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ध्यान
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४. ध्यानकी तन्मयता सम्बन्धी सिद्धान्त
समए ।१६। उस (ध्याता) के ध्यान करनेका कोई नियत काल नहीं होता, क्योंकि सर्वदा शुभ परिणामोंका होना सम्भव है । इस विषयमें गाथा है "काल भी वही योग्य है जिसमें उत्तम रीतिसे योगका समाधान प्राप्त होता हो। ध्यान करनेवालोके लिए दिन रात्रि और बेला आदि रूपसे समयमें विसो प्रकारका नियमन नहीं किया जा सकता है । (म.पु./२१/८१) और भी दे० कृतिकर्म/३/८ (देश काल आसन आदिका कोई अटल नियम नहीं है।) ३. उपयोगके आलम्बनमत स्थान रा.वा./९/१४/२/६३४/२४ इत्येवमादिकृतपरिर्मा साधुः, नाभेरूवं हृदये मस्तकेऽन्यत्र वा मनोवृत्ति यथापरिचयं प्रणिधाय मुमुचः प्रशस्तध्यानं ध्यायेत्। - इस प्रकार (आसन, मुद्रा, क्षेत्रादि द्वारा दे० कृतिकर्म/३) ध्यानकी तैयारी करनेवाला साधु नाभिके ऊपर, हृदयमें, मस्तकमें या और कहीं अभ्यासानुसार चित्त वृत्तिको स्थिर रखनेका प्रयत्न करता है। (म.पु./२१/६३) ज्ञा./३०/१३ नेत्रद्वन्द्वे श्रवणयुगले नासिकाग्रे ललाटे, वक्त्रे नाभौ शिरसि हृदये तालुनि भूयुगान्ते। ध्यानस्थानान्यमलमतिभिः कीर्तिताऽन्यत्र देहे, तेष्वेकस्मिन्विगतविषयं चित्तमालम्बनीयम् ।१३। -निर्मल बुद्धि आचार्योने ध्यान करनेके लिए-१, नेत्रयुगल, २. दोनों कान, ३. नासिकाका अग्रभाग,४ ललाट, ३. मुख, ६. नाभि,७. मस्तक, ८. हृदय, इ. तालु, १०, दोनों भौहोंका मध्यभाग, इन दश स्थानोंमेंसे किसी एक स्थानमे अपने मनको विषयोसे रहित करके आलम्बित करना कहा है । (वसु.श्रा./४६८); (गु.श्रा./२३६)
४. ध्यानकी विधि सामान्य ध.१३/५,४,२६/२८-२६/६८ किंचिदिद्विमुपावत्तइत्त, ज्झये णिरुद्धट्ठीओ । अप्पाणम्मि सर्दि संधितुं संसारमोक्रवट्ठ (२८ पच्चाहरित्तु विसएहि इंदियाणं मणं च तेहिती अप्पाणम्मि मणं तं जोर्ग पणिधाय धारेदि ।२६।१. जिसकी दृष्टि ध्येय (दे० ध्येय ) में रुकी हुई है, वह बाह्य विषयसे अपमी दृष्टिको कुछ क्षण के लिए हटाकर संसारसे मुक्त होनेके लिए अपनी स्मृतिको अपनी आत्मामें लगावे १२८॥ इन्द्रियोको विषयोंसे हटाकर और मनको भी विषयोसे दुरकर, समाधिपूर्वक उस मनको अपनी आत्मामें लगावे ॥२१॥ (त.अनु./६४-६५) ज्ञा./३०/५ प्रत्याहृत पुनः स्वस्थं सर्वोपाधिविजितम् । चेत' समत्वमापन्नं स्वस्मिन्नेव लयं व्रजेत् ।। =२, प्रत्याहार (विषयोसे हटाकर मनको ललाट आदि पर धारण करना-दे० 'प्रत्याहार') से ठहराया हुआ मन समस्त उपाधि अर्थात् रागादिकरूप विकल्पोंसे रहित समभावको प्राप्त होकर आत्मामें हो लयको प्राप्त होता है। ज्ञा./३१/३७,३६ अनन्यशरणोभूय स तस्मिक्लीयते तथा । ध्यातृध्यानो
भयाभावे ध्येयेनैक्यं यथा व्रजेत् ॥३७॥ अनन्यशरणस्तद्धि तत्सं लीनै कमानस' । तद्गुणस्तत्स्वभावात्मा स तादात्म्याच्च संवसन् ॥३६ ज्ञा./३३/२-३ अविद्यावासनावेशविशेषविवशात्मनाम् । योज्यमानमपि स्वस्मिन् न चेत कुरुते स्थितिम् ।२। साक्षात्कर्तुमतः क्षिप्रं विश्वतत्त्वं यथास्थितम् । विशुद्धि चात्मन' शश्वद्वस्तुधर्मे स्थिरीभवेत् ॥३॥ -३. वह ध्यान करनेवाला मुनि अन्य सबका शरण छोडकर उस परमात्मस्वरूपमे ऐसा लीन होता है, कि ध्याता और ध्यान इन दोनोंके भेदका अभाव होकर ध्येयस्वरूपसे, एकताको प्राप्त हो जाता है।३७। जब आत्मा परमात्माके ध्यानमें लीन होता है, तब एकीकरण कहा है, सो यह एकीकरण अनन्यशरण है। वह तद्गुण है अर्थात परमात्माके ही अनन्त ज्ञानादि गुणरूप है, और स्वभावसे आत्मा है। इस प्रकार तादात्म्यरूपसे स्थित होता है।३६। ४. अपनेमें जोड़ता हुआ भी, अविद्याबासनासे विवश हुआ चित्त जब
