मोक्ष
नमुचि-राजा पद्मका मन्त्री। विशेष-दे० मलि । के साधन तत्त्वरूप 'शुद्ध' को जिसमें से परस्पर अङ्ग-अजीरूपसे नय-अनन्त धर्मात्मक होनेके कारण वस्तु बड़ी जटिल है ( दे. अनेपरिणमित भाव्यभावताके कारण स्व-परका विभाग अस्त हुआ है
कान्त) । उसको जाना जा सकता है, पर कहा नहीं जा सकता। उसे ऐसा भाव नमस्कार हो। (अर्थात अभेद रत्नत्रय रूप शुद्धोपयोग
कहनेके लिए वस्तुका विश्लेषण करके एक-एक धर्म द्वारा क्रमपूर्वक परिणति ही भाव नमस्कार है।)
उसका निरूपण करनेके अतिरिक्त अन्य उपाय नहीं है । कौन धर्मको प्र.सा./ता.वृ./१२/६/१६ अहमाराधकः, एते च अर्हदादयः आराध्या इत्या
पहले (और कौनको पीछे कहा जाये यह भी कोई नियम नहीं है। राध्याराधकविकल्परूपो द्वैतनमस्कारो भण्यते । रागाद्यपाधि
यथा अक्सर ज्ञानी वक्ता स्वयं किसी एक धर्मको मुख्य करके उसका रहितपरमसमाधिबलेनात्मन्येवाराध्याराधकभावः पुनरद्वैतनमस्कारो
कथन करता है। उस समय उसकी दृष्टि में अन्य धर्म गौण होते हैं भण्यते। - 'मैं आराधक हूँ और ये अहंत आदि आराध्य हैं,'
पर निषिद्ध नहीं। कोई एक निष्पक्ष श्रोता उस प्ररूपणाको क्रम-पूर्वक इस प्रकार आराध्य-आराधकके विकल्परूप द्वैत नमस्कार है, तथा
सुनता हुआ अन्तमें वस्तुके यथार्थ अखण्ड व्यापकरूपको ग्रहण कर रागादिरूप उपाधिके विकल्पसे रहित परमसमाधिके बलसे आत्मा
लेता है। अतः गुरु-शिष्यके मध्य यह न्याय अत्यन्त उपकारी है। में (तन्मयतारूप ) आराध्य-आराधक भावका होना अद्वैत नमस्कार
अतः इस न्यायको सिद्धान्तरूपसे अपनाया जाना न्याय संगत है। कहलाता है।
यह न्याय श्रोताको वस्तुके निकट ले जानेके कारण 'नयतीति नयः' द्र.सं./टी./१/४/१२ एकदेशशुद्धनिश्चयनयेन स्वशुद्धारमाराधनलक्षणभाव
के अनुसार नय कहलाता है। अथवा वक्ताके अभिप्रायको या वस्तुके स्तवनेन, असदभूतव्यवहारनयेन तत्प्रतिपादकवचनरूपद्रव्यस्तवनेन
एकांश ग्राही ज्ञानको नय कहते हैं। सम्पूर्ण वस्तुके ज्ञानको प्रमाण च 'वन्दे' नमस्करोमि । परमशुद्धनिश्चयनयेन पुनर्वन्धवन्दकभावो
तथा उसके अंशको नय कहते हैं। नास्ति। -एकदेश शुद्धनिश्चयनयकी अपेक्षासे निज शुद्धारमाका
अनेक धर्मोको युगपद ग्रहण करनेके कारण प्रमाण अनेकान्तरूप आराधन करनेरूप भावस्तवनसे और असदभूत व्यवहार नयकी अपेक्षा व सकलादेशी है, तथा एक धर्मके ग्रहण करनेके कारण नय एकान्तउस निजशुद्धात्माका प्रतिपादन करनेवाले वचनरूप द्रव्यस्तवनसे रूप व विकलादेशी है। प्रमाण ज्ञानकी अर्थाव अन्य धर्मोकी अपेक्षानमस्कार करता हूँ। तथा परम शुद्धनिश्चयनयसे बन्ध-बन्दक भाव को बुद्धिमें सुरक्षित रखते हुए प्रयोग किया जानेवाला नय ज्ञान या नहीं है।
नय वाक्य सम्यक् है और उनकी अपेक्षाको छोड़कर उतनी मात्र ही पं. का./ता.व./१/४/२० अनन्तज्ञानादिगुणस्मरणरूपभावनमस्कारोऽशुद्ध- वस्तुको जाननेवाला नय ज्ञान या नय वाक्य मिथ्या है। वक्ता या निश्चयनयेन, नमो जिनेभ्य इति बचनात्मद्रव्यनमस्कारोऽप्यसदभूत- श्रोताको इस प्रकारको एकान्त हठ या पक्षपात करना योग्य नहीं, व्यवहारनयेन शुद्धनिश्चयनयेन स्वस्मिन्नेवाराध्याराधकभावः।-भग- क्योंकि वस्तु उतनी मात्र है ही नहीं-दे० एकान्त ।। वाल्के अनन्तज्ञानादि गुणोंके स्मरणरूप भावनमस्कार अशुद्ध
