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ध्यान
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३. ध्यानकी सामग्री व विधि
त. अनु./श्लो.नं. का सारार्थ-महामन्त्र महामण्डल व महामुद्राका
आश्रय लेकर धारणाओं द्वारा स्वयं पार्श्वनाथ होता हुआ ग्रहोके विघ्न दूर करता है ।२०२। इसी प्रकार स्वयं इन्द्र होकर (दे० ऊपर नं. ४ वाला शीर्षक ) स्तम्भन कार्योंको करता है ।२०३-२०४। गरुड होकर विषको दूर करता है, कामदेव होकर जगत्को वश करता है, अग्निरूप होकर शीतज्वरको हरता है, अमृतरूप होकर दाहज्वरको हरता है, क्षीरोदधि होकर जगको पुष्ट करता है ।२०५-२०८। त.अनु./२०६ किमत्र बहुनोक्तेन यद्यत्कर्म चिकीर्षति। तदवतामयो
भूत्वा तत्तन्निवर्तयत्ययम् ।२०।। -इस विषयमें बहुत कहनेसे क्या, यह योगी जो भी काम करना चाहता है. उस उस कर्मके देवतारूप स्वयं होकर उस उस कार्यको सिद्ध कर लेता है ।२०६३ . त.अनु./श्लो.का सारार्थ -शान्तात्मा होकर शान्तिकर्मोंको और क्रूरात्मा होकर क्रूरकर्मोंको करता है ।२१०१ आकर्षण, वशीकरण, स्तम्भन, मोहन, उच्चाटन आदि अनेक प्रकारके चित्र विचित्र कार्य कर सकता है ।२११-२१६।
६. परन्तु ऐहिक फकवाले ये सब ध्यान अप्रशस्त हैं ज्ञा./30/४ बहूनि कर्माणि मुनिप्रवीरैविद्यानुवादात्यकटीकृतानि ।
असंख्यभेदानि कुतूहलार्थ कुमार्गकुध्यानगतानि सन्ति ।४। - ज्ञानी मुनियोंने विद्यानुवाद पूर्वसे असंख्य भेदवाले अनेक प्रकारके विद्वेषण उच्चाटन आदि कर्म कौतूहलके लिए प्रगट किये हैं, परन्तु वे सत्र कुमार्ग व कुध्यानके अन्तर्गत हैं। त.अनु./२२० तध्यानं रौद्रमातं वा यदैहिकफलार्थिनाम् । = ऐहिक फलको चाहने वालोके जो ध्यान होता है, वह या तो आर्तध्यान है या रौद्रध्यान। ७. अप्रशस्त व प्रशस्त ध्यानों में हेयोपादेयताका विवेक म.पु./२१/२६ हेयमाद्य द्वयं विद्वि दुर्व्यानं भववर्धनम् । उत्तर द्वितयं ध्यानम् उपादेयन्तु योगिनाम् ।२६। = इन चारों ध्यानोंमेंसे पहलेके दो अर्थात् आर्त रौद्रध्यान छोड़नेके योग्य है, क्योंकि वे खोटे ध्यान हैं और संसारको बढानेवाले है, तथा आगेके दो अर्थात धर्म्य
और शुक्लध्यान मुनियोंको ग्रहण करने योग्य है ।२६ (भ.आ./मू./ १६६६-१७००/१५२०). (ज्ञा./२५/२१), (त-अनु३४,२२०) ज्ञा /४०/६ स्वप्नेऽपि कौतुकेनापि नासयानानि योगिभि । सेव्यानि यान्ति बोजत्वं यत. सन्मार्गहानये।६। -योगी मुनियों को चाहिए कि (उपरोक्त ऐहिक फलवाले) असमोचीन ध्यानोंको कौतुक्से स्वप्न में भी न विचारें, क्योंकि वे सन्मार्गकी हानिके लिए बोजस्वरूप हैं। ८. ऐहिक ध्यानोंका निर्देश केवल ध्यानकी शक्ति दर्शानेके लिए किया गया है ज्ञा /४०/४ प्रकटीकृतानि असंख्येयभेदानि कुतूहलार्थम् । -ध्यानके ये
असरण्यात भेद कुतूहल मात्रके लिए मुनियोंने प्रगट किये हैं। (ज्ञा./२८/१००)। त.अनु./२१६ अत्रैव माग्रह कार्पुर्यध्यानफलमैहिकम् । इदं हि ध्यान
माहात्म्यख्यापनाय प्रदर्शितम् ।२१। -इस ध्यानफलके विषयमें किसीको यह आग्रह नहीं करना चाहिए कि ध्यानका फल ऐहिक ही होता है, क्योंकि यह ऐहिक फल तो ध्यानके माहात्म्यकी प्रसिद्धिके लिए प्रदर्शित किया गया है। ९. पारमार्थिक ध्यानका माहात्म्य भ.आ./मू./१८६१-१९०२ एवं कसायजुद्ध'मि हवदि खवयस्स आउधं
झरणं ।...१८१२। रणभूमीए कवचं होदि ज्झाणं कसायजुद्धम्मि/... ।१८६३। वहर रदणेसु जहा गोसीसं चदणं व गंधेसु। वेरुलियं व
