Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 2
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 501
________________ ध्याता ४९३ ध्याता म.पु /२१/८६-८७ दोरोत्सारितदुानो दुर्ने श्या. परिवर्जयन् । लेश्याविशुद्धिमालम्ब्य भावयन्नप्रमत्तताम् ।८६ प्रज्ञापारमितो योगी ध्याता स्यादीबलान्वित' । सूत्रालम्बनो धीर. सोढाशेषपरीषह. १८७। अपि चोज तसंवेग' प्राप्तनिर्वेदभावन। वैराग्यभावनोत्कर्षात पश्यन् भोगानतर्ण कान् ।।८। सम्यग्ज्ञानभावनापास्तमिथ्याज्ञानतमोधनः । विशुद्धदर्शनापोढगाढमिथ्यात्वशल्यकः ।। -आर्त व रौद्र ध्यानोंसे दूर, अशुभ लेश्याओंसे रहित, लेश्याओकी विशुद्धतासे अवलम्बित, अप्रमत्त अवस्थाकी भावना भानेवाला ८६ बुद्धिके पारको प्राप्त, योगी, बुद्धिबलयुक्त, सूत्रार्थ अवलम्बी, धीर वीर, समस्त परीषहोंको सहनेवाला 1८७१ संसारसे भयभीत, वैराग्य भावनाएँ भानेवाला, वैराग्यके कारण भोगोपभोगकी सामग्रीको अतृप्तिकर देखता हुआ 1८८ सम्यग्ज्ञानको भावनासे मिथ्याज्ञानरूपी गाढ अन्धकारको नष्ट करनेवाला, तथा विशुद्ध सम्यग्दर्शन द्वारा मिथ्या शल्यको दूर भगाने बाला, मुनि ध्याता होता है। (दे० ध्याता/४ त. अनु.) द्र.सं./मू./७ तवसुदवदवं चेदा झाणरह धुरंधरोहवे जम्हा । तम्हा तत्तिय णिरदा तल्लद्धीए सदा होह । -क्योंकि तप व्रत और श्रुतज्ञानका धारक आत्मा ध्यानरूपी रथकी धुराको धारण करनेवाला होता है, इस कारण हे भव्य पुरुषो! तुम उस ध्यानकी प्राप्ति के लिए निरन्तर तप श्रुत और व्रतमें तत्पर होलो।। चा.सा./१६७/२ ध्याता गुप्तेन्द्रियश्च । -प्रशस्त ध्यानका ध्याता मन वचन कायको वशमें रखनेवाला होता है। ज्ञा./१/६ मुमुक्षुर्जन्मनिर्विगः शान्तचित्तो वशी स्थिर.। जिताक्षः संवृतो धीरो ध्याता शास्त्रे प्रशस्यते।६। मुमुक्षु हो, संसारसे विरक्त हो, शान्तचित्त हो, मनको वश करनेवाला हो, शरीर व आसन जिसका स्थिर हो, जितेन्द्रिय हो, चित्त सवरयुक्त हो (विषयों में विकल न हो), धीर हो, अर्थात उपसर्ग आनेपर न डिगे, ऐसे ध्याताको ही शास्त्रों में प्रशंसा की गयो है। (म.पु /२१/६०-६५); (ज्ञा./२७/३) ३. ध्याता न होने योग्य व्यक्ति ज्ञा.// श्लोक नं. केवल भावार्थ-जो मायाचारो हो ।३२ मनि होकर भी जो परिग्रहधारी हो।३३। ख्याति लाभ पूजाके व्यापारमें आसक्त हो ।३। 'नौ सौ चूहे खाके विक्ली हजको चली' इस उपारल्यानको सत्य करनेवाला हो ।४२। इन्द्रियोंका दास हो ।४३। विरागताको प्राप्त न हुआ हो।४४ा ऐसे साधुओंको ध्यान प्राप्ति नही होती। ज्ञा /६२ एते पण्डितमानिनः शमदमस्वाध्यायचिन्तायुता', रागादिग्रहयश्चिता यतिगुणप्रध्वंसतृष्णाननाः । व्याकृष्टा विषयैर्मदै प्रमुदिताः शङ्काभिरजीकृता, न ध्यानं न विवेचनं न च तप' क बराकाः क्षमाः ६। जो पण्डित तो नहीं है, परन्तु अपनेको पण्डित मानते हैं, और शम, दम, स्वाध्यायसे रहित तथा रागद्वेषादि पिशाचोंसे वंचित हैं, एवं मुनिपनेके गुण नष्ट करके अपना मुँह काला करनेवाले हैं, विषयोंसे आकर्षित, मदोंसे प्रसन्न, और शंका सन्देह शल्यादिसे ग्रस्त हों, ऐसे रंक पुरुष न ध्यान करनेको समर्थ है, न भेदज्ञान करनेको समर्थ हैं और न तप ही कर सकते हैं। दे० मंत्र-(मन्त्र यन्त्रादिकी सिद्धि द्वारा वशीकरण आदि कार्योंकी सिद्धि करनेवालोंको ध्यानकी सिद्धि नहीं होती) दे० धर्म पान/२/३ (मिथ्यादृष्टियों को यथार्थ धर्म व शुक्लध्यान होना सम्भव नहीं है) दे० अनुमव/४/५ (साधुको हो निश्चयध्यान सम्भव है गृहस्थको नहीं, क्योंकि प्रपंचग्रस्त होनेके कारण उसका मन सदा चंचल रहता है। ४. धर्मध्यानके योग्य ध्याता का.