यद्यपि वस्तुका व्यापक यथार्थ रूप नयज्ञानका विषय न होनेके निश्चयनयसे है। 'जिनेन्द्र भगवानको नमस्कार हो' ऐसा वचना
कारण नयज्ञानका ग्रहण ठीक नहीं, परन्तु प्रारम्भिक अवस्थामें स्मक द्रव्यनमस्कार भी असद्भूत व्यवहारनयसे है। शुद्धनिश्चय
उसका आश्रय परमोपकारी होनेके कारण वह उपादेय है। फिर भी नयसे तो अपनेमें ही आराध्य-आराधक भाव होता है। विशेषार्थ
नयका पक्ष करके विवाद करना योग्य नहीं है । समन्वय दृष्टिसे काम वचन और कायसे किया गया द्रव्य नमस्कार व्यवहार नयसे नमस्कार
लेना ही नयज्ञानकी उपयोगिता है-दे० स्याद्वाद। है। मनसे किया गया भाव नमस्कार तीन प्रकारका है-भगवानके गुण चिन्तवनरूप, निजात्माके गुण चिन्तवनरूप तथा शुद्धात्म संवेदन
पदार्थ तीन कोटियों में विभाजित हैं-या तो वे अर्थात्मक अर्थात रूपा तहाँ पहला और दूसरा भेद या द्वैतरूप हैं और तीसरा
वस्तुरूप हैं, या शब्दात्मक अर्थात वाचकरूप हैं और या ज्ञानात्मक अभेद व अद्वैत रूप। पहला अशुद्ध निश्चयनयसे नमस्कार है,
अर्थात् प्रतिभास रूप हैं। अतः उन-उनको विषय करनेके कारण दुसरा एकदेश शुद्धनिश्चयनयसे नमस्कार है और तीसरा साक्षात
नय ज्ञान व नय वाक्य भी तीन प्रकारके हैं-अर्थनय, शब्दनय व शुद्ध निश्चय नयसे नमस्कार है।
ज्ञाननय । मुख्य गौण विवक्षाके कारण वक्ताके अभिप्राय भी * साधुओं आदिको नमस्कार करने सम्बन्धी
अनेक प्रकारके होते हैं. जिससे नय भी अनेक प्रकारके हैं। वस्तुके -दे० विनय ।
सामान्यांश अर्थात द्रव्यको विषय करनेवाला मय द्रव्यार्थिक
और उसके विशेषांश अर्थात् पर्यायको विषय करनेवाला नय नमस्कार मन्त्र-दे० मन्त्र ।
पर्यायार्थिक होता है। इन दो मूल भेदोंके भी आगे बनेको उत्तरनमि-१. (प.पु./३/३०६-३०८)-नमि और विनमि ये दो भगवान भेद हो जाते हैं। इसी प्रकार वस्तुके अन्तरंगरूप या स्वभावको
आदिनाथके सालेके पुत्र थे। ध्यानस्थ अवस्थामें भगवानसे भक्ति विषय करनेवाला निश्चय और उसके वाह्य या संयोगी रूपको विषय पूर्वक राज्यकी याचना करनेपर धरणेन्द्रने प्रगट होकर इन्हें विज- करनेवाला नय व्यवहार कहलाता है अथवा गुण-गुणीमें अभेदको यार्धकी श्रेणियोंका राज्य दे दिया और साथ ही कुछ विद्याएँ भी विषय करनेवाला निश्चय और उनमें कथंचित भेदको विषय करनेप्रदान की। इन्हींसे ही विद्याधर वंशकी उत्पत्ति हुई। -दे० वाला व्यवहार कहलाता है । तथा इसी प्रकार अन्य भेद-प्रभेदोंका इतिहास/७/१४-म.पु./१८/६१-१४१ । २. भगवान् वीरके तीर्थ का एक यह नयचक्र उतना ही जटिल है जितनी कि उसकी विषयभूत वस्तु । अन्तकृत वेवली-दे० अन्तकृत् ।
उस सबका परिचय इस अधिकारमें दिया जायेगा।
माताको जाननेवाला है और हर प्रयोग किवि अन्य
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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