Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 2
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 497
________________ धर्माधम ४८९ ३. धर्माधर्म द्रव्योंको सिद्धि गतिस्थितिपरिणामत्वादलोकेऽपि वृत्तिः केन वार्यते।ततो न लोकालोकविभाग. सिध्येत। -जीव ब पुद्गल स्वभावसे ही गति परिणामको तथा गतिपूर्वक स्थिति परिणामको प्राप्त होते हैं। यदि गति परिणाम और गतिपूर्वक स्थिति परिणामका स्वयं अनुभव करनेवाले उन जीव पुद्गलको बहिरंगहेतु धर्म और अधर्म न हो, तो जीव पुदगलके निरर्गल गतिपरिणाम और स्थितिपरिणाम होनेसे, अलोकमे भी उनका होना किससे निवारा जा सकता है। इसलिए लोक और अलोकका विभाग सिद्ध नहीं होता। (पं.का./त प्र./१२). (दे० धर्माधर्म/३/५) अ. प./२ धर्मद्रव्ये गतिहेतुत्वममूर्तत्वमचेतनत्वमेते त्रयो गुणाः । अधर्मद्रव्ये स्थितिहेतुत्वममूतं त्वमचेतनत्वमिति । धर्मद्रव्यमें गतिहेतुत्व, अमूर्तत्व व अचेतनत्व ये तीन गुण हैं और अधर्म द्रव्यमें स्थितिहेतुत्व, अमूर्तत्व व अचेतनत्व ये तीन गुण हैं। नोट:-इनके अतिरिक्त अस्तित्वादि १० सामान्य गुण या स्वभाव होते हैं। -(दे० गुण/३) २. दोनोंका उदासीन निमित्तपना पं.का./भू./८५-८६ उदयं जह मच्छाणं गमणाणुग्गहकर हवदि लोए । तह जीवपुग्गलाणं धम्म दव्वं वियाणाहि ।८। जह हवदि धम्मदव्वं तह तं जाणेह दवमधमक्वं । ठिदिकिरियाजुत्ताणं कारणभूदं तु पुढवीव ।६। -जिस प्रकार जगदमें पानी मछलियोंको गमनमें अनुग्रह करता है, उसी प्रकार धर्मद्रव्य जीव पुद्गलोंको गमममें अनुग्रह करता है ऐसा जानो।८। जिस प्रकार धर्म द्रव्य है उसी प्रकारका अधर्म नामका द्रव्य भी है, परन्तु वह स्थिति क्रियायुक्त जीव पुद्गलोको पृथिवीकी भाँति (उदासीन) कारणभूत है। स.सि./५/१७/२८२/५ गतिपरिणामिना जीवपुद्गलानां गत्युपग्रह कर्तव्ये धर्मास्तिकायः साधारणाश्रयो जलवन्मत्स्यगमने। तथास्थितिपरिणामिना जीवपुद्गलानां स्थित्युपग्रहे कर्तव्ये अधर्मास्तिकायः साधारणाश्रयः पृथिवीधातुरिवाश्वादिस्थिताविति । -जिस प्रकार मछलीके गमनमें जल साधारण निमित्त है, उसी प्रकार गमन करते हुए जीव और पुद्गलोंके गमनमें धर्मास्तिकाय साधारण निमित्त है। तथा जिस प्रकार घोड़ा आदिके ठहरनेमें पृथिवी साधारण निमित्त है (या पथिकको ठहरनेके लिए वृक्षकी छाया साधारण निमित्त है इ.स.) उसी प्रकार ठहरनेवाले जीव और पुद्गलोंके ठहरनेमें अधर्मास्तिकाय साधारण निमित्त है। (रा.वा./५/१/१९-२०/४३३/३०); (द्र.सं./मू./ १७-१८); (गो.जी./जी.प्र./६०५/१०६०/३); (विशेष दे० कारण। III/२/२) ३. धर्माधर्म दोनोंकी कथंचित् प्रधानता भ.आ./मू-२१३४/१८३५ धम्माभावेण दु लोगग्गे पडिहम्मदे अलोगेण । गदिमुवकुणदि हु धम्मो जीवाणं पोग्गलाणं ।२१३४॥ -धर्मास्तिकायका अभाव होनेके कारण सिद्धभगवान लोकसे ऊपर नहीं जाते। इसलिए धर्मद्रव्य ही सर्वदा जीव पुद्गलकी गतिको करता है। (नि.सा./सू./१८४): (त.सू./१०/८) भ.आ.//२१३६/१८३८ कालमणतमधम्मोपग्गहिदो ठादि गयणमोगाढे । सो उवकारो इट्ठो अठिदि समावेण जीवाण।२१३६ - अधर्म द्रव्यके निमित्तसे ही सिद्धभगवान लोकशिवरपर अनन्तकाल निश्चल ठहरते हैं। इसलिए अधर्म ही सर्वदा जीव व पुद्गलकी स्थितिके कर्ता हैं। स.