अ././४७६ धम्मे एयग्गमणो जो णवि वेदेदि पंचहा विसर्य । वेरग्गमओ णाणी धम्मज्माणं हवे तस्स १४७६३ =जो ज्ञानी पुरुष धर्ममे एकाग्र मन रहता है, और इन्द्रियोके विषयो का अनुभव नही करता, उनसे सदा विरक्त रहता है, उसीके धर्मध्यान होता है । (दे० ध्याता/२ मे ज्ञा./४/६) त. अनु/४१-४५ तत्रासन्नीभवन्मुक्तिः किंचिदासाद्य कारणम् । विरक्तः कामभोगेभ्यस्त्यक्त-सर्वपरिग्रहः ।४१) अभ्येत्य सम्यगाचार्य दीक्षा जैनेश्वरौं श्रित' । तपोसंयमसंपन्न प्रमादरहितांशयः ॥४२सम्यग्निर्णीतजीवादिध्ययवस्तुव्यवस्थिति' । आर्तरौदपरित्यागाल्लब्धचित्तप्रसक्तिक. ४३। मुक्तलोकद्वयापेक्ष सोढाऽशेषपरीपह' । अनुष्ठितक्रियायोगो ध्यानयोगे कृतोद्यमः ।४४। महासत्वः परित्यक्तदुर्लेश्याSशुभभावनाः । इतीहग्लक्षणो ध्याता धर्मध्यानस्य संमतः ।४।। -धर्मध्यानका ध्याता इस प्रकारके लक्षणोंवाला माना गया हैजिसकी मुक्ति निकट आ रही हो, जो कोई भी कारण पाकर कामसेवा तथा इन्द्रियभोगोसे विरक्त हो गया हो, जिसने समस्त परिग्रहका त्याग किया हो, जिसने आचार्य के पास जाकर भले प्रकार जैनेश्वरी दीक्षा धारण की हो, जो जैनधर्ममें दीक्षित होकर मुनि बना हो, जो तप और संयमसे सम्पन्न हो, जिसका आश्रय प्रमाद रहित हो. जिसने जीवादि ध्येय वस्तुकी व्यवस्थितिको भले प्रकार निर्णीत कर लिया हो, आर्त और रौद्र ध्यानोंके त्यागसे जिसने चित्तकी प्रसन्नता प्राप्त की हो, जो इस लोक और परलोक दोनोंकी अपेक्षासे रहित हो, जिसने सभी परिषहोंको सहन किया हो, जो क्रियायोगका अनुष्ठान किये हुए हो (सिदभक्ति आदि क्रियाओं के अनुष्ठानमें तत्पर हो।) ध्यानयोगमें जिसने उद्यम किया हो ( ध्यान लगानेका अभ्यास किया हो). जो महासामर्थ्यवान हो, और जिसने अशुभ लेश्याओ तथा बुरी भावनाओंका त्याग किया हो। (ध्याता/२/में म.पू.) और भी दे० धर्म्यध्यान/९/२ जिनाज्ञापर श्रद्धान करनेवाला, साधुका गुण कीर्तन करनेवाला, दान, श्रुत, शील, संयममें तत्पर, प्रसन्न चित्त, प्रेमी, शुभ योगी, शास्त्राभ्यासी, स्थिरचित्त, बैराग्य भावनामें भानेवाला ये सब धर्मध्यानीके बाह्य व अन्तरंग चिह्न है। शरीरको नीरोगता, विषय लम्पटता व निष्ठुरताका अभाव, शुभ गन्ध, मलमूत्र अल्प होना, इत्यादि भी उसके बाह्य चिह्न है। दे० धर्मध्यान/९/३ वैराग्य, तत्त्वज्ञान, परिग्रह त्याम, परिषहजय, कषाय निग्रह आदि धर्मध्यानकी सामग्री है। ५. शुक्लध्यान योग्य ध्याता ध.१३/१,४,२६/गा,६७-७१/८२ अभयासंमोहविवेगविसग्गा तस्स हाँति लिंगाई। लिंगिजइ जेहि मुणी सुक्कझाणेवगयचित्तो।६७। चालिज्जइ वीहेह व धीरोण परीसहोवसग्गेहि । सहुमेसु ण सम्मुझह भावेसु ण देवमायासु।६८० देह विचित्तं पैच्छइ अपाणं तह य सव्यसंजोए । देहोमहिवोसग्गं हिस्संगो सबदो कुणदि ।६।। ण कसायसमुत्येहि वि बाहिज्जइ माणसेहि दुक्खेहि। ईसाबिसायसोगादिएहि झाणोवगयचित्तो 1001 सीयायवादिएहि मि सारीरेहिं बहुप्पयारेहिं । णो बाहिज्जइ साहू झेयम्मि सुणिच्चलो संता ७१ - अभय, असंमोह, विवेक और विसर्ग ये शुक्लध्यानके लिंग हैं, जिनके द्वारा शुक्लध्यानको प्राप्त हुआ चित्तवाला मुनि पहिचाना जाता है।६। वह धीर परिषहों और उपसगोंसे न तो चलायमान होता है और न डरता है, तथा वह सूक्ष्म भावों व देवमायामें भी मुग्ध नहीं होता है।६८। वह देहको अपनेसे भिन्न अनुभव करता है, इसी प्रकार सब तरहके संयोगोंसे अपनी बात्माको भी भिन्न अनुभव करता है, तथा निःसंग हुआ वह सब प्रकारसे देह व उपाधिका उत्सर्ग करता है । ध्यान में अपने चित्तको लीन करनेवाला, वह कषायोंसे उत्पन्न हुए ईर्ष्या, विषाद और शोक आदि मानसिक दु:खोसे भी नहीं बाँधा जाता है ।७०। ध्येयमें निश्चल हुआ वह साधु शीत व आतप आदि बहुत प्रकारकी बाधाओके द्वारा भी नहीं बाँधा जाता है ७१। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org |

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