मणीणं तह ज्माणं होई खंवयस्स १८१६ कषायो के साथ युद्ध करते समय ध्यान क्षपकके लिए आयुध व कवचके तुज्य । ।१८६२-१८६३। जैसे रत्नोमें वज्ररत्न श्रेष्ठ है, सुगन्धि पदार्थाम गोशीर्ष चन्दन श्रेष्ठ है, मणियोमे वैडूर्यमणि उत्तम है, वैसे ही ज्ञान दर्शन चारित्र और तपमें ध्यान ही सारभूत व सर्वोत्कृष्ट है (१८६१ ज्ञा.सा./३६ पाषाणेस्वर्ण काष्ठेऽग्निः विनाप्रयोगैः। न यथा दृश्यन्ते इमानि ध्यानेन विना तथात्मा ।३६। जिस प्रकार पाषाण में स्वर्ण आर काष्ठमें अग्नि बिना प्रयोगके दिखाई नहीं देती, उसी प्रकार ध्यानक बिना आत्मा दिखाई नहीं देता। अ.ग.पा./१५/६६ तपांसि रौद्राण्यनिर्श विधता, शास्त्राण्यधीतामखिलानि नित्यम्। धत्ता चरित्राणि निरस्ततन्द्रो, न सिध्यति ध्यानमृते तथाऽपि।६६ -निशदिन घोर तपश्चरण भले करा, नित्य ही सम्पूर्ण शास्त्रोका अध्ययन भले करो, प्रमाद रहित होकर चारित्र भले धारण करो, परन्तु ध्यानके मिना सिद्धि नहीं। . ज्ञा./४०/३.५ कुखस्याप्यस्य सामर्थ्यमचिन्न्यं त्रिदशैरपि। अनेकविक्रियासारध्यानमार्गावलम्बित. 1३। असावानन्तप्रथितप्रभवः स्वभावतो यद्यपि यन्त्रनाथ.। नियुज्यमान' स पुन' समाधौ करतात विश्वं चरणाग्रलीनम् ।। - अनेक प्रकारकी विक्रियारूप असार ध्यानमार्गको अवलम्बन करनेवाले क्रोधीके भी ऐसी शक्ति उत्पन्न हो जाती है कि जिसका देव भी चिन्तवन नहीं कर सकते ।। स्वभावसे हो अनन्त और जगत्प्रसिद्ध प्रभावका धारक यह आत्मा यदि समाधिमें जोडा जाये तो समस्त जगतको अपने चरणों में लीन कर लेता है। (केवलज्ञान प्राप्त कर लेता है । (विशेष दे० धम्यध्यान/४)
१०. सर्व प्रकारके धर्म एक ध्यान में अन्तर्भत हैं द्र.सं./म./४७ दुविह पि मोक्रबहे ज्झाणे पाउणदि वं मुणी णियमा । तम्हा पयत्तचित्ता जूय झाणं समभसह ।४७ -मुनिध्यानके करनेस जो नियमसे निश्चय व व्यवहार दोनों प्रकारके मोक्षमार्गको पाता है, इस कारण तुम चित्तको एकान करके उस ध्यानका अभ्यास करो। (त अनु./३३) (और भी दे० मोक्षमार्ग/२धर्म/३/३) नि.सा./ता,वृ/११६ अत. पंचमहावतपंचसमितित्रिगुप्तिप्रत्या
ख्यानप्रायश्चित्तालोचनादिकं सर्व ध्यानमेवेति। -- अत' पंच महावत, पंचसमिति, त्रिगुप्ति. प्रत्याख्यान, प्रायश्चित्त और आलोचना आदि सब ध्यान ही है।
३. ध्यानकी सामग्री व विधि १. ध्यानकी द्रव्य क्षेत्रादि सामग्री व उसमें उत्कृष्टादि विकल्प त.अनु./४८-४६ द्रव्यक्षेत्रादिसामग्री ध्यानोत्पत्तौ यतस्त्रिधा। ध्यातारस्त्रिविधास्तस्मात्तेषां ध्यानापि त्रिधा ।४। सामग्रीत प्रकृष्टाया धयातरि ध्यानमुत्तमम् । स्याज्जघन्यं जघन्याया मध्यमायास्तु मधयमम् ॥४६॥ - ग्रानकी उत्पत्तिके कारणभूत द्रव्य क्षेत्र काल भाव आदि सामग्री क्योंकि तीन प्रकार की है, इसलिए ध्याता व ध्यान भी तीन प्रकारके हैं ।४। उत्तम सामग्री से ध्यान उत्तम होता है, मध्यम- से मध्यम और जघन्यसे जघन्य ४६। (ध्याता/६)
२. ध्यानका कोई निश्चित काल नहीं है ध, १३/५.४.२६/१६/६७ व टीका प्र.६६/६ अणियदकालो-सव्वकालेसु सुहपरिणामसंभवादो। एत्थ गाहाओ-कालो वि सो चिय जहि जोगसमाहाणमुत्तम लहछ । ण हु दिवसणिसाबलादिणियमण उमाणा
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
भा० २-६३
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