सि./१०/८/११/२ आह -यदि मुक्त ऊर्ध्वगतिस्वभावो लोकान्तादूर्वमपि कस्मान्नोत्पततीत्यत्रोच्यते-गत्युपग्रहकारणभूतो धर्मास्तिकायो नोपर्यस्तीत्यलोके गमनाभाव. । तदभावे च लोकालोकविभागाभावः प्रसज्यते। प्रश्न-यदि मुक्त जीव ऊर्ध्वगति स्वभाववाला है तो लोकान्तसे ऊपर भी किस कारणसे गमन नहीं करता है। उत्तरगतिरूप उपकारका कारणभूत धर्मास्तिकाय लोकान्तके ऊपर नहीं है, इसलिए अलोकमें गमन नहीं होता। और यदि अलोकमें गमन माना जाता है तो लोकालोकके विभागका अभाव प्राप्त होता है। (दे० धर्माधर्म/१/७); (रा.वा./१०/८/१/६४६/8); (ध.१३/१०६२६/२२३/३); (त.सा.14/४४) पं.का./त-प्र./८७ तत्र जोवपुद्गलौ स्वरसत एव गतितत्पूर्व स्थितिपरिणामापन्नौ । तयोर्यदि गतिपरिणामं तत्पूर्वस्थितिपरिणामं वा स्वयमनुभवतोर्बहिरङ्गहेतू धर्माधमौं न भवेताम, तदा तयोनिरर्गल ३. धर्माधर्म द्रव्योंको सिद्धि १. दोनों में नित्य परिणमन होनेका निर्देश पं.का././८४,८६ अगुरुलघुगेहि सया तेहिं अणं तेहि परिणदं णिच्च। गदिकिरियाजुत्ताणं कारणभूदं सयमकज्जं ।४। जह हदि धम्मदव्यं तह तं जाणेह दवमधमक्वं.. ८६। - वह (धर्मास्तिकाय ) अनन्त ऐसे जो अगुरुलघुगुण उन रूप सदैव परिणमित होता है। नित्य है, गतिक्रियायुक्त द्रव्योंको क्रियामे निमित्तभूत है और स्वयं अकार्य है। जैसा धर्मद्रव्य होता है वैसा ही अधर्मद्रव्य होता है। (गो.जी./ मू./५६६/१०१५) २. परस्परमें विरोध विषयक शंकाका निरास स.सि./१/१७/२८३/६ तुल्यबलत्वात्तयोर्गतिस्थितिप्रतिबन्ध इति चेत् । न, अप्रेरकत्वात् । प्रश्न-धर्म और अधर्म ये दोनों द्रव्यतुल्य बलवाले हैं, अतः गतिसे स्थितिका और स्थितिसे गतिका प्रतिबन्ध होना चाहिए ! उत्तर -नहीं, क्योंकि, ये अप्रेरक हैं। (विशेष दे० कारण/ III/२/२) ३. प्रत्यक्ष न हाने सम्बन्धी शंकाका निरास स.सि./५/१७/२८३/६ अनुपलब्धेर्न तौ स्त रखरविषाणवदिति चेत् । न; सर्वप्रतिवादिनः प्रत्यक्षाप्रत्यक्षाननिभिवाञ्छति । अस्मान्प्रति हेतोरसिद्धश्च । सर्वज्ञेन निरतिशयप्रत्यक्षज्ञानचक्षुषा धर्मादयः सर्वे उपलभ्यन्ते । तदुपदेशाच्च श्रुतज्ञानिभिरपि । प्रश्न-धर्म और अधर्म द्रव्य नहीं हैं, क्योंकि, उनकी उपलब्धि नहीं होती, जैसे गधेके सींग ! उत्तर-नहीं, क्योंकि, इसमें सब वादियों को विवाद नहीं है। जितने भी वादी हैं. वे प्रत्यक्ष और परोक्ष दोनों प्रकारके पदार्थोंको स्वीकार करते हैं। इसलिए इनका अभाव नहीं किया जा सकता। दूसरे हम जैनोंके प्रति अनुपलब्धि' हेतु असिद्ध है, क्योंकि जिनके सातिशय प्रत्यक्ष ज्ञानरूपी नेत्र विद्यमान है, ऐसे सर्वज्ञ देव सब धर्मादिक द्रव्यों को प्रत्यक्ष जानते है और उनके उपदेशसे श्रुतज्ञानी भी जानते हैं। (रा.वा./५/१७/२८-३०/४६४/१६) ४.दोनोंके अस्तित्वकी सिद्धि में हेतु स सि./१०/८/४७१/४ तदभावे च लोकालोकविभागाभावः प्रसज्यते । - १, उनका अभाव माननेपर लोकालोकके विभागके अभावका प्रसंग प्राप्त होता है। -(विशेष दे० धर्माधर्म/१/७) प्र.सा./त.प्र /१३३ तथै कवारमेन गतिपरिणतसमस्तजीवपुद्गलानामालोकाइ गमनहेतुत्वमप्रदेशत्वारकाले पुद्गलयोः समुद्धातान्यत्र लोकासख्येयभागमात्रत्वाज्जीवस्य लोकालोकसीम्नोऽचलित्वादाकाशस्य विरुद्धकार्यहेतुत्वादधर्मस्यासंभवाद्धर्ममधिगमयति । तथैकवारमेव स्थितिपरिणतसमस्तजीवपुद्गलानामालोकात्स्थानहेतुत्वमः... अधर्ममधिगमयति । २. एक ही कालमें गतिपरिणत समस्त जीवपुद्गलोंको लोकतक गमनका हेतुत्व धर्मको बतलाता है, क्योंकि काल जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश भा० २-६२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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