स्थिरताको धारणा नहीं करता। तो साक्षात् वस्तुओंके स्वरूपका यथास्थित तत्काल साक्षात करनेके लिए तथा आत्माकी विशुद्धि करनेके लिए निरन्तर वस्तुके धर्मका चिन्तवन करता हुआ उसे स्थिर
करता है। विशेष दे० ध्येय-अनेक प्रकारके ध्येयोंका चिन्तवन करता है, अनेक प्रकारकी भावनाएँ भाता है तथा धारणाएँ धारता है ।
५, अहंतादिके चिन्तवन द्वारा ध्यानकी विधि ज्ञा./४०/१७-२० वदन्ति योगिनो ध्यान चित्तमेवमनाकुलम् । कथं शिवत्वमापन्नमात्मानं संस्मरेन्मुनिः ।१७ विवेच्य तद्गुणग्राम तत्स्वरूपं निरूप्य च। अनन्तशरणो ज्ञानी तस्मिन्नेव लयं ब्रजेव ।१८। तद्गुणग्रामसंपूर्ण तत्स्वभावैकभावित । कृत्वात्मानं ततो ध्यानी योजयेत्परमात्मनि ।१३। द्वयोगणैर्मत साम्यं व्यक्तिशक्तिव्यपेक्षया। विशुधेतरयो' स्वात्मतत्त्वयोः परमागमे ।२०-प्रश्नचित्तके क्षोभरहित होनेको ध्यान कहते हैं, तो कोई मुनि मोक्ष प्राप्त आत्माका स्मरण कैसे करे । ।१७। उत्तर-प्रथम तो उस परमात्माके गुण समूहोंको पृथक्-पृथक् विचारे और फिर उन गुणोंके समुदायरूप परमात्माको गुण गुणीका अभेद करके विचार और फिर किसी अन्यकी शरणसे रहित होकर उसी परमात्मामें लीन हो जावे ।१८। परमात्माके स्वरूपसे भावित अर्थात् मिला हुआ ध्यानी मुनि उस परमात्माके गुण समूहोंसे पूर्ण रूप अपने आत्माको करके फिर उसे परमात्मामें योजन करे ।१६। आगममें कर्म रहित व कर्म सहित दोनो आत्म-तत्त्वोंमें व्यक्ति व शक्तिकी अपेक्षा समानता मानी गयी है ।२०॥ त. अनु./१८४-१९३ तन्न चोद्य यतोऽस्माभिर्भावार्हन्नयमर्पितः । स चाहयाननिष्ठात्मा ततस्तत्रैव तद्ग्रह (१८६। अथवा भाविनो भूताः स्वपर्यायास्तदारिमका' । आसते द्रव्यरूपेण सर्वद्रव्येषु सर्वदा १११२। ततोऽयमहत्पर्यायो भावी द्रव्यात्मना सदा । भव्येष्वास्ते सतश्चास्य ध्याने को नाम विभ्रमः। १६३ - हमारी विवक्षा भाव अहंतसे है और अहतके ध्यानमें लीन आत्मा ही है, अत' अर्हदध्यान लीन आत्मामें अहंतका ग्रहण है ।११। अथवा सर्वद्रव्योमें भूत और भावी स्वपर्यायें तदात्मक हुई द्रव्यरूपसे सदा विद्यमान रहती है। अत: यह भावी अहंत पर्याय भव्य जीवोमे सदा विद्यमान है, तब इस सत् रूपसे स्थिर अर्हत्पर्यायके ध्यानमें विभ्रमका क्या काम है ।१४२-१६३।
४. ध्यानकी तन्मयता सम्बन्धी सिद्धान्त
१. ध्याता अपने ध्यानमाव से तन्मय होता है प्र.सा./मू./८ परिणमदि जेण दव्वं तकालं तम्मयति पण्णत्त...1८1जिस समय जिस भावसे द्रव्य परिणमन करता है, उस समय वह.उस
भावके साथ तन्मय होता है ) (त,अनु /१६१) त.अनु./१६१ येन भावेन यद्रूपं ध्यायत्यात्मानमात्मवित् । तेन तन्मयता याति सोपाधि' स्फटिको यथा ।११। -आत्मज्ञानी आत्माको जिस भावसे जिस रूप ध्याता है, उसके साथ वह उसी प्रकार तन्मय हो जाता है। जिस प्रकार कि उपाधिके साथ स्फटिक ।१९११ (ज्ञा./२६/ ४३ में उद्धृत)। २. जैसा परिणमन करता है उस समय आत्मा वैसा ही होता है प्र.सा./न./८-६...तम्हा धम्मपरिणदो आदा धम्मो मुणेयब्वो।।
जीवो परिणमदि जदा सुहेण असुहेण वा सुहो असुहो। सुधेण तथा सुद्धो हवदि हि परिणामसम्भावोह। = इस प्रकार वीतरागचारित